Download App

खुदकुशी करने वाले थे कॉमेडियन जौनी लीवर, पर तभी…

‘दिलवाले’ में अहम भूमिका निभा चुके अभिनेता जौनी लीवर की जिंदगी एक बार मौत से रूबरू हो चुकी है. सब को हंसाने वाले इस कौमेडियन स्टार की जिंदगी में एक वक्त ऐसा आया जब वे खुदकुशी करने के लिए ट्रेन की पटरियों पर चले गए थे. सामने से ट्रेन आ रही थी. जौनी ने बताया, ‘‘मैं बस मरने ही वाला था कि मेरी आंखों के सामने मेरी बहनों के चेहरे उभर आए. मुझे लगा कि मेरे बाद इन का क्या होगा और मैं फौरन पटरी से हट गया.’’

जौनी लीवर ने जिंदगी में कई उतारचढ़ाव देखे हैं. वे हिंदुस्तान लीवर कंपनी में मामूली मजदूर थे. और्केस्ट्रा में मिमिक्री करते हुए वे फिल्मों में आए. वे अपने फैन्स को यह मैसेज देते हैं कि कोई भी चीज हमेशा नहीं रहती. जौनीजी, आप के कथन के साथ यह भी सही है कि हंसी ऐसी चीज है जो हमेशा रहती है जिसे परोसने में आप ऐक्सपर्ट हैं.

 

समाचार

केंद्र सरकार की नई कृषि नीति

भारत का सिंचित क्षेत्र होगा दोगुना

नई दिल्ली : इस बात में शक नहीं कि काफी पुरानी हो चुकी वर्तमान नई सरकार भी कृषि के मामलों को काफी तवज्जुह दे रही है. वैसे भी कृषि के सहारे खुद की तरक्की करना हर सरकार का खास फार्मूला रहा?है. अंदरूनी वजह जो भी हो, मगर कृषि की तरक्की की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता. केंद्र की नई कृषि नीति भी खासी आकर्षक कही जा सकती है. भारत के कृषि क्षेत्र के हाल फिलहाल ज्यादा अच्छे नहीं कहे जा सकते. हालात बिगाड़ने में कुदरत का सहयोग भी काफी ज्यादा रहा है. बहरहाल हिंदुस्तान के कृषि क्षेत्र को नया जीवन देने के लिए गठित की गई टास्कफोर्स के माहिर इस बात पर एकदूसरे की राय से सहमत हैं कि पानी और बिजली की कीमत को ले कर वर्तमान नीतियां पानी के दोषपूर्ण यानी गलत इस्तेमाल को बढ़ावा दे रही?हैं. इस वजह से काफी पानी बरबाद हो रहा?है. इसी वजह से माहिरों का दल एक नई नीति पर काम कर रहा?है. उम्मीद की जा रही?है कि यह नीति मौजूदा पानी संसाधन के साथसाथ सिंचित इलाके को दोगुना कर देगी. सूत्रों के मुताबिक टास्कफोर्स कृषि की ग्रोथ में इजाफे के लिए आनुवांशिक तौर पर संशोधित बीजों यानी जीएम बीजों के इस्तेमाल और न्यूनतम फसल समर्थन मूल्य सुधारों की संभावनाएं भी खोज रही?है. इस काम के लिए विशेषज्ञों के पैनल का गठन नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढि़या की अगवाई में किया गया?है.

एक पत्र में टास्क फोर्स ने कहा है कि भारत को ऐसे इलाकों में, जहां पुरानी तकनीक तिलहन व दालों की खेती में पैदावार के मोरचे पर मुनासिब नतीजे नहीं दे रही है, वहां जरूरी हिफाजत के तरीकों के साथ ट्रांसजेनिक बीजों की किस्मों के इस्तेमाल की उम्मीदें खोजनी चाहिए. टास्कफोर्स ने अपने पत्र में बताए गए तरीकों पर सूबों, किसानों, कारोबारियों और जनता की राय मांगी है, ताकि जरूरत के मुताबिक उन में सुधार किया जा सके. विचारपत्र के मुताबिक भारत में बीटी काटन और विश्व के अन्य हिस्सों में जीएम बीजों ने कृषि में उत्पादकता को बड़े पैमाने पर बढ़ाने में जीएम तकनीक के इस्तेमाल से जुड़ी उम्मीदों को साबित किया?है. पत्र में खुलासा किया गया?है कि ट्रांसजेनिक बीजों की किस्में इनसान की सेहत और पर्यावरण पर कीटनाशकों के खराब असर, खाद्य सुरक्षा तथा खाने में विटामिनों व पोषक तत्त्वों की कमी जैसी दिक्कतों का हल करने में बेहद मददगार साबित हो सकती?है. शुरुआती तौर पर चुने गए खास जिलों में परीक्षण के लिए काटन की फसल को लिए जाने की उम्मीद है. परीक्षण के अच्छे नतीजे आने के बाद मामल आगे बढ़ सकेगा और दूसरी तमाम फसलें भी कसौटी पर परखी जाएंगी. इसी प्रकार से टास्कफोर्स ने उर्वरक वगैरह चीजों के लिए किसानों की सब्सिडी पर सीधे हस्तांतरण पर जोर दिया है, ताकि उन्हें इस मामले में किसी किस्म की दिक्कत का सामना न करना पड़े.

टास्कफोर्स का कहना?है कि इस मुहिम के लिए लैंडलीजिंग कानून को बनाया जाना निहायत जरूरी?है. कुल मिला कर केंद्र की नई कृषि नीति फिलहाल सही दिशा में बढ़ती नजर आ रही?है. कम से कम खेती के मामले में केंद्र के रुख की तारीफ की जानी चाहिए. भले ही देश के अन्य मोरचों पर केंद्र सरकार की फजीहत हो रही?है, मगर खेती के मामले में केंद्र का रुख सही?है.?  

*
लोकसभा से चीनी उपकर बिल मंजूर

नई दिल्ली : इसे गन्ना किसानों के लिहाज से खुशी की बात कहा जा सकता?है कि उन्हें राहत देने वाले चीनी उपकर संशोधन विधेयक, 2015 को लोकसभा ने पारित कर दिया है. इस बिल में चीनी उपकर की सीमा को 25 रुपए से बढ़ा कर 200 रुपए प्रति क्विंटल किए जाने का प्रावधान है. इस के साथ ही केंद्र सरकार ने 100 रुपए चीनी उपकर बढ़ाने का फैसला लिया है.  इस से चीनी के मूल्य में 1 रुपया प्रति किलोग्राम का इजाफा होगा, मगर यह रकम गन्ना किसानों को बकाया चुकाने और गन्ना कारोबार को सहारा देने में खर्च की जाएगी. फिलहाल चीनी उपकर की सीमा 25 रुपए है, जबकि सरकार ने प्रति क्विंटल 24 रुपए का उपकर लगाया हुआ?है. अब चीनी पर उपकर बढ़ कर 124 रुपए प्रति क्विंटल हो जाएगा. इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन के अविनाश वर्मा का कहना है कि इस बिल का प्रावधान सरकार को चीनी पर उपकर लगाने की शक्ति देने के लिए?है, मगर सरकार 200 रुपए उपकर नहीं लगा सकती?है. ऐसा करना किसी लिहाज से मुनासिब नहीं होगा. बहरहाल, लोकसभा से चीनी उपकर संशोधन बिल पारित होने से इस बात की उम्मीद जगी है कि जल्दी ही गन्ना उत्पादन क्षेत्र की तमाम चुनौतियां कम हो जाएंगी. इस से एक तरफ किसानों को काफी राहत मिलेगी, तो दूसरी तरफ चीनी मिल मालिकों के लिए भी आर्थिक सहूलियतें बेहतर होंगी.

खराब वक्त में सरकार ने यह कदम गन्ना किसानों को प्रति क्विंटल साढ़े 4 रुपए अतिरिक्त देने के लिए खासतौर पर उठाया है. आगामी मार्च यानी मार्च 2014 से यह रकम सीधे गन्ना किसानों के बैंकखातों में भेजी जाएगी. यकीनन बदहाली का लंबे अरसे से लगातार सामना कर रहे किसानों के लिए यह मामूली मदद ही होगी, पर तबाही के आलम में थोड़ा सहारा भी कम नहीं होता. लंबे अरसे से करोड़ों रुपए का बकाया भुगतान पाने की बाट जोह रहे तमाम गन्ना किसानों को पूरी तरह से राहत कब मिलेगी, इस का अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल है.      

            

*

हालात

काटन के दाम में इजाफा

नई दिल्ली : कुछ अरसा पहले तक काटन की कीमत 3800 से 3900 रुपए प्रति क्विंटल चल रही?थी, जो अब उछल कर 4100 रुपए प्रति क्विंटल हो गई है.

कन्फे डरेशन आफ इंडियन टेक्सटाइल इंडस्ट्री (सिटी) के पूर्व महासचिव और काटन विशेषज्ञ डीके नागर के मुताबिक पाकिस्तान इस साल 10 लाख बेल्स (1 बेल्स=170 किलोग्राम) काटन का आयात भारत से करेगा. यह किसानों के लिए राहत वाली बात होगी. मजेदार तथ्य यह?है कि चीन से होने वाली काटन की मांग में आई गिरावट के बावजूद काटन के दाम बढ़ रहे?हैं. इस का कारण पाकिस्तान व बांग्लादेश से काटन की मांग में बढ़ोतरी होना?है. दूसरी ओर घरेलू स्तर पर काटन के उत्पादन में पिछले साल के मुकाबले गिरावट होने से भी इस के दाम बढ़े?हैं. काटन में तेजी की वजह से गारमेंट के दाम में गिरावट की उम्मीद खत्म हो गई?है. कुल मिला कर काटन के दाम बढ़ने से काटन किसानों को तो राहत मिलेगी ही. डीके नायर का कहना है कि काटन के दाम में इजाफा होने से यार्न (धागा) उद्योग पर असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि अभी काटन का पीक सीजन चल रहा?है. इस साल 375 लाख बेल्स काटन का उत्पादन होने का अदाजा है, जबकि पिछले साल 387 लाख बेल्स काटन पैदा हुआ था. ‘काटन कारपोरेशन आफ इंडिया’ के मुताबिक काटन की कीमत में और इजाफा हो सकता?है. काटन उगाने वालों के लिहाज से दामों में इजाफा होना फायदे वाली बात?है. इस से उन्हें अपना उत्पादन बढ़ाने का हौसला मिलेगा.        

फैसला

तय होगी बीटी काटन बीज की कीमत

नई दिल्ली : केंद्र सरकार ने आने वाली मार्च 2016 से एक जैसी अधिकतम बिक्री कीमत तय कर के आनुवंशिक तौर पर संशोधित किस्मों सहित कपास के बीजों के दामों को भी नियंत्रित करने का अहम फैसला लिया?है. अचानक उठे सरकार के इस कदम से ग्लोबल हाईब्रिड बीज कंपनी मानसेंटों को करारा झटका जोर से लग सकता है और इस से उस की आमदनी पर भी खासा असर पड़ सकता?है. कृषि मंत्रालय द्वारा जारी की गई अधिसूचना के मुताबिक मंत्रालय ने रायल्टी या ट्रेट वैल्यू सहित बीज वैल्यू और लाइसेंस शुल्क तय करने और उस का नियमन करने का अहम फैसला किया है. मौजूदा वक्त में बीटी काटन बीज को देश की अलगअलग जगहों में अलगअलग दामों पर बेचा जा रहा?है. हरियाणा और पंजाब में 450 ग्राम बीटी काटन बीज के 1 पैकेट की कीमत 1000 रुपए है. इसी तरह महाराष्ट्र में 450 ग्राम का बीटी काटन बीज का पैकेट 830 रुपए की दर से बेचा जा रहा?है.         

सुधार

चावल जमाकेंद्रों में होगा इजाफा

पटना : बिहार में धान की खरीद के बाद उस की कटाई और चावल बनाने के पूरे सिस्टम को सही करने की कवायद शुरू की गई?है. धान खरीद के बाद पैक्सों को यह जिम्मेदारी भी दी गई है कि वे उस का सीएमआर (समतुल्य चावल) बना कर राज्य खाद्य निगम को सौंप दें. इस के लिए अलग से चावल संग्रहण केंद्र खोला जाएगा. कृषि विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक इस साल राज्य में कम बारिश होने की वजह से धान और चावल की गुणवत्ता के कमजोर होने का अनुमान है, इसलिए संग्रहण केंद्र में रखे जाने वाले चावल खराब न हों, इस के लिए खास इंतजाम किया जाएगा. जमा केंद्रों पर ही बड़े गोदामों की?व्यवस्था की गई?है. राज्य के मुख्य सचिव अंजनी सिंह ने इस बारे में सभी जिलों के कमिश्नरों और जिलाधीशों को मौनेटरिंग के निर्देश दिए हैं. चावल मिलों से चावल की ढुलाई का काम पैक्सों और व्यापार मंडलों को सौंपा गया?है. गौरतबल है कि इस साल 30 लाख मीट्रिक टन धान की खरीद का लक्ष्य रखा गया है और इस में से 27 लाख मीट्रिक टन की खरीद पैक्सों और व्यापार मंडलों को करनी?है. पंचायत लेवल पर पैक्स, अनुमंडल लेवल पर राज्य खाद्य निगम और प्रमंडल लेवल पर व्यापार मंडल के केंद्रों पर धान की खरीद की जाएगी. वहीं बिहार भाजपा के अध्यक्ष मंगल पांडे ने सरकार पर यह आरोप लगाया है कि राज्य में 40 फीसदी धान की कटाई हो चुकी?है, मगर अभी तक धान की खरीद का काम शुरू नहीं हुआ?है. इस वजह से किसानों को रबी की फसलों की तैयारी में दिक्कतें पैदा हो रही?हैं. 

कामयाबी

9 पंचायतें खुले में शौच से मुक्त

पटना : बिहार के 7 जिलों में 9 पंचायतों को खुले में शौच से मुक्त पंचायत का दर्जा मिल गया?है. उन गांवों के सभी घरों में शौचालय बन गए हैं. गौरतलब?है कि लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग ने मार्च 2016 तक 100 पंचायतों को खुले में शौच से मुक्त करने का लक्ष्य रखा था. राज्य के खगडि़या जिले के गोगरी ब्लाक की रामपुर पंचायत को सब से पहले 10 अगस्त, 2015 को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया गया था. उस के बाद गोगरी ब्लाक की ही गोगरी बोरना पंचायत को 16 अक्तूबर को खुले में शौच से मुक्त का दर्जा दिया गया. इन के साथ ही गोपालगंज की जिगना जगन्नाथ, मुजफरपुर की पैगंबरपुर, बेगूसराय की अमरपुर, वैशाली की मझौली, समस्तीपुर की हरपुर सैदाबाद और पश्चिम चंपारण की राजलखौरा पंचायतों को पूरी तरह से शौच मुक्त होने का सेहरा मिला?है. पीएचईडी और यूनिसेफ द्वारा मिल कर चलाई जा रही शौच मुक्त पंचायत जागरूकता मुहिम धीरेधीरे सही नतीजे ला रही?है. यह तरक्की सूबे के लिए फख्र की बात?है.    

मुसीबत

महंगाई की चपेट में खानेपीने की चीजें 

नई दिल्ली : मानसून ठीक न होने व जबतक कुदरत का कहर होने की वजह से खानेपीने की चीजों पर खास असर पड़ा है. खानेपीने की चीजों की कीमतों में थोक व खुदरा दोनों ही स्तरों पर इजाफा दर्ज किया गया?है. खुदरा महंगाई का यह 14 महीनों का सब से ऊंचा स्तर है. नवंबर में खानेपीने के थोक दाम में 5.20 फीसदी का इजाफा रहा, तो खुदरा दाम इस बीच 6.07 फीसदी के स्तर पर पहुंच गए. नवंबर में खानेपीने के सामान महंगे होने से?थोक महंगाई दर 1.99 फीसदी के स्तर पर आ गई. गौरतलब है कि इस साल अक्तूबर में थोक महंगाई दर 3.81 फीसदी?थी. अक्तूबर में ही थोक खाद्य महंगाई दर 2.44 फीसदी थी. नवंबर में खुदरा महंगाई दर 5.41 फीसदी रही, जबकि इसी साल अक्तूबर में खुदरा महंगाई दर 5 फीसदी?थी. 2014 नवंबर में खुदरा महंगाई दर 3.27 फीसदी थी.सरकार के आंकड़ों के मुताबिक नवंबर में सब से ज्यादा दाल के दामों में इजाफा रहा. दाल की कीमत में पिछले साल के नवंबर के मुकाबले 58.17 फीसदी का इजाफा दर्ज किया गया, जबकि अक्तूबर में दाल के दामों में 52.98 फीसदी का इजाफा हुआ  था. नवंबर में दाल के साथ प्याज के दामों में भी 52.69 फीसदी का इजाफा हुआ. सब्जी की कीमतों में इस बीच 14.08 फीसदी की बढोतरी दर्ज की गई. नवंबर में दाल की खुदरा महंगाई दर 46.68 फीसदी रही. नवंबर में ही सब्जी की खुदरा महंगाई दर 4 फीसदी रही. सूत्रों के मुताबिक नवंबर में गेहूं के दामों में 4.53 फीसदी का इजाफा रहा. इसी दौरान दूध के दामों में 1.58 फीसदी का इजाफा रहा. अलबत्ता आलू के दामों में इस बीच बीते साल के नवंबर के मुकाबले 53.72 फीसदी की गिरावट रही. इसी तरह चीनी के थोक दामों में नवंबर में 11.16 फीसदी की गिरावट रही. एचडीएफसी बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री अभीक बरुआ का कहना?है कि खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ाने में दाल की भूमिका सब से ज्यादा है और गुजरे 2 महीनों में सब्जी की कीमतों में भी इजाफा दर्ज किया गया है.

अभीक अरुआ ने कहा कि साल 2007-08 के दौरान महंगाई दर में जो इजाफा शुरू हुआ था, वह दाल के दाम से ही हुआ था. उस के बाद से महंगाई दर लगातार बढ़ती ही चली गई. महंगाई बढ़ने का वह घातक सिलसिला बदस्तूर जारी?है और इस पर काबू पाना आसान नहीं?है.       

सेहत

उम्दा है गरम नीबूपानी

नई दिल्ली : सर्दी के मौसम में रोजाना गरम नीबूपानी पीना इनसान की सेहत के लिए काफी फायदेमंद साबित होता है. सेहत से संबंधित वेबसाइट डीवाईएलएन के मुताबिक रोजाना गरम नीबूपानी पीने से सेहत में काफी सुधार होता है.इस में विटामिन सी और एंटीआक्सीडेंट काफी मात्रा में पाए जाते?हैं, जो कोलेजन का स्तर बढ़ाने के अलावा त्वचा को बूढ़ी होने से बचाता?है. इस के अलावा सूरज की रोशनी और प्रदूषण से भी त्वचा महफूज रहती है. शोध करने वालों का कहना?है कि नीबूपानी से मोटापा घटने के साथसाथ कोलेस्ट्राल भी कम होता?है और ताजगी बनी रहती?है.        

भारत का सिंचित…

नई दिल्ली : इस बात में शक नहीं कि काफी पुरानी हो चुकी वर्तमान नई सरकार भी कृषि के मामलों को काफी तवज्जुह दे रही है. वैसे भी कृषि के सहारे खुद की तरक्की करना हर सरकार का खास फार्मूला रहा?है. अंदरूनी वजह जो भी हो, मगर कृषि की तरक्की की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता. केंद्र की नई कृषि नीति भी खासी आकर्षक कही जा सकती है. भारत के कृषि क्षेत्र के हाल फिलहाल ज्यादा अच्छे नहीं कहे जा सकते. हालात बिगाड़ने में कुदरत का सहयोग भी काफी ज्यादा रहा है. बहरहाल हिंदुस्तान के कृषि क्षेत्र को नया जीवन देने के लिए गठित की गई टास्कफोर्स के माहिर इस बात पर एकदूसरे की राय से सहमत हैं कि पानी और बिजली की कीमत को ले कर वर्तमान नीतियां पानी के दोषपूर्ण यानी गलत इस्तेमाल को बढ़ावा दे रही?हैं. इस वजह से काफी पानी बरबाद हो रहा?है. इसी वजह से माहिरों का दल एक नई नीति पर काम कर रहा है. उम्मीद की जा रही है कि यह नीति मौजूदा पानी संसाधन के साथसाथ सिंचित इलाके को दोगुना कर

देगी. सूत्रों के मुताबिक टास्कफोर्स कृषि की ग्रोथ में इजाफे के लिए आनुवांशिक तौर पर संशोधित बीजों यानी जीएम बीजों के इस्तेमाल और न्यूनतम फसल समर्थन मूल्य सुधारों की संभावनाएं भी खोज रही?है. इस काम के लिए विशेषज्ञों के पैनल का गठन नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढि़या की अगवाई में किया गया?है. एक पत्र में टास्क फोर्स ने कहा है कि भारत को ऐसे इलाकों में, जहां पुरानी तकनीक तिलहन व दालों की खेती में पैदावार के मोरचे पर मुनासिब नतीजे नहीं दे रही है, वहां जरूरी हिफाजत के तरीकों के साथ ट्रांसजेनिक बीजों की किस्मों के इस्तेमाल की उम्मीदें खोजनी चाहिए.

टास्कफोर्स ने अपने पत्र में बताए गए तरीकों पर सूबों, किसानों, कारोबारियों और जनता की राय मांगी है, ताकि जरूरत के मुताबिक उन में सुधार किया जा सके. विचारपत्र के मुताबिक भारत में बीटी काटन और विश्व के अन्य हिस्सों में जीएम बीजों ने कृषि में उत्पादकता को बड़े पैमाने पर बढ़ाने में जीएम तकनीक के इस्तेमाल से जुड़ी उम्मीदों को साबित किया है. पत्र में खुलासा किया गया?है कि ट्रांसजेनिक बीजों की किस्में इनसान की सेहत और पर्यावरण पर कीटनाशकों के खराब असर, खाद्य सुरक्षा तथा खाने में विटामिनों व पोषक तत्त्वों की कमी जैसी दिक्कतों का हल करने में बेहद मददगार साबित हो सकत है. शुरुआती तौर पर चुने गए खास जिलों में परीक्षण के लिए काटन की फसल को लिए जाने की उम्मीद है. परीक्षण के अच्छे नतीजे आने के बाद मामला आगे बढ़ सकेगा और दूसरी तमाम फसलें भी कसौटी पर परखी जाएंगी.

इसी प्रकार से टास्कफोर्स ने उर्वरक वगैरह चीजों के लिए किसानों की सब्सिडी पर सीधे हस्तांतरण पर जोर दिया है, ताकि उन्हें इस मामले में किसी किस्म की दिक्कत का सामना न करना पड़े. टास्कफोर्स का कहना?है कि इस मुहिम के लिए लैंडलीजिंग कानून को बनाया जाना निहायत जरूरी?है. कुल मिला कर केंद्र की नई कृषि नीति फिलहाल सही दिशा में बढ़ती नजर आ रही?है. कम से कम खेती के मामले में केंद्र के रुख की तारीफ की जानी चाहिए. भले ही देश के अन्य मोरचों पर केंद्र सरकार की फजीहत हो रही?है, मगर खेती के मामले में केंद्र का रुख सही है.   

राहत

गन्नाकिसानों को 4.5 रुपए उत्पादन सब्सिडी

नई दिल्ली : सरकार ने गन्नाकिसानों को साढ़े 4 रुपए प्रति क्विंटल की दर से उत्पादन सब्सिडी देने का फैसला किया है. यह सब्सिडी 2015-16 सीजन के लिए मंजूर की गई है. इस सब्सिडी की रकम का भुगतान सीधे किसानों के खातों में किया जाएगा. सरकार के इस कदम से पैसों की कमी से परेशान किसानों को काफी राहत मिलेगी. गौरतलब है कि चालू सीजन में गन्ने का एफआरपी 230 रुपए प्रति क्विंटल है. आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी (सीसीईए) ने इस सिलसिले में फैसला लिया है. बाजार में चीनी की कीमत कम होने की वजह से चीनी मिलें नकदी की कमी का सामना कर रही हैं. तमाम चीनी मिलों को करीब 6500 करोड़ रुपए का भुगतान गन्ना किसानों को करना बाकी है. सीसीईए की मीटिंग के बाद ऊर्जा एवं कोयला राज्यमंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि बकाया घटाने के साथसाथ गन्नाकिसानों के समर्थन के लिए सरकार डब्ल्यूटीओ के मुताबिकयोजना ले कर आई?है. उत्पादन सब्सिडी से सरकार गन्ना की लागत समायोजित करेगी और किसानों को समय पर गन्ने के मूल्य का भुगतान आसान बनाएगी. गन्नाकिसानों को इस सब्सिडी से करीब 1147 करोड़ रुपए का लाभ होगा.                                                                                            

सुधार

प्याज की निर्यात कीमत घटी

नई दिल्ली : राजधानी दिल्ली सहित अब देश भर में प्याज का हंगामा थम सा गया है. इस बीच केंद्र सरकार ने प्याज का मिनिमम एक्सपोर्ट प्राइस (एमईपी यानी न्यूनतम निर्यात दर) 700 डालर प्रति टन से घटा कर 400 डालर कर दिया है. केंद्र के इस कदम से प्याज के निर्यात पर काफी असर पडे़गा. विदेशी व्यापार महानिदेशालय (डीजीएफटी) की तरफ से जारी की गई अधिसूचना में कहा गया है कि प्याज की तमाम किस्मों के निर्यात के लिए एमईपी 700 डालर से संशोधित कर के 400 डालर प्रति टन कर दिया गया है. एमईपी वह दर है, जिस के नीचे किसी व्यापारी को निर्यात करने की इजाजत नहीं होती है. एमईपी में इजाफे से निर्यात घट जाता है. इस से घरेलू आपूर्ति बढ़ जाती है. बीत अगस्त महीने (2015) में केंद्र सरकार ने प्याज की एमईपी को 425 डालर से बढ़ा कर 700 डलर प्रति टन कर दिया था, ताकि ज्यादा प्याज बाहर न भेजा जा सके. उस समय बेमौसम बारिश के कहर से प्याज का उत्पादन काफी कम हो गया था. इसी वजह से प्याज की थोक व खुदरा कीमतें अचानक बहुत ज्यादा बढ़ गई थीं. अब चूंकि प्याज का संकट टल चुका है, लिहाजा प्याज के कारोबारियों का भला करने के लिए केंद्र ने निर्यात कीमत कम कर दी है. इस बार भी प्याज ने देश भर के लोगों को एक लंबे अरसे तक हिला कर रख दिया था. आमतौर पर प्याज छीलनेकाटने में आंखों से आंसू निकल आते?हैं, मगर इस बार के हालात ने लोगों को खून के आंसू रुला दिया था. अब प्याज की तबाही थम गई है, तो सरकार ने भी प्याज के कारोबारियों को कमाई का मौका दे दिया?है.  

खोज

शुगर के मरीजों के लिए चावल

रायपुर : आमतौर पर चावल खाना ज्यादातर लोगों को पसंद होता?है. बिहारी, बंगाली और मद्रासी (यानी दक्षिण भारतीय) लोग तो चावल के बगैर रह ही नहीं पाते. मगर किसी को शुगर यानी डायबिटीज की बीमारी हो जाने पर तमाम मीठी चीजों के साथसाथ आलू व चावल खाने पर भी पाबंदी लग जाती?है. मगर अब शुगर के मरीज भी आराम से चावल का लुत्फ उठा सकेंगे. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर स्थित इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने धान की एक ऐसी किस्म खोजी?है, जिस में निम्न ग्लीसेमिक इंडेक्स (जीआई) होता?है. जीआई के जरीए ही खून में शुगर की मात्रा पर किसी खाद्य पदार्थ के असर को सही तरीके से मापा जाता?है. वैज्ञानिकों की इस खोज से न केवल शुगर के मरीजों को फायदा होगा, बल्कि आम लोगों के लिए भी यह चावल मुफीद डाइट साबित होगा.

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के प्लांट मालेकुलर एंड बायोटेक्नोलोजी विभाग के प्रोफेसर डा. गिरीश चंदेल ने निम्न जीआई वाले चावल की पहचान की है. इस चावल को जल्दी ही बाजार में उतारने की कोशिशें तेजी से चल रही?है. डा. गिरीश चंदेल का इस बारे में कहना है कि पिछले कुछ सालों से वे और उन की टीम के लोग निम्न जीआई वाले चावल को विकसित करने या तलाशने की कोशिश कर रहे थे. इस खोज का मकसद यही था कि ऐसा चावल सामने आए, जो डायबिटीज के मरीजों के लिए मुफीद हो. डा. गिरीश चंदेल व उन के दल के साथियों की खोज का नतीजा यह रहा कि ऐसा मनचाहा गुण उन्हें ‘चपाती गुरमटिया’ किस्म के धान में मिला. छत्तीसगढ़ सूबे में इस किस्म के धान की खेती बाकायदा परंपरागत तरीके से की जाती है. डा. गिरीश चंदेल ने कहा कि उन की यह खोज काफी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि न सिर्फ भारत बल्कि सारे संसार के काफी सारे लोग चावल को बहुत चाव से खाते हैं. अभी तो खैर यह नई खोज है, मगर आने वाले वक्त में चावल की यह किस्म दुनिया भर में छा कर नाम कमा सकती है और उगाने वालों को मालामाल कर सकती है.         

योजना

बनेगा दालों का बफर स्टाक

नई दिल्ली : नरेंद्र मोदी की अगवाई वाली आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीईए) ने दालों का बफर स्टाक बनाने के लिए मंजूरी दी?है. यह बफर स्टाक इसी साल बनाया जाएगा. इस के तहत सरकार ने 2015-16 की खरीफ फसल से करीब 50 लाख टन और 2015-16 की रबी फसल से 1 लाख टन दालों की खरीद को अपनी मंजूरी दी?है. दालों की खरीद ‘भारतीय खाद्य निगम’, ‘नेशनल एग्रीकल्चरल कोआपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन आफ इंडिया लिमिटेड’, ‘स्माल फार्मर्स एग्रीबिजनेस कंसोर्टिया’ और सरकार द्वारा तय की जाने वाली किसी दूसरी एजेंसी से की जाएगी. किसानों से दालों की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य से?ऊपर बाजार मूल्य पर की जाएगी. सीसीईए ने जरूरत के मुताबिक दाल के आयात को भी मंजूरी दी?है.             

खोज

बाढ़ और सूखे के लिए नया धान

पटना : कृषि अनुसंधान संस्थान की पटना शाखा ने धान की नई किस्म बीआर 2028 ईजाद की है. इस किस्म की खासीयत यह है कि यह बाढ़ और सूखे दोनों ही हालात में खराब नहीं होगी. बिहार की मिट्टी और जलवायु के लिए मुफीद यह किस्म अगले साल किसानों को मुहैया कराई जाएगी. धान की सब से लोकप्रिय किस्म राजेंद्र मंसूरी और नाटा मंसूरी से मिलतीजुलती यह किस्म पूरी तरह से रोगमुक्त है. इस से किसानों को प्रति हेक्टेयर 75 से 80 क्विंटल धान मिल सकेगा. यह लंबी अवधि का धान है और इसे तैयार होने में 140-150 दिन लगेंगे. संस्थान के मुख्य वैज्ञानिक डा. अजय कुमार ने बताया कि इस के पौधे 110-115 सेंटीमीटर ऊंचे होंगे और कम सिंचाई में भी इस से बेहतरीन पैदावार मिल सकेगी. 20-25 दिनों तक पानी के बगैर रहने पर भी इस के पौधे बरबाद नहीं होंगे, वहीं 10-15 दिनों तक पानी में डूबे रहने के बाद भी पौधे महफूज रहेंगे. इस धान के चावल का दाना छोटा और काफी जायकेदार होगा. इस में फाल्स स्मट, बैक्टेरियल लीफ ब्लाइट व मधुआ, कीट और सीथ ब्लाइट जैसे रोगों का कोई असर नहीं होगा. बिहार के साथसाथ पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश की जलवायु के लिए भी यह किस्म काफी लाभकारी है. डा. अजय के साथ कृषि वैज्ञानिक डा. अशोक सिंह और डा. अरविंद पिछले 10 सालों से इस किस्म के धान के शोध में लगे हुए थे. बिहार के कई जिलों में इस का सफल प्रयोग किया जा चुका?है.   

धांधली

न खेत बचे न किसान

जयपुर : राजस्थान में मुख्य सड़कों व संपर्क सड़कों के आसपास की कृषि भूमि में हजारों आवासीय कालोनियां विकसित हो गई हैं. इन कालोनियों में कच्चीपक्की सड़कें बना कर व बिजली के पोल लगा कर भूकारोबारी लोगों को जमीनें बेच रहे हैं. इस मनमानी की वजह से जहां खेती का रकबा घट रहा है, वहीं किसानों की खेती में रुचि भी घटती जा रही है. कानूनी तौर पर इजाजत लिए बगैर खेती की जमीन पर ये तमाम कालोनियां काट दी गई हैं. जमीन के कारोबारी किसानों की जमीनों का केवल इकरारनामा कर के कालोनियां काट रहे हैं. कालोनाइजर खेती की जमीन के साथसाथ सरकारी जमीन पर भी कालोनियां काट कर उन में सड़कें बना कर व बिजली के पोल खड़े कर के एग्रीमेंट पर धड़ल्ले से खुलेआम प्लाट बेचते हैं. खेती की जमीन को आवासीय जमीन में तब्दील कराए बगैर ही कालोनियां बिकसित करने से सरकार को करोड़ों रुपए के राजस्व की हानि भी हो ही है. प्रदेश भर में बड़ी तादाद में कालोनियां इसी तरह बसाई जा रही हैं. प्रापर्टी डीलरों यानी कालोनाइजरों का यह कारोबार पूरी तरह से नाजायज है. इस से उन को तो कमाई हो रही है, लेकिन सरकार को राजस्व का तगड़ा चूना लग रहा है. इन कालोनियों में जमीन लेने वालों को भी आगे चल कर परेशानी का सामना करना पड़ सकता है.  

जलसा

सोनालिका ने किया किसान परिवार की लड़कियों को सम्मानित

नई दिल्ली : 5 दिसंबर, 2015 को भारत की तीसरी सब से बड़ी ट्रैक्टर निर्माता कंपनी सोनालीका इंटरनेशनल टैक्टर्स लिमिटेड ने जौहरी से ताल्लुक रखने वाली उन 12 लड़कियों को सम्मानित किया, जिन का चयन राष्ट्रीय स्तर की पिस्टल प्रतियोगिता के लिए किया गया?है. यह शानदार और जोरदार समारोह क्रिसमस और गिविंग डे के मद्देनजर आयोजित कार्यक्रमों का हिस्सा?था. महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सोनालीका आईटीएल ने अपनी गतिविधि ‘उड़ान’ के तहत उत्तर प्रदेश के जौहरी में 30 युवा लड़कियों को पिस्टल शूटिंग का प्रशिक्षण उपलब्ध कराया?था. यह पहल जौहरी राइफल एसोसिएशन (उत्तर प्रदेश) के साथ मिल कर की गई थी. अकसर रईसों का खेल कहलाने वाली पिस्टल शूटिंग को हमारे देश में दूसरे खेलों के मुकाबले ज्यादा पहचान नहीं मिली?है. पिस्टल और बंदूकों पर होने वाले खर्च के अलावा शूटिंग में प्रशिक्षण के लिए कोचिंग, कारतूस, अभ्यास के लिए शूटिंग रेंज वगैरह पर भी काफी खर्च होता है. इस अंतर की भरपाई के लिए जौहरी राइफल एसोसिएशन ने गांव की सभी लड़कियों के लिए एक स्थानीय सरकारी स्कूल के साथ मिल कर फ्री समर कैंप लगाया था. सोनालीका आईटीएल इन लड़कियों के हुनर को और निखारने की योजना बना रही है, जिस से इन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भेजा जा सके. इस पहल के जरीए ‘उड़ान’ खिलाडि़यों को भारतीय सैन्य बल जैसे बीएसएफ, सीआरपीएफ, दिल्ली पुलिस वगैरह में रोजगार हासिल करने में मदद कर रही?है.

इस मौके पर सोनालीका आईटीएल के प्रबंध निदेशक दीपक मित्तल ने बताया कि इन प्रतिभाशाली लड़कियों को सम्मानित करते हुए हमें बेहद खुशी है और इन का सफर हम सभी के लिए प्रेरणा है. ये 12 लड़कियां विधि, निशा खोखर, काजल खोखर, शिवानी, आकांक्षा आर्य, तनु चौधरी, सोनम मलिक, साक्षी कौशिक, अनिश्का कौशिक, पूर्णिमा, डौली और दीक्षा अब राष्ट्रीय स्तर की शूटिंग प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेंगी. ये सभी लड़कियां उत्तर प्रदेश के बागपत और बड़ौत जिले के किसान परिवारों की?होनहार संतानें हैं.                   

तकनीक

फसलों को कहर से बचाने का तरीका

जयपुर : रबी सीजन में बोई गई सब्जियों की फसल को कुदरती कहर मसलन ओले, पाला व बेमौसम की बारिश से बचाने के लिए नई तकनीकें ईजाद की गई?हैं. लोटनल और वाचिंग टनल नाम इन तकनीकों से सब्जी आदि की फसल को कुदरती कहर से बचाया जा सकता?है. दुर्गापुरा उद्यान महकमे के उपनिदेशक राजेंद्र पाटनी ने बताया कि लोटनल तकनीक में पौधों को प्लास्टिक से ढका जाता?है, ताकि कड़ाके की ठंड के अलावा बेमौसम की बारिश व ओले जैसे कुदरती कहर से फसल का पूरी तरह से बचाव हो सके. वहीं वाचिंग टनल को फसल की ऊंचाई के हिसाब से रखते?हैं. यह तकनीक सरसों, गेहूं व जौ आदि फसलों के काम में आती?है. इस तकनीक का एक और फायदा यह?है कि किसान खेत के अंदर जा कर पूरी फसल की निगरानी भी कर सकते है इन तकनीकों पर उद्यान महकमा किसानों को 50 फीसदी तक अनुदान भी दे रहा है. राजेंद्र पाटनी ने बताया कि लोटनल तकनीक सब से आसान और सस्ती है. इस तकनीक में 1 हजार वर्गमीटर क्षेत्रफल पर करीब 11 हजार रुपए की लागत आती है. इस लागत का 50 फीसदी यानी साढ़े 5 हजार रुपए किसानों को अनुदान मिल जाता है. यानी थोड़ी सी रकम लगा कर किसान इसे अपना सकते हैं.     

गुस्ताखी

रोक के बावजूद खुद रहे हैं नलकूप

जयपुर : लगातार घटते भूजल स्तर के बावजूद बिना सरकारी इजाजत के धड़ाधड़ नलकूपों की खुदाई की जा रही है. इस के चलते साल दर साल जहां भूजल स्तर गिरता जा रहा है, वहीं लोगों को बूंदबूंद पानी के लिए भटकना पड़ रहा है. यही हाल रहा तो नलकूपों  से एक दिन पानी की जगह हवा ही निकलेगी. खास बात यह है कि उच्च न्यायालय के फैसले के बाद राजस्थान सरकार ने भी व्यक्तिगत हित के लिए नलकूप खुदवाने से पहले संबंधित अधिकारी से मंजूरी लेने के निर्देश दिए थे, लेकिन आज तक न तो किसी ने इजाजत ली है और न ही अधिकारियों ने दोषियों के खिलाफ कोई कार्यवाही की है. जानकारी के मुताबिक, भूजल पर काम कर रही एक संस्था की याचिका पर राजस्थान उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने लगातार गिरते भूजल स्तर को रोकने के लिए फरवरी, 2011 में प्रदेश में कहीं भी नलकूप की खुदाई कराने के लिए जिले के संबंधित अधिकारी से इजाजत लेने का फैसला सुनाया था. इस को मानते हुए राज्य सरकार ने भी उसी साल अगस्त, 2011 में प्रदेश के सभी कलेक्टरों को आदेश जारी कर के अदालत के आदेश का सख्ती से पालन कराने के निर्देश दिए थे. इस फरमान के बाद प्रदेशभर में हजारों नलकूपों की खुदाई की जा चुकी है. लेकिन किसान, मकान मालिक या कारोबारी आदि ने इस के लिए निजी अधिकारी से इजाजत नहीं ली है. प्रशासन ने भी ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की है. इस प्रकार उच्च न्यायालय के फैसले व राज्य सरकार के निर्देशों की खुलेआम धज्जियां उड़ रही हैं. सरकारी इजाजत के बगैर नलकूप की खुदाई करने वाले को 5 साल की सजा का प्रावधान है इसी प्रकार नलकूप की खुदाई करने वाले मशीनमालिक को 1 साल की सजा के साथसाथ उसे एक लाख रुपए तक का जुर्माना बसूलने का नियम है. लेकिन प्रदेश में न तो अभी तक किसी ने नलकूप खुदाई की इजाजत ली है और न ही प्रशासन ने किसी के खिलाफ कोई कार्यवाही की है.                                            

मदद

कृषि मशीनों में मिलेगी सब्सिडी

नई दिल्ली : खेती के मजदूरों की कमी के बीच सरकार ने बागबानी फसलों के लिए अकसर इस्तेमाल किए जाने वाले अनेक उपकरणों के लिए 50 फीसदी तक वित्तीय सहायता देने के नियमों में कई तरह के बदलाव किए हैं. कृषि मंत्रालय के एक बयान में कहा गया है कि भारत में बागबानी मशीनीकरण का काम काफी ध्यान दिए जाने इस के लिए इस क्षेत्र में खस विकास की जरूरत?है. बागबानी उपकरणों की लागत के 50 फीसदी तक की वित्तीय सहायता पूर्वोत्तर में रहने वाली महिलाओं, लघु एवं सीमांत किसानों, अनुसूचित जाति जनजाति वाले किसानों को दी जाएगी. सरकार के इस कदम से सूबे के तमाम छोटे और मध्यम दरजे के किसानों को काफी राहत मिलेगी.

राहत

फसल बीमा के लिए 1128 करोड़

पटना : बिहार में बाढ़, सूखे और आंधी की वजह से फसलों का नुकसान उठाने वाले किसानों को फसल बीमा की रकम मिलेगी. इस के लिए राज्य सरकार ने 1128 करोड़ रुपए की मंजूरी दे दी?है. सहकारिता मंत्री आलोक मेहता ने बताया कि साल 2014-15 के दौरान कुदरती आपदा की वजह से हुए फसलों के नुकसान की भरपाई की जाएगी. इस के साथ ही चालू वित्त साल में रबी की फसलों के लिए भी राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना को लागू किया जाएगा. गेहूं के अलावा 12 अन्य फसलों को भी बीमे के लिए चुना गया?है. मंत्री ने बताया कि गेहूं की फसल का बीमा राज्य के सभी 38 जिलों के किसान करा सकेंगे. इस के साथ ही 36 जिलों में सरसों का बीमा, 34 जिलों में मसूर का बीमा, 24 जिलों में मक्के का बीमा, 23 जिलों में अरहर का बीमा, 17 जिलों में चने व गन्ने का बीमा, 15 जिलों में आलू व प्याज का बीमा, 12 जिलों में?बैगन व मिर्च का बीमा और 10 जिलों में टमाटर की फसलों का बीमा कराया जा सकता?है. गेहूं के बीमे के लिए प्रीमियम दर 1.5 फीसदी और बाकी फसलों के लिए 2 फीसदी?है. छोटे और सीमांत किसानों को राज्य सरकार प्रीमियम में 10 फीसदी के अनुदान का लाभ भी देगी. फसल बीमा का लाभ लेने के लिए गैर कर्जदार किसान 31 दिसंबर, 2015 तक और कर्जदार किसान 31 मार्च, 2016 तक बीमा करा सकते?हैं.         

बदहाली

फसल बीमा के लिए 1128 करोड़

पटना : बिहार में बाढ़, सूखे और आंधी की वजह से फसलों का नुकसान उठाने वाले किसानों को फसल बीमा की रकम मिलेगी. इस के लिए राज्य सरकार ने 1128 करोड़ रुपए की मंजूरी दे दी है. सहकारिता मंत्री आलोक मेहता ने बताया कि साल 2014-15 के दौरान कुदरती आपदा की वजह से हुए फसलों के नुकसान की भरपाई की जाएगी. इस के साथ ही चालू वित्त साल में रबी की फसलों के लिए भी राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना को लागू किया जाएगा. गेहूं के अलावा 12 अन्य फसलों को भी बीमे के लिए चुना गया है. मंत्री ने बताया कि गेहूं की फसल का बीमा राज्य के सभी 38 जिलों के किसान करा सकेंगे. इस के साथ ही 36 जिलों में सरसों का बीमा, 34 जिलों में मसूर का बीमा, 24 जिलों में मक्के का बीमा, 23 जिलों में अरहर का बीमा, 17 जिलों में चने व गन्ने का बीमा, 15 जिलों में आलू व प्याज का बीमा, 12 जिलों में?बैगन व मिर्च का बीमा और 10 जिलों में टमाटर की फसलों का बीमा कराया जा सकता है. गेहूं के बीमे के लिए प्रीमियम दर 1.5 फीसदी और बाकी फसलों के लिए 2 फीसदी है. छोटे और सीमांत किसानों को राज्य सरकार प्रीमियम में 10 फीसदी के अनुदान का लाभ भी देगी. फसल बीमा का लाभ लेने के लिए गैर कर्जदार किसान 31 दिसंबर, 2015 तक और कर्जदार किसान 31 मार्च, 2016 तक बीमा करा सकते हैं.         

बदहाली

किसानों की सेवा से अभी काफी दूर हैं किसानसेवा केंद्र

जयपुर : प्रदेशभर की तमाम ग्राम पंचायत मुख्यालयों पर किसानों और गांव वालों की सहूलियत के लिए बन रहे किसानसेवा केंद्रों के निर्माण की चाल काफी धीमी?है. 2 साल से भी ज्यादा समय गुजर जाने के बावजूद अब तक ग्राम पंचायत मुख्यालयों पर इन का निर्माण कार्य पूरा नहीं हो पाया है. राजस्थान की तकरीबन 9800 ग्राम पंचायत मुख्यालयों पर 10-10 लाख रुपए की लागत से किसानसेवा केंद्रों का निर्माण होना था, लेकिन काम शुरू हुए 2 साल से भी ज्यादा समय गुजर जाने के बाद भी किसानसेवा केंद्रों का निर्माण पूरा नहीं हो पाया है. पंचायतीराज एवं अधिकारिता विभाग जयपुर से मिली जानकारी के मुताबिक, पंचायतीराज विभाग की ओर से ग्रामीणों व किसानों को एक ही छत के नीचे सभी तरह की सहूलियतें मुहैया कराने के लिए सभी ग्राम पंचायत मुख्यालयों पर किसानसेवा केंद्र बनाने की मंजूरी मिली हुई?है. प्रदेश की तकरीबन 4 हजार ग्राम पंचायत मुख्यालयों पर तो किसानसेवा केंद्रों का निर्माण पूरा हो चुका है, लेकिन बाकी ग्राम पंचायतों पर निर्माण

कार्य अभी भी मंथर गति से चल रहा है. ऐसे में सरकारी लापरवाही के चलते किसानों की जानकारी अपडेट रखने की पिछली सरकार की कवायद कामयाब नहीं हो पाई. गौरतलब है कि हर सेवा केंद्र में करीब 10 लाख रुपए की लागत से 4 कमरों व 2 लाबियों का निर्माण किया जाना है. इन केंद्रों में कृषि विभाग की ओर से किसानों को फसल की बीमारियों, मौसम, फसलबीमा, बोआई व कटाई संबंधी जानकारियां मुहैया कराई जाएंगी. पटवारी के काम के लिए भी भवन का निर्माण होगा. कई ग्राम पंचायतों में किसानसेवा केंद्रों में महज नींव का ही काम हुआ?है, तो कई जगह काम ही शुरू नहीं हो पाया?है. इस लापरवाही की वजह से किसान जरूरी सहूलियतों के लिए मुहताज हो रहे?हैं.

गौरतलब?है कि यदि ग्राम पंचायत मुख्यालयों पर किसानसेवा केंद्र बनते?हैं, तो किसानों को कृषि व राजस्व विभाग से संबंधित कामों की सुविधा एक ही छत के नीचे मिलेगी. कृषि विभाग की ओर से किसानों को फसल की बीमारियों, मौसम, फसलबीमा, बोआई व कटाई संबंधी जानकारियां मिलेगी. इलाके के पटवारी के केंद्र पर मौजूद रहने से किसानों को राजस्व संबंधी फायदा मिलेगा. किसानों की कई तरह की समस्याओं के हल के लिए समयसमय पर केंद्र पर बैठकें भी आयोजित होंगी.

मुहिम

चापाकलों की मरम्मत मोबाइल वैन से

पटना : बिहार के सभी जिलों में बंद पड़े चापाकलों यानी हैंडपंपों को चालू करने और उन की देखरेख के लिए मोबाइल वैन की शुरुआत की जाएगी. पिछले दिनों राज्य के पीएचईडी विभाग ने पटना जोन की ग्रामीण जलापूर्ति योजनाओं की समीक्षा के दौरान पाया कि 40 फीसदी चापाकल छोटीमोटी गड़बडि़यों की वजह से बंद हैं. अफसरों को 1 सप्ताह के अंदर सभी गड़बडि़यों को दूर करने की हिदायत दी गई है. मरम्मत के काम में तेजी लाने के लिए सभी डिवीजनों को 1-1 मोबाइल वैन मुहैया कराई जाएगी. इस के साथ ही मुख्यमंत्री चापाकल योजना के तहत लगाए जाने वाले 4 हजार चापाकलों को 1 महीने के अंदर लगाया जाएगा. पटना जोन में मुख्यमंत्री चापाकल योजना का लक्ष्य 90 दिनों में पूरा कर लेने का दावा किया गया?है.         हालात

चावलमिलमालिकों पर 1310 करोड़ बकाया

पटना : बिहार में किसानों और सरकार से धान ले कर चावल नहीं लौटाने वाले मिलमालिकों को जेल भेजने की कवायद शुरू की गई है. सरकार ने ऐसे चावलमिलमालिकों को गिरफ्तार करने और उन की कुर्कीजब्ती का आदेश जारी कर दिया?है. इस सिलसिले में 1200 बड़े बकायादार मिलमालिकों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई है. गौरतलब?है कि पिछले 3 सालों से चावलमिलों के मालिक 1310 करोड़ रुपए का बकाया देने में टालमटोल कर रहे?थे. चावलमिलमालिकों पर साल 2013-14 के 150 करोड़, साल 2012-13 के 732 करोड़ और साल 2011-12 के 427 करोड़ रुपए बकाया?हैं. धान ले कर चावल वापस नहीं करने के मामले में एसएफसी समेत कई विभागों के अफसरों और मुलाजिमों पर भी कानूनी कार्यवाही की जा रही?है. कुल 394 अफसरों और मुलाजिमों की जांच की जा रही?है और 184 पर मुकदमा दर्ज किया गया?है.

पटना की 64 चावलमिलों पर 55.61, भोजपुर की 90 मिलों पर 72.05, बक्सर की 152 मिलों पर 101, कैमूर की 357 मिलों पर 220, रोहतास की 191 मिलों पर 11, नालंदा की 84 मिलों पर 55.34, गया की 49 मिलों पर 40, औरंगाबाद की 207 मिलों पर 62.15, वैशाली की 25 मिलों पर 23.66, मुजफ्फरपुर की 33 मिलों पर 66.51, पूर्वी और पश्चिम चंपारण की 153 मिलों पर 63, सीतामढ़ी की 52 मिलों पर 55.83, दरभंगा की 34 मिलों पर 39.83, शिवहर की 8 मिलों पर 17.78, नवादा की 23 मिलों पर 20.48 करोड़ रुपए की रकम बकाया है. इस के अलावा अरवल, शेखपुरा, लखीसराय, मधुबनी, समस्तीपुर, सिवान, सारण, गोपालगंज आदि जिलों की सैकड़ों छोटीछोटी चावलमिलों पर करीब 900 करोड़ रुपए बकाया?हैं.                      

मधुप सहाय, भानु प्रकाश, मदन कोथुनियां और बीरेंद्र बरियार

*

सवाल किसानों के

सवाल : क्या हमें मुरगीपालन की ट्रेनिंग कृषि विज्ञान केंद्र से मिल सकती है?

-आशीष कुमार, सीतापुर, उत्तर प्रदेश

जवाब : किसान भाई, आप अपने जिले के कृषि विज्ञान केंद्र पर जा कर मुरगीपालन की ट्रेनिंग के बारे में जानकारी प्राप्त कर के मुरगीपालन की ट्रेनिंग ले सकते हैं.

सवाल : मेरी गेहूं की फसल सही तरीके से पनप नहीं रही, ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए?

-माटीलाल चौबे, ग्वालियर, मध्य प्रदेश

जवाब : गेहूं की बोआई के करीब 20-22 दिनों बाद हलका पानी लगाने के बाद खरपतवारनाशी का छिड़काव करें. इस के बाद जिंकयूरिया के मिश्रण का घोल बना कर छिड़कें.

सवाल : मेरे खेत के गोभी के फूल कुछ बिखरेबिखरे से आ रहे हैं. ऐसा क्यों है?

-राम प्रताप गुप्ता, मथुरा, उत्तर प्रदेश

जवाब : सही समय से रोपाई न करने के कारण ऐसा होता है. खासतौर पर अगेती प्रजाति में देशी किस्मों के फूल अधिक बिखरेबिखरे होते हैं.

सवाल : मेरे अमरूद के पेड़ फल तो ठीक दे रहे हैं, मगर उन में मिठास सही नहीं है?

-पूनम अग्निहोत्री, फरीदाबाद, हरियाणा

जवाब : आप ने यह नहीं बताया है कि आप ने कौन सी प्रजाति के पेड़ लगाए हैं. फल में मिठास अलगअलग प्रजाति में अलगअलग होती है और मौसम के अनुसार भी होती है. अधिक मिठास के लिए आप केवल जैविक खादों का प्रयोग करें.

सवाल : नई भैंस खरीदने से पहले मैं ने 2 दिन यानी 4 वक्त उस का दूध निकलवा कर देखा था. हर बार उस ने 7-7 लीटर दूध दिया था. मगर खरीद कर लाने के बाद उस का दूध घट कर 5 लीटर प्रति टाइम हो गया है. इस की वजह क्या है?

-रानी चौधरी, मोहाली, पंजाब

जवाब : इस की वजह यह है कि जगह बदलने से पशु तनाव में आ जाता है. शायद आप की भैंस लंबी दूरी से वाहन द्वारा लाई गई होगी, जिस के कारण उस का दूध घटा होगा. आप के घर आने के बाद भैंस की खुराक व देखभाल में भी अंतर आया होगा. ऐसी वजहों से पशु का दूध घटता है. पशु का दूध बढ़ाने के लिए उस के आहार पर खास ध्यान देना चाहिए. दाने में रोजाना 60 ग्राम एग्रीमिन फोर्ट चेलटेड, 60 ग्राम नमक व 30 ग्राम नौसादर मिला कर दें. इस के अलावा रोजाना 100 मिलीलीटर ओस्टोवेट भी दें. भैंस को भरपेट हरा चारा भी मिलना चाहिए.

सवाल : मुझे प्याज की खेती के बारे में जानकारी दें. क्या एन 53 की खेती रबी के मौसम में की जा सकती है?

-कुशल कुमार, सहारनपुर, उत्तर प्रदेश

जवाब : एन 53 प्रजाति खरीफ के मौसम में उगाई जाने वाली है. यह प्रजाति हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय से निकाली गई है.           

डा. हंसराज सिंह, डा. अनंत कुमार, डा. प्रमोद मडके

कृषि विड्डज्ञान केंद्र, मुरादनगर, गाजियाबाद

श्रीविधि की शोहरत से बन गई तकदीर

यह बिहार के गया जिले के बरसोना गांव की माधुरी देवी की करीब 5 साल पहले की कहानी है. उन की जिंदगी दुखों में बीत रही थी. वे और उन के पति ईश्वर कुमार वर्मा अपने 1.2 एकड़ निजी और बंटाई पर लिए कुछ खेतों में हाड़तोड़ मेहनत करते थे, फिर भी 2 वक्त की रोटी भी मयस्सर नहीं हो पाती थी. आमदनी से ज्यादा खर्चे होने के कारण उन का परिवार सेठोंसाहूकारों के तमाम कर्जों में फंस चुका था. परिवार चलाना भारी पड़ रहा था. साल 2010 की बात है, गांव में मगध मंडल में काम कर रही ‘प्रिजरवेशन एंड प्रोलिफेरेशन आफ रूरल रिसोर्स एंड नेचर’ (प्रान) नामक एक गैर सरकारी संस्था के कुछ कार्यकर्ता खेती में नई तकनीकों के इस्तेमाल के मकसद से जागरूकता कार्यक्रम चलाने आए. संस्था द्वारा दी गई जानकारियों का माधुरी पर गहरा असर पड़ा. वे साल 2010 के रबी सीजन में श्री विधि (सिस्टम आफ व्हीट इंटेंसीफिकेशन) द्वारा तैयार किए गए गेहूं के खेत देखने एक्सपोजर विजिट पर बोधगया गईं. वहां वे प्रगतिशील महिला किसानों का हौसला और गेहूं की उम्दा बालियां देख कर हैरान रह गईं.

घर आ कर माधुरी ने ये सारी बातें अपने पति को बताईं, मगर पति नई तकनीक अपनाने के लिए बिलकुल तैयार न थे. काफी समझाने के बाद माधुरी के पति अगले साल अपने खेत के सिर्फ 4 कट्ठे (0.15 एकड़) में श्री विधि से गेहूं की खेती करने को तैयार हुए. दूसरे साल माधुरी ने 5 कट्ठे (0.19 एकड़) में श्री विधि से गेहूं की खेती की. जिस खेत में पहले 40 किलोग्राम प्रति कट्ठा गेहूं होता था, उसी खेत में अब श्री तकनीक के जरीए 70-75 किलोग्राम प्रति कट्ठा गेहूं पैदा होने लगा है. उपज में भारी इजाफा व कम लागत को देखते हुए अब माधुरी अपने पूरे खेत में न सिर्फ गेहूं बल्कि धान, सरसों और कई सब्जियों की भी श्री विधि से ही खेती करती हैं. श्री विधि के तहत देशी कीटनाशकों व खादों का इस्तेमाल होता है और निराईगुड़ाई मशीनों से होती है. खेती में लगन और नवाचार अपनाने की वजह से आज माधुरी सूबे में चल रहे सरकार के ‘बिहार रूरल लाईबिलीहुड प्रमोशन सोसाइटी’ में बतौर कम्युनिटी मोबिलाइजर कार्यरत हैं.

इस बारे में माधुरी देवी बताती हैं, ‘शुरू से ही मुझे आधुनिक तरीके से खेती करने का जनून रहा है. जब मैं ने नापजोख कर के यंत्रों की मदद से होने वाली इस विधि को अपनाया, तो पूरा गांव मुझ पर हंस रहा था. आज बहुत ही खुशी की बात है कि हमारे गांव की खेती को देखने के लिए अमेरिका तक से कृषि वैज्ञानिक आ चुके हैं. इसी वजह से मुझे राज्य सरकार द्वारा ‘बिहार रूरल लाईबिलीहुड प्रमोशन सोसाइटी’ में बतौर कम्युनिटी मोबिलाइजर तैनात किया गया है. ‘घर की माली हालत बेहतर होने से अब हम बच्चों को अच्छी शिक्षा और परवरिश दे रहे हैं. खेती की और भी नई तकनीकें जानने के लिए सोसाइटी व सरकार द्वारा अकसर दूसरी जगहों पर जा कर सीखने का मौका मिलता है.’ इस प्रकार तकनीक ने माधुरी को  न सिर्फ संपन्नता दी बल्कि शोहरत भी दी. वे अब आसपास की महिलाओं के लिए मिसाल बन चुकी हैं.

इस बारे में संस्था के प्रशासनिक अधिकारी (परियोजना एवं मानव संसाधन) देवेश राज श्रीवास्तव बताते हैं, ‘संस्था जब दूरदूर के गांवों में काम करती है, तो किसानों की रूढि़यों को तोड़ने में बहुत समय लगता है. ऐसे में सब से अच्छा तरीका है कि किसानों के विकास, प्रशिक्षण और प्रदर्शन पर जोर दिया जाए. तभी खेती की तसवीर बदल सकती है.’ 

सही समय पर बिजलीपानी

किसानों को अगर समय पर बिजलीपानी न मिल पाए, तो खेती को नुकसान होना तय है. किसानों की इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए  गीयर बाक्स ड्रिवेन ट्रैक्टर पंप बनाए जा रहे?हैं.

* गीयर बाक्स में गीयर रेशियो फिक्स होने से पंप को पसंदीदा आरपीएम मिलते हैं और पुली के एडजस्टमेंट की जरूरत नहीं होती है.

* बेल्टड्राइव होने से बेल्ट की पावर और स्पीड का नुकसान नहीं होता.

* यूनिवर्सल कपलिंग होने से एलाइनमेंट में थोड़ा फर्क हो तो भी पंप आसानी से चलता?है.

* गीयर बाक्स होने से पाजिटिव ड्राइव मिलती है, जिस से पंप एक स्पीड पर चलता है और एकजैसा हेड और डिस्चार्ज मिलता?है.

* यह फिटिंग में आसान है और ट्रैक्टर में जुड़े होने की वजह से आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता?है.

* आपातकालीन हालात में ट्रैक्टर में जुड़े पावर जनरेटिंग सेट से उजाला फैलाया जा सकता?है.

* ट्र्रैक्टर से जुड़े पावर जनरेटिंग सेट से किसान खेत में सबमर्सिबल पंप व बिजली से चलने वाले कई खेतयंत्रों को चला सकते हैं.

इसी तरह गीयर बाक्स ड्रिवेन एसी जनरेटर भी बन रहे?हैं.

* गीयर बाक्स में गीयर रेशियो तय होने से जनरेटर को पसंदीदा आरपीएम मिलते?हैं और पुली एडजस्टमेंट की जरूरत नहीं होती है.

* यह फिटिंग में आसान है और ट्रैक्टर में जुड़े होने से इसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सकता?है.

* आपातकालीन हालात में ट्रैक्टर में जुड़े पावर जनरेटिंग सेट से उजाला भी किया जा सकता?है.

* ट्रैक्टर से जुड़े पावर जनरेटिंग सेट से किसान खेत में सबमर्सिबल पंप व बिजली से चलने वाली कई खेती मशीनों को चला सकते?हैं.

* लंबे समय तक चलने के लिए विश्वसनीय क्लास ‘एच’ इंस्युलेशन.

* कापेक्ट, हलका व मजबूत डायकास्ट एल्यूमिनियम स्टेटर फ्रेम.

* खास डिजाइन की कांपेक्ट स्लिपरिंग व ब्रश असेंबली.

* मोटर स्टार्ट करने की अच्छी कूवत, शार्ट सर्किट में रखरखाव की कूवत.

* लंबे समय तक बिना इस्तेमाल के रहने पर भी पौजिटिव वोल्टेज बनता है.

ये पंप राजकोट की कंपनी फिल्डमेन इंजीनियर्स प्रा. लि. के द्वारा भी बनाए जा रहे?हैं.

ज्यादा जानकारी के लिए किसान 91-0281-2387074, 2387075 नंबरों पर फोन कर  सकते?हैं.                             

नजर न आने वाले निमेटोडों की रोकथाम

नजर न आने वाले निमेटोड (सूत्रकृमि) ज्यादातर जलीय जीव हैं, मगर ये जमीन में भी पाए जाते हैं. कुछ फसल के बाहरी भागों पर और ज्यादातर जमीन में पाए जाते हैं. यहां इस महत्त्वपूर्ण पादप परजीवी निमेटोड की पहचान, जीवनचक्र व रोकथाम के बारे में जानकारी दी गई है. पादप सूत्रकृमि या निमेटोड बेहद छोटे सांप जैसे जीव होते हैं, जिन्हें नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता है. ये सूक्ष्मदर्शी यंत्र से ही दिखाई देते हैं. ये अधिकतर मिट्टी में रह कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. इन के मुंह में एक सुईनुमा अंग स्टाइलेट होता है. इस की सहायता से ये पौधों की जड़ों का रस चूसते हैं, जिस के कारण पौधे भूमि से खादपानी पूरी मात्रा में नहीं ले पाते और उन की बढ़वार रुक जाती है. ये हर प्रकार की फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं. दुनिया की 34 फीसदी फसलें रोगों, कीटों और खरपतवारों के कारण तबाह होती हैं. यहां नजर न आने वाले निमेटोड की खास प्रजातियों की भी जानकारी दी जा रही है :

बीज गाल (पिटिका) निमेटोड (एंगुनिया ट्रिटीसाई)

पहचान व जीवन चक्र : यह निमेटोड (सूत्रकृमि) विश्व में गेहूं उत्पादन क्षेत्रों में पाया जाता है. नर व मादा द्वारा प्रजनन करने के बाद मादा अंडे देना शुरू कर देती है. वह अगले 6 से 12 दिनों के अंदर 1000 अंडे नए गाल (पिटिका) के अंदर दे देती हैं. निमेटोड गाल (पिटिका) को फाड़ कर दूसरी अवस्था के लारवे कार्यशील हो जाते हैं और जमीन से 10 से 15 दिनों में बाहर आ जाते हैं. बीज के जमने के समय लारवे हमला कर देते हैं और बीज के जमने वाले भाग पर गाल बनाते हैं. ये तने और पत्ती की सतह पर पानी की पतली परत के सहारे ऊपर चढ़ जाते हैं. पत्ती के बढ़ने वाले भाग से पत्ती की चोटी पर चढ़ जाते हैं. ये पौधे की बढ़वार अवस्था में फूल व जननांग तंत्र पर हमला करते हैं और बाहरी परजीवी लारवे भीतरी परजीवी लारवों में बदल जाते हैं.

नुकसान के लक्षण

निमेटोड (सूत्रकृमि) से संक्रमित नवजात पौधे का आधारीय भाग हलका सा फूल जाता है व बीज के जमाव के 20-25 दिनों बाद तने पर निकली हुई पत्ती मुड़ जाती है. संक्रमित नवजात पौधे की बढ़वार रुक जाती है और अकसर पौधा मर जाता है. संक्रमित पौधा सामान्य दिखाई देता है. पौधे में बहुत फुटाव निकल आते हैं और बाली 30-40 दिनों पहले निकल आती है. बाली लंबे समय तक सामान्य बाली के मुकाबले हरी रहती है. बीजपत्र गाल (पिटिका) में बदल जाते हैं. इस रोग के कारण नवजात पौधे की पत्तियों पर हलका पीला सा पदार्थ जमा हो जाता है. संक्रमित पौधे की बाली में दाना नहीं बनता है. इस रोग के बीजाणु के कारण कभीकभी 80 फीसदी तक नुकसान होता है.

रोकथाम

बीज की सफाई : टुंडा रोग या बाल कोकल रोग रहित बीज प्राप्त करने के लिए बीजों को छन्नी से छान कर पानी में डाल कर तैरते हुए बीज अलग कर लेने चाहिए.

गरम पानी से उपचारित करना : बीजों को 4 से 6 घंटे तक ठंडे पानी में भिगोने के बाद 54 डिगरी सेंटीग्रेड गरम पानी में 10 मिनट तक उपचारित करना चाहिए.

फसल हेरफेर कर बोना : निमेटोड (सूत्रकृमि) खेत से बाहर करने के लिए पोषक फसल की 2 या 3 साल तक बोआई नहीं करनी चाहिए.

रोगरोधी किस्में : निमेटोड अवरोधी प्रजातियां खेत में बोनी चाहिए.

फालतू पौधे निकालना : निमेटोड संक्रमित पौधे पता लगा कर अगेती अवस्था में नष्ट कर देने चाहिए. सूप से फटकना या हवा में उड़ाना: यह विधि भी सहायक गाल को बाहर करने के लिए होती है. इस विधि से 100 फीसदी गाल (पिटिका) अलग नहीं होते हैं.

जड़गांठ (सूत्रकृमि) मेलोइडोगाइन प्रजातियां

पहचान व जीवन चक्र : जड़गांठ सूत्रकृमि की प्रजातियां बैगन, भिंडी, टमाटर, मिर्च, घिया, तुरई, करेला, खीरा, गाजर आदि फसलों में पाई जाती हैं. जड़गांठ सूत्रकृमि की 1 मादा लगभग 4 सौ अंडे देती है. यह अच्छे पोषक पौधे पर 2 हजार तक अंडे देती है. अंडों में पहली अवस्था के लारवे विकसित होते हैं व दूसरी अवस्था अंडे से बाहर निकल कर जमीन की ओर जाती है और पौधे की चोटी से घुसती है. निमेटोड की दूसरी अवस्था ही संक्रमित या परजीवी अवस्था है. जीवनचक्र गरमी व बरसात में 21 से 27 दिनों का, जबकि सर्दियों में 50 से 80 दिनों से ऊपर का होता है. यह वातावरण के तापमान पर निर्भर करता है. 1 साल में 7 से 8 पीढि़यां पाई जाती हैं.

नुकसान के लक्षण

जड़गांठ सूत्रकृमि की समस्या ज्यादातर रेतीली मिट्टियों में देखने को मिलती है. इस के नवजात का पौधे पर अधिक असर पड़ता है. समय से पहले फलों का शुरू हो जाना इस की वजह से होता है. जमीन में नीचे मूल में गाल निमेटोड से संक्रमित होने की पहचान है. पौधे की जड़ पर गांठ का आकार निमेटोड की संख्या और फसल की आयु पर निर्भर करता है. गांठ के कारण जड़ का वजन कम हो जाता है और जड़तंत्र छोटा होने के कारण पौधे खाना कम लेने के कारण कम बढ़ते हैं. इस निमेटोड से सब्जी वाली फसल अधिक प्रभावित होती है. कद्दूवर्गीय सब्जियों में भारी गांठ पाई जाती है. जड़गांठ निमेटोड द्वारा सब्जी फसल में 11 फीसदी और खेत में अधिकतम 25 से 50 फीसदी तक हानि होती है.

रोकथाम

कृषि क्रियाएं विधि : खेत की गरमी के दिनों यानी मईजून में 2-3 गहरी जुताई करें. फसलों को बदल कर व बोआई का समय बदल कर बोने से इस के संक्रमण को कम किया जा सकता है. फसलचक्र में अनाज वाली फसल बोनी चाहिए.

फसलों के अवशेषों को जला कर नष्ट करने से इन की संख्या को कम किया जा सकता है. अंत: फसल जैसे प्याज व लहसुन को पोषित फसल के बीच में बोने से इस के असर को कम किया जा सकता है.

अवरोधी प्रजातियां : जड़गांठ अवरोधी प्रजातियां बोने से आर्थिक हानि से बचा जा सकता है.

* टमाटर की पंजाब एनआर 07, हिसार ललित, बनारस जैंट आदि प्रजातियां मुफीद हैं.

* बैगन की माइजर हरा, विजय संकरण, ब्लैक ब्यूटी, पूसा परपिल लौंग प्रजातियां मुफीद हैं.

* भिंडी की लौंग ग्रीन स्मूथ, आईसी 9273, आईसी 18960 वगैरह प्रजातियां मुफीद हैं.

* मिर्च की पूसा ज्वाला, कैप 63, ज्वाला प्रजातियां मुफीद हैं.

रासायनिक विधि : पौध वाली फसलों की नर्सरी को उपचारित करना चाहिए. सीधे खेत में बोने वाली फसलों जैसे भिंडी, कद्दू व लोबिया के बीजों को कार्बोफ्युरान 2-3 ग्राम प्रति किलोग्राम से उपचारित करना चाहिए. बैगन व टमाटर की पौध की जड़ों को 0.1 फीसदी मोनोक्रोटोफास के घोल या 0.05 फीसदी ट्राइजोफोस के घोल में खेत में लगाने से 6 घंटे पहले भिगो लेना चाहिए.

खेत में लैविक करंज, महुआ और नीम की खली 2.5 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालना लाभदायक होता है.

जैविक रोकथाम : फंगस पेसीलोकमाइसस लिलासीनस और जीवाणु पस्टुरिया पनीटरंस जड़गांठ के मुख्य जैविक नियंत्रक हैं.

गांठसिस्ट निमेटोड (हेटरोडेरा प्रजातियां)

पहचान व जीवनचक्र : यह निमेटोड गेहूं, अरहर, मक्का, धान और जौ आदि फसलों को हानि पहुंचाता है. जौ का मोल्या रोग इसी की वजह से होता है. गांठ सिस्ट निमेटोड जड़ में एक ही स्थान पर रह कर खाने वाला कीट है. यह अंडे गांठ के अंदर देता है, जो कई सालों तक जीवित रहते हैं. ये गांठ से अलग हो कर जमीन में निकल आते हैं और अगले साल संक्रमण करते हैं.

नीबू के आकार की गांठ में मार्चअप्रैल और अक्तूबरनवंबर तक 400 अंडे रहते हैं. इस समय अंडों में दूसरी अवस्था वाले लारवे सोई अवस्था में रहते हैं. फसल की अगली बोआई के समय नवंबर से जनवरी के बीच संक्रमित लारवे दूसरी अवस्था वाली गांठ से निकलने शुरू हो जाते हैं. एक सीजन में 50 फीसदी अंडे फूट जाते हैं और बाकी अगले सीजन तक सुरक्षित रहते हैं. जड़ के सिकुड़ने पर सिस्ट के निकलने पर सामान्य प्रभाव पड़ता है और ज्यादातर लारवे निकलते हैं. दूसरी अवस्था के लारवे जड़ की चोटी से घुसते हैं. इन का जीवन चक्र 9 से 14 सप्ताह में पूरा हो जाता है. 1 साल में इस की 1 पीढ़ी पाई जाती है.

नुकसान के लक्षण

इस निमेटोड के लक्षण खेत में टुकड़ों में दिखाई देते हैं. शुरुआती लक्षण लगभग 3 से 4 सप्ताह बाद फसल के जमने के समय दिखने लगते हैं. इस के अलावा बढ़वार रुक जाती है और संक्रमित पौधे पीले और हरेपीले रंग के दिखाई देते हैं. पत्तियां रंगहीन हो जाती हैं और तना पतला व कमजोर हो जाता है, ऐसे पौधों में बहुत कम दाने बनते हैं. ज्यादा संक्रमण होने पर दाने बिलकुल नहीं बनते. संक्रमित पौधे के आधार पर मूसला जड़ बन जाती है. हलकी जमीन में इस का प्रकोप अधिक होता है. इस से 45 से 48 फीसदी हानि होती है.

रोकथाम

कृषि क्रियाएं विधि : यह निमेटोड सूखा न सहने वाला होता है. फसलचक्र व गरमी की जुताई से इस पर काबू पाया जा सकता?है. पोषक अवरोधी फसलें जैसे सरसों, चना, गाजर व फ्रैंचबीन लगाना ठीक रहता है.

अपोषक फसलें उगाने पर संक्रमित फसल में 60 फीसदी तक निमेटोड की संख्या कम की जा सकती है. मईजून के महीनों में 2-3 बार गरमी की जुताई करने पर निमेटोड की संख्या घटाई जा सकती है, क्योंकि गरमी में गांठ पोषक क हो जाते हैं. अगेती बोआई से गेहूं की फसल का नुकसान कम होता है. 1 से डेढ़ महीने की फसल निमेटोड के आक्रमण को सहन करने की कूवत रखती है.

अवरोधी प्रजातियां : भारत में गेहूं की निमेटोड अवरोधी प्रजातियां सीसीएनआरवी 1 व राज एमआर 1 उगाई जाती है.

जौ की अवरोधी प्रजातियां राज किरन, आरडी 2035, आरडी 2052 और सी 164 संक्रमित इलाके में उगाई जाती हैं. इन प्रजातियों में मादा के अंडे देने में असफल होने के कारण निमेटोड की संख्या कम हो जाती है.

रासायनिक विधि : जमीन को 3 ग्राम कार्बोफ्यूरान या फोरेट 10 ग्राम प्रति 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर डालने पर निमेटोड पर काबू पाया जा सकता है.

एकीकृत नियंत्रण : मईजून के महीने में गरमी की जुताई और अपोषक फसलों की बोआई जैसे सरसों, चना या अवरोधी प्रजाति बोने पर निमेटोड की संख्या कम की जा सकती है. 

खेतीजगत के जनवरी के जरूरी काम

जनवरी के जोश से भरे महीने का सभी को पूरी शिद्दत से इंतजार रहता है. खेतीकिसानी के सूरमाओं यानी किसानों के लिए भी जनवरी की कशिश किसी से कम नहीं होती. वे भी पिछले साल की गई अपनी तमाम कारस्तानियों का जश्न मनाने के लिए बेताबी से जनवरी की बाट जोहते हैं. साल के पहले महीने यानी जनवरी में जाड़ा भी अपने शबाब पर होता है, मगर इस जाड़े से किसानों में सुस्ती नहीं आती. यह सर्दी तो किसानों में चुस्तीफुर्ती का संचार करने वाली होती?है. वे कई गुना ज्यादा जोश से अपने खेतों में जुट जाते हैं. जनवरी में रबी की ज्यादातर फसलें पनप कर बढ़ चुकी होती हैं. मोटे तौर पर उन का आधा सफर निबट चुका होता है, लिहाजा उन की खास देखभाल जरूरी हो जाती है. रबी की कीमती फसलों के साथसाथ सर्दी के फलसब्जी वगैरह की देखभाल भी जनवरी में जरूरी होती है.

पेश है एक सरसरी ब्योरा जनवरी के दौरान किए जाने वाले खेती संबंधी जरूरी कामों का, जिन्हें करने में बिल्कुल लापरवाही नहीं की जानी चाहिए:

* ठंडे मौसम में गेहूं के खेतों पर सब से?ज्यादा ध्यान देने की जरूरत होती है. गेहूं की सिंचाई के मामले में सचेत रहना बहुत जरूरी है. मोटे तौर पर 20 दिनों के अंतराल पर खेतों की लगातार सिंचाई करते रहना चाहिए.

* गेहूं के खेतों की सिंचाई का खयाल रखने के साथसाथ खरपतवारों के प्रति भी चौकन्ना रहना जरूरी?है और उन्हें समयसमय पर निकालते रहना चाहिए. खरपतवारों के साथसाथ दूसरी फसलों के पौधों को भी गेहूं के खेतों से उखाड़ देना चाहिए. चौड़े पत्ते वाले खरपतवार अगर ज्यादा बढ़ जाएं, तो उन के सफाए के लिए 2-4 डी सोडियम साल्ट दवा का इस्तेमाल करें.

* इस मौसम में गेहूं की फसल को अनावृत कंडुआ बीमारी का खतरा होता है. इस बीमारी की गिरफ्त में आई बालियों वाले पौधों को जड़ से उखाड़ कर नष्ट कर दें.

* इस दौरान गेहूं के खेत में काली गेरुई बीमारी का हमला भी हो सकता?है. ऐसा होने पर मैंकोजेब दवा की ढाई किलोग्राम मात्रा को 700 लीटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से फसल पर छिड़कें.

* अपने मसूर व मटर के खेतों का जायजा लें और उन की अच्छी तरह से निराईगुड़ाई करें. निराईगुड़ाई से तमाम खरपतवार तो निबटते ही?हैं, साथ ही पौधों को खुराक भी ठीक से मिलती?है. अगर खरपतवार ज्यादा तादाद में हों तो उन्हें खरपतवारनाशी दवा का इस्तेमाल कर के खत्म करें.

* चने व मटर के खेतों में फूल आने से पहले सिंचाई करें. ध्यान रखें कि इन फसलों में फूल बनने के दौरान सिंचाई करना मुनासिब नहीं होता. जब फूल पूरी तरह से आ चुके हों तब फिर से सिंचाई करें.

* चने व मटर के खेतों में जनवरी के आखिरी हफ्ते के दौरान अकसर रतुआ बीमारी का डर रहता?है. ऐसा होने पर रोकथाम के लिए ढाई किलोग्राम जिंक मैंगनीज कार्बामेट दवा को 700 लीटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से फसल पर छिड़काव करें.

* जनवरी में अकसर चने की फसल में फलीछेदक कीट का कहर हो जाता?है. ऐसी हालत में फलियां बनना शुरू होते ही इंडोसल्फान 35 ईसी दवा की 2 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में छिड़काव करें. समय से छिड़काव होने पर फलियां साबुत व अच्छी निकलेंगी.

* अपने जौ के खेतों का मुआयना करें. अगर बोआई को 1 महीना हो चुका हो तो बिना चूके खेतों की सिंचाई करें. सिंचाई के अलावा जौ के खेतों की निराईगुड़ाई करना भी जरूरी?है, ताकि तमाम खरपतवारों से नजात मिल जाए.

* सरसों व राई के खेतों की निराईगुड़ाई करें ताकि खरपतवार काबू में रहें. अगर पौधों में फूल व फलियां आ रही हों तो बिना चूके सिंचाई करना न भूलें.

* राई व सरसों की फसलों पर इस दौरान बालदार सूंड़ी का हमला हो सकता है. इस की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 35 ईसी दवा की 1.25 लीटर मात्रा को 700 लीटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें.

* इस दौरान अगर सरसों में तनासड़न बीमारी हो जाए, तो रोकथाम के लिए बिनोमाइल की आधा किलोग्राम मात्रा या थाइरम की डेढ़ किलोग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से फसल पर छिड़काव करें.

* जनवरी में ज्यादातर तोरिया की फसल तैयार हो जाती हैं. जब इस की करीब 75 फीसदी फलियां सुनहरे रंग की लगने लगें तो फसल की कटाई का काम करें. कटाई के बाद फसल को अच्छी तरह सुखा कर उस की मड़ाई करें.

* नए साल के पहले महीने में गन्ने और नए गुड़ का आलम रहता है. गन्ने की पेड़ी फसल व शरदकालीन बोआई वाले गन्ने की कटाई का काम पूरा करें.

* गन्ने की कटाई के दौरान निकली पत्तियों को जलाएं नहीं. ऐसा करना गैरकानूनी तो है ही, साथ ही मुनासिब भी नहीं?है. इन पत्तियों को जमा कर के कंपोस्ट बनाने में इस्तेमाल करें. इन पत्तियों को पशुओं को बांधे जाने वाली जगह पर बिछाया जा सकता है.

* गन्ने की पत्तियों को आगामी पेड़ी फसल में पलवार के लिए भी इस्तेमाल कर सकते?हैं. ऐसा करने से खेत में काफी समय तक नमी कायम रहती?है. ऐसा करने से खेत में खरपतवार भी ज्यादा नहीं निकलते?हैं.

* प्याज की रोपाई के लिहाज से जनवरी का महीना सब से उम्दा होता?है, लिहाजा यह काम हर हालत में कर डालें. प्याज की रोपाई करने से पहले चुने गए खेत में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश डालना न भूलें. इन चीजों की मात्रा के लिए अपने इलाके के कृषि वैज्ञानिक की राय जरूर लें. प्याज की रोपाई के बाद हलकी सिंचाई जरूर करें.

* भले ही आलू को मोटापे की खास वजह माना जाता?है, मगर जनवरी में नए आलू का जलवा खूब रहता?है. आलू की अगेती फसल जनवरी में खुदाई के लिए तैयार हो जाती है. खुदाई हाथों से करने की बजाय मशीन से करना बेहतर रहता?है. मशीन के जरीए आलू की खुदाई तेजी से होती?है और आलू बरबाद भी नहीं होते.

* आलू की पछेती व मध्यम फसलों पर भी गौर फरमाएं. इन में अगर झुलसा रोग का असर नजर आए तो रोकथाम के लिए मैंकोजेब दवा का तुरंत इस्तेमाल करें. दवा की मात्रा के बारे में कृषि वैज्ञानिक की राय लें. वैसे दवा बेचने वाला भी इस बारे में सही जानकारी देता है.

* जनवरी के दौरान पाला पड़ने का खतरा काफी बढ़ जाता है. पाले से बचाव के लिए छोटे फलों वाले पौधों व सब्जियों की नर्सरी को टाट वाली बोरियों या घासफूस के छप्परों से सही तरीके से?ढंक दें. पाला गिरने वाली रात को बाग व खेत की सिंचाई जरूर करें, इस से पाले से नुकसान का खतरा घट जाता?है.

* तरबूज, खरबूजा, खीरा, ककड़ी, करेला व भिंडी वगैरह की बोआई के लिए कई बार जुताई कर के खेत तैयार करें. खेत की मिट्टी में गोबर की सउ़ी हुई खाद मिलाना न भूलें.

* संतरा, माल्टा, किन्नू, नीबू व आड़ू के पेड़ों की कटाईछंटाई करें. कृषि वैज्ञानिकों से सलाह ले कर इन पेड़ों में कैमिकल व गोबर की सड़ी खाद डालें.

* संतरा, माल्टा, किन्नू व नीबू वगैरह पेड़ों को इस बीच गमोसिस रोग का डर रहता है. रोग होने पर इस के असर वाले हिस्सों को पेड़ों से काट कर किसी गड्ढे में डाल कर जला दें. पेड़ों के काटे गए हिस्सों पर अलसी का तेल व रिडोमिल से बना पेस्ट लगाएं. इस पेस्ट को बनाने के लिए 1 लीटर अलसी के तेल में 20 ग्राम रिडोमिल दवा मिलाएं.

* इस महीने आंवले के पेड़ों में अकसर फलविगलन रोग लग जाता?है. ऐसी हालत में बचाव के लिए ब्लाइटाक्स 58 दवा का प्रयोग करें.

* अपने आम के बाग का बारीकी से मुआयना करें, क्योंकि मौसम आने पर उन में कोई कमी नहीं आनी चाहिए. पिछले महीने आम के पेड़ों के तनों पर लगाई गई अल्काथीन शीट की ठीक से सफाई करें.

 * आम के बाग में मिज व भुनगा कीटों की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 50 ईसी दवा की डेढ़ मिलीलीटर मात्रा 1 लीटर पानी में मिला कर पेड़ों में बौर आने के तुरंत बाद छिड़कें. जरूरी लगे तो 15-20 दिनों बाद दवा का दोबारा छिड़काव करें.

* अंगूर की बेलों की काटछांट का काम इस महीने के आखिर तक हर हालत में निबटा लें. जगह हो तो अंगूर की नई बेलें भी लगाएं.

 नई बेल लगाने के बाद सिंचाई करना जरूरी होता है.

* नए साल के पहले महीने में अंडों की खपत में काफी इजाफा हो जाता?है, मगर मुरगियों पर ठंड का खौफ भी बढ़ जाता है. ऐसे में मुरगियों की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम करें ताकि वे ठंड व बीमारी से मरने न पाएं.

* गायभैंसें डीलडौल में भले ही भारीभरकम होती हैं, लेकिन कड़ाके की सर्दी के आगे वे भी बेबस हो जाती हैं. उन्हें ठंड से बचाने का मुकम्मल बंदोबस्त करें. बुखार व दस्त जैसी दिक्कतों की दवाएं हर वक्त पास में मौजूद होनी चाहिए.

* अपने इलाके के 2-3 पशुओं के डाक्टरों के फोन नंबर संभाल कर यानी कापी में लिख कर रखें ताकि आड़े वक्त में उन्हें बुलाया जा सके. फोन में फीड नंबरों के भरोसे न रहें, क्योंकि अकसर वे डीलीट हो जाते हैं.

* धुंध यानी कोहरे के इस मौसम में अपनी पशुशाला व मुरगी के दड़बों की हिफाजत चौकस कर दें, क्योंकि फौग की सफेद चादर में चोरों की पौबारह रहती है.

खेत का कचरा है खेत का सोना

हमारे देश में सदियों से किसान फसलों के बचे भागों यानी अवशेषों को कचरा समझ कर या तो खेत में ही जला देते हैं या फिर उन्हें पशुओं को खिलाने के काम में लेते हैं. ज्यादातर देखने में आता है कि खासतौर पर पुआल वगैरह तो खेत में ही जला दिया जाता है, जिस से खेत को काफी नुकसान होता है. ऐसा करने से खेत के लाभदायी सूक्ष्मजीव मर जाते हैं और खेत की मिट्टी इन बचे भागों में पाए जाने वाले महत्त्वपूर्ण पोषकतत्त्वों के बगैर रह जाती है. ऐसे में जरूरत है कचरा समझे जाने वाले फसल के बचे भागों को खेत में सोना समझ कर मिला देने की. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने लगाई अवशेषों को जलाने पर पाबंदी : फसल अवशेषों को जलाने पर न केवल वायु प्रदूषण से पर्यावरण का प्रदूषण बढ़ रहा है, बल्कि ग्लोबल वार्मिंग भी बढ़ रही है. हाल ही में 4 नवंबर, 2015 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने उत्तर भारत के राज्यों दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब और राजस्थान के खेतों में फसल अवशेषों को जलाने पर सख्त फैसला लेते हुए किसानों पर 15 हजार रुपए तक जुर्माना लगाने का फैसला किया है.

क्या है एनजीटी का आदेश : 4 नवंबर, 2015 को एनजीटी ने कहा कि जिन राज्यों में पुआल जलाए जाने संबंधी रोक की सूचना जारी नहीं की गई है, वहां उसे फौरन जारी किया जाए. एनजीटी ने पर्यावरण शुल्क के तौर पर सभी प्रकार के छोटे, मंझोले और बड़े किसानों से 15 हजार रुपए तक जुर्माना वसूल करने का फरमान सभी राज्यों को दिया है. इस के साथ ही एनजीटी ने सभी राज्यों को फसल अवशेषों के निस्तारण (डिसपोजल) के लिए किसानों को मशीनें मुहैया कराने का आदेश भी दिया है.

कैसे हो रहा है दुरुपयोग : खासतौर से गेहूंगन्ने की हरी पत्तियां और सागसब्जियों के हरे पत्ते व डंठल पशुओं को खिलाए जाते हैं, जबकि धान के पुआल, गन्ने की सूखी पत्तियों व सनई आदि को खेत में ही जला दिया जाता है. यह समस्या उन खेतों में अधिक होती है, जहां गेहूं की कटाई हारवेस्टर द्वारा की जाती है, हारवेस्टर से कटाई के बाद फसल के अवशेष खड़े रह जाते हैं, जिसे लोग जलाना ज्यादा ठीक समझते हैं. यदि फसलों के अवशेषों को जला कर नष्ट न कर के खेत में ही जुताई के समय मिला दिया जाए, तो ये जीवांश खाद में बदल जाएंगे.

कैसे होगा सही इस्तेमाल : वर्तमान में हमारे देश में इस काम को बेहतर तरीके से करने के लिए रोटावेटर जैसी मशीनें आसानी से इस्तेमाल में लाई जा सकती हैं. यह मशीन पहली बार में ही जुताई के साथ फसल अवशेशों को कतर कर मिट्टी में मिला देती है. जिन इलाकों में नमी की कमी हो, वहां पर फसल अवशेषों का सही इस्तेमाल करने के लिए जरूरी है कि उन से कंपोस्ट तैयार कर के खेत में इस्तेमाल की जाए. उन इलाकों में जहां चारे की कमी नहीं होती, वहां मक्के की करबी व धान के पुआल को खेत में ढेर बना कर खुला छोड़ने के बजाय गड्ढों में कंपोस्ट बना कर इस्तेमाल करना मुनासिब रहता है. आलू व मूंगफली जैसी फसलों की खुदाई के बाद बचे अवशेषों को खेत में जुताई के साथ मिला देना चाहिए. मूंग व उड़द की फसलों से फलियां तोड़ कर बचे भाग खेत में मिला देने चाहिए. इसी प्रकार से केले की फसल के बचे अवशेषों से भी कंपोस्ट तैयार कर लेनी चाहिए.

कचरे में ही भरा है सोना : किसान आमतौर पर फसल के अवशेषों को कचरा समझ कर जला देते हैं, मगर वही कचरा यदि खेतों में मिला दिया जाए तो वह सोने से कम नहीं होता है. इस से खेतों को कई पोषक तत्त्व तो मिलते ही हैं, साथ ही मिट्टी के जीवांश कार्बन की मात्रा में भी इजाफा हो जाता है. इन अवशेषों से मिट्टी की जलधारण की कूवत बढ़ जाती है और सूक्ष्म जीवों की मात्रा में भी इजाफा हो जाता है. इन सब के अलावा मिट्टी में कई भौतिक, जैविक व रासायनिक सुधार होते हैं. कुछ और ध्यान देने वाली बातें : फसल की कटाई के बाद खेत में बचे अवशेषों यानी घासफूस, पत्तियों व ठूंठ आदि को सड़ाने के लिए किसानों को 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव कर के रोटावेटर या कल्टीवेटर से जुताई कर के मिट्टी में मिला देनी चाहिए. इस से पड़े हुए अवशेष खेत में विघटित होने लगेंगे और करीब 1 महीने में पूरी तरह विघटित हो कर आगामी बोई जाने वाली फसल को पोषक तत्त्व प्रदान करेंगे. कटाई के बाद डाली गई नाइट्रोजन अवशेषों के सड़ने की गति को तेज कर देती है.

यदि फसल अवशेष खेत में ही पड़े रहे तो फसल बोने पर जब नई फसल के पौधे छोटे रहते हैं, तो वे पीले पड़ जाते हैं, क्योंकि उस समय अवशेषों को सड़ाने में जीवाणु जमीन की नाइट्रोजन का इस्तेमाल कर लेते हैं. नतीजतन शुरुआत में फसल पीली पड़ जाती है. लिहाजा फसल अवशेषों को नाइट्रोजन छिड़क कर मिट्टी में मिलाने में चूक नहीं होनी चाहिए. ऐसा कर के हम अपनी जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा में तेजी से इजाफा कर के जमीन को खेती लायक बरकरार रख सकते हैं.

कैसे परखें दुधारू पशुओं को

अकसर ही पशुपालक या किसान पशु खरीदने के मामले में ठगी और धोखाधड़ी के शिकार हो जाते हैं. बिचौलियों के चक्कर में फंस कर किसान महंगी कीमत पर दुधारू पशु तो खरीद लेते हैं, लेकिन बाद में पता चलता है कि पशु से उतने दूध का उत्पादन नहीं हो रहा है, जितना बिचौलिए या व्यापारी ने बताया था. तब किसान ठगा महसूस करता?है और आमदनी बढ़ाने के मकसद से खरीदा गया दुधारू पशु उस के लिए सिरदर्द और खर्चीला साबित होता है. इस तरह से दुधारू पशु के जरीए आमदनी बढ़ाने का सपना टूट जाता है. उस समय पशुपालक के पास हाथ मलने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जाता है. इस से बचने के लिए जरूरी है कि किसान किसी दूसरे पर भरोसा करने के बजाय खुद दुधारू पशुओं को परखने की जानकारी हासिल कर लें.

दुधारू पशु को खरीदते समय किनकिन बातों को देखने, जानने और समझने की जरूरत होती है अगर किसानों को यह सब पता हो, तो वे किसी के झांसे में नहीं फंसेंगे और तब पशु उन के लिए आमदनी बढ़ाने का जरीया साबित होंगे. दुधारू पशुओं को खरीदते समय उस के दूध उत्पादन की कूवत के साथसाथ शारीरिक बनावट, स्तन प्रणाली, उम्र, सेहत, प्रजनन कूवत और वंशावली के बारे में पता करना जरूरी?है. 

शारीरिक बनावट : वेटनरी डाक्टर सुरेंद्र नाथ बताते हैं कि अच्छे दुधारू पशु का शरीर आगे से पतला और पीछे से चौड़ा होता है. उस के नथुने खुले हुए और जबड़े मजबूत होते हैं. उस की आंखें उभरी हुई, पूंछ लंबी और त्वचा चिकनी व पतली होती है. छाती का हिस्सा विकसित और पीठ चौड़ी होती है. दुधारू पशु की जांघ पतली और चौरस होती है और गर्दन पतली होती है. उस के चारों थन एकसमान लंबे, मोटे और बराबर दूरी पर होते हैं.

दूध उत्पादन कूवत : बाजार में दुधारू पशु की कीमत उस के दूध देने की कूवत के हिसाब से ही तय होती है, इसलिए उसे खरीदने से पहले 2-3 दिनों तक उसे खुद दुह कर देख लेना चाहिए. दुहते समय दूध की धार सीधी गिरनी चाहिए और दुहने के बाद थनों को सिकुड़ जाना चाहिए.

आयु : आमतौर पर पशुओं की बच्चा पैदा करने की कूवत 10-12 साल की आयु के बाद खत्म हो जाती है. तीसराचौथा बच्चा होने तक पशुओं के दूध देने की कूवत चरम पर होती है, जो धीरेधीरे घटती जाती है. दूध का कारोबार करने के लिए 2-3 दांत वाले कम आयु के पशु खरीदना काफी फायदेमंद होता है. पशुओं की उम्र का पता उन के दांतों की बनावट और संख्या को देख कर चल जाता है. 2 साल की उम्र के पशु में ऊपरनीचे मिला कर सामने के 8 स्थायी और 8 अस्थायी दांत होते हैं. 5 साल की उम्र में ऊपर और नीचे मिला कर 16 स्थायी और 16 अस्थायी दांत होते हैं. 6 साल से ऊपर की आयु वाले पशु में 32 स्थायी और 20 अस्थायी दांत होते हैं.

वंशावली : पशुओं की वंशावली का पता लगने से उन की नस्ल और दूध उत्पादन कूवत की सही परख हो सकती है. हमारे देश में पशुओं की वंशावली का रिकार्ड रखने का चलन नहीं?है, पर बढि़या डेरी फार्म से पशु खरीदने पर उस की वंशावली का पता चल सकता है.

प्रजनन कूवत : सही दुधारू गाय या भैंस वही होती?है, जो हर साल 1 बच्चा देती?है. इसलिए पशु खरीदते समय उस का प्रजनन रिकार्ड जान लेना जरूरी है. प्रजनन रिकार्ड ठीक नहीं होने, बीमार और कमजोर होने से पाल नहीं खाने, गर्भपात होने, स्वस्थ बच्चा नहीं जनने, प्रसव में दिक्कतें होने जैसी परेशानियां सामने आ सकती हैं.

बीजमसालों की उन्नत व रोगरोधी किस्में

भारत का दुनिया भर में मसाला उत्पादन व मसाला निर्यात में पहला स्थान है. इसलिए भारत को मसालों का घर भी कहा जाता है. इन मसालों में बीजमसालों का अनोखा स्थान है. हमारे देश में धनिया, जीरा, सौंफ, मेथी व अजवायन वगैरह बीजमसाले काफी मात्रा में उगाए जाते हैं. किसान भाई इन मसालों की अधिक उत्पादन देने वाली उन्नत व रोगरोधी किस्मों की खेती कर के अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं. खास बीजमसालों की खास किस्मों के बारे में यहां बताया जा रहा है.

धनिया की उन्नत व रोगरोधी किस्में

आरसीआर 41 : यह किस्म सिंचित खेती के लिए राजस्थान के सभी इलाकों के लिए उपयोगी पाई गई है. यह किस्म राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय द्वारा साल 1988 में विकसित की गई थी. इस के दाने सुडौल, गोल व छोटे होते हैं. यह किस्म तनासूजन व उकटा रोगों के प्रति रोधी है. यह किस्म 130 से 140 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 9.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के दानों में 0.25 फीसदी वाष्पशील तेल होता है.

आरसीआर 20 : यह किस्म सिंचित व असिंचित दोनों इलाकों के लिए मुफीद है. यह कम नमी वाली भारी मिट्टी वाले राजस्थान के दक्षिणी इलाके के साथसाथ टोंक, बूंदी, कोटा, बारां व झालावाड़ के लिए मुनासिब है. 110 से 125 दिनों में पकने वाली इस किस्म से असिंचित इलाकों में 4 से 7 क्विंटल और सिंचित इलाकों में 10 से 12 क्विंटल पैदावार प्रति हेक्टेयर होती है.

आरसीआर 435 : यह किस्म साल 1995 में विकसित की गई. इस के पौधे झाड़ीनुमा व जल्दी पकने वाले होते हैं. इस के बीज मध्यम आकार के होते हैं. इस के 1000 दानों का वजन 14 ग्राम होता है. 110 से 130 दिनों में पक कर तैयार होने वाली इस किस्म की औसत उपज 10.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह सूत्रकृमि व छाछिया की प्रतिरोधी है.

आरसीआर 436 : यह किस्म साल 1995 में कम नमी वाले इलाकों कोटा, बारां, झालावाड़ व बूंदी के लिए विकसित की गई थी. इस के पौधे 50 से 100 दिनों में पक जाते हैं. पौधे झाड़ीनुमा व दाने सुडौल होते हैं. इस की उपज 11.9 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के 1000 दानों का वजन 16 ग्राम होता है.

आरसीआर 446 : यह किस्म साल 1997 में जयपुर के सिंचित इलाकों के लिए विकसित की गई थी. इस के पौधे अधिक पत्तियों वाले और सीधे खड़े गुच्छों में घने मध्यम आकार के बीजों वाले होते हैं. यह किस्म 110 से 130 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के 1000 दानों का वजन 13.5 ग्राम होता है.

आरसीआर 480 : यह किस्म साल 2006 में विकसित की गई थी. यह 130 से 135 दिनों में पक कर 13.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह सिंचित इलाकों के लिए मुफीद होती है. इस के बीजों में 0.44 फीसदी तेल होता है.

आरसीआर 684 : इस का पौधा मध्यम ऊंचाई वाला होता है. मुख्य तना मजबूत व मोटा होता है. तने का रंग सफेद होता है और दाने मध्यम आकार के गोल होते हैं. यह तनासूजन के प्रति रोगरोधी है. यह किस्म 130 दिनों में पक कर 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है.

आरसीआर 728 : यह किस्म साल 2009 में विकसित की गई. इस के पौधे लंबे व घनी पत्तियों वाले होते हैं. यह किस्म 130 से 140 दिनों में पक कर 13.7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. इस के बीजों में 0.34 फीसदी तेल होता है.

हिसार आनंद : यह बीज व पत्ते वाली किस्म अधिक उपज देने वाली भी होती है. यह हिसार इलाके के लिए मुफीद है.

स्वाथी (सीएस 6) : यह किस्म बारानी, पछेती बोआई और आंध्र प्रदेश के गुंटूर इलाके के लिए मुफीद है. इस में फलमक्खी के प्रतिरोधी गुण हैं. इस की उपज 855 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है. यह 90 से 105 दिनों में पकती है. इस के दानों में 0.3 फीसदी वाष्पशील तेल होता है.

सिंधु (सीएस 2) : यह किस्म क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र लाम, गुंटूर से विकसित की गई है. यह किस्म अंतर सस्य और बारानी इलाकों के लिए मुफीद है. यह उकटा, छाछिया व तेले के लिए रोधी है. यह किस्म 10 क्टिंवल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह 102 दिनों में पकती है. इस के दानों में 0.4 फीसदी वाष्पशील तेल होता?है.

गुजरात धनिया 1 : यह किस्म गुजरात कृषि विश्वविद्यालय के मसाला अनुसंधान केंद्र जगुदान से विकसित की गई है. यह गुजरात राज्य के लिए मुफीद है. यह 112 दिनों में पकती है और इस की औसत उपज 11 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह किस्म उकटा व छाछिया रोग के प्रति काफी सहनशील है.

गुजरात धनिया 2 : यह किस्म भी जगुदान से विकसित की गई है, जो असिंचित इलाकों में शीघ्र बोआई के लिए सही है. यह किस्म 110 से 115 दिनों में पक कर तैयार होती है. इस की पैदावार 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस का दाना बड़ा होता है.

एसीआर 1 : यह किस्म राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केंद्र अजमेर द्वारा विकसित की गई थी. यह लंबे अरसे वाली किस्म है, जिसे बीज व पत्तियों दोनों के लिए सिंचित इलाकों में उगाया जाता है. इस के बीज गोलाकार होते हैं, जो निर्यात के लिए मुफीद होते हैं. इस की उपज 12 से 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस में वाष्पशील तेल 0.5 से 0.6 फीसदी तक होता है. यह तनासूजन व छाछिया रोग की प्रतिरोधी है.

को 1 : यह पत्तियों व बीजों दोनों के लिए मुनासिब किस्म है. यह साल 1987 में कयंबटूर कृषि विद्यालय से विकसित की गई थी. यह किस्म 110 दिनों में पक कर 5 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह किस्म ग्रीन मोल्ड बीमारी के प्रति प्रतिरोधी होती है.

को 2 : यह किस्म 90 से 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत पैदावार 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह रबी व खरीफ दोनों मौसमों के लिए मुफीद है. यह सूखा प्रतिरोधी किस्म मानी जाती है. इस के दानों में 0.3 फीसदी वाष्पशील तेल की मात्रा होती है.

को 3 : यह धनिया की अगेती किस्म है, जो तमिलनाडु के लिए मुफीद है. यह दानों व पत्तियों दोनों के लिए उगाई जाती है. यह 78 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की उपज 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस के दानों में 0.4 फीसदी वाष्पशील तेल की मात्रा होती है. यह उकटा व ग्रेनमोल्ड के प्रति सहनशील होती है.

जीरे की उन्नत व रोगरोधी किस्में

आरजेड 19 : यह किस्म साल 1988 में विकसित की गई थी. इस के पौधे सीधे खड़े होते हैं. इस के फूल गुलाबी और बीज गहरे भूरे रंग के होते हैं. यह किस्म स्थानीय किस्म की तुलना में उकटा व झुलसा के प्रति रोगरोधक होती है. यह किस्म 120 से 125 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 5 से 6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह पूरे राजस्थान के लिए मुफीद होती है.

आरजेड 209 : यह किस्म साल 1995 में राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई थी. इस के बीज सुडौल व गहरे भूरे रंग के होते हैं. यह उकटा व झुलसा रोगों की प्रतिरोधी होती है. इस में छाछिया रोग के प्रति प्रतिरोधकता आरजेड 19 से ज्यादा है. यह किस्म 120 से 135 दिनों में पक कर 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह राजस्थान के लिए मुफीद है.

आरजेड 223 : यह किस्म राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई थी. यह किस्म उकटा रोग प्रतिरोधी है. यह 120 से 130 दिनों में पकती है और लगभग 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 3.23 फीसदी तक होती है. यह किस्म राजस्थान के लिए मुफीद है.

आरजेड 341 : यह किस्म साल 2006 में एसकेआरएयू द्वारा विकसित की गई थी. इस के बीजों में वाष्पशील तेल की मात्रा 3.87 फीसदी होती है. इस की उपज 4 से 5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

आरजेड 345 : यह किस्म साल 2009 में एसकेआरएयू द्वारा विकसित की गई थी. यह उकटा, झुलसा व छाछिया रोगों के प्रति प्रतिरोधी है. यह 120 से 130 दिनों में पक कर 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है.

जीसी 1 : गुजरात के मसाला अनुसंधान केंद्र जगुदान से विकसित इस किस्म के पौधे सीधे होते हैं. इस में गुलाबी रंग के फूल व भूरे रंग के बीज होते हैं. यह किस्म बड़े बीज व अधिक उत्पादन देने वाली होती है. यह 105 से 110 दिनों में पक कर तैयार होती है. इस में उकटा रोग सहने की हलकी कूवत होती है. इस का उत्पादन 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है.

जीसी 2 : यह किस्म भी गुजरात के जगुदान से विकसित की गई है. यह 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. पौधे झाड़ीनुमा व ज्यादा शाखाओं वाले होते हैं.

जीसी 3 : यह किस्म भी गुजरात के जगुदान से विकसित की गई है. यह उकटा रोग प्रतिरोधी होती है. यह 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस का उत्पादन 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस में आवश्यक तेल की मात्रा 3.5 फीसदी होती है.

जीसी 4 : यह किस्म भी गुजरात के जगुदान से विकसित की गई है. इस में उकटा रोग सहने की ज्यादा कूवत है. यह 130 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की उपज 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह राजस्थान व गुजरात में ज्यादा बोई जाती है.

सौंफ की उन्नत व रोगरोधी किस्में

आरएफ 101 : सौंफ की यह किस्म साल 1995 में राजस्थान के टोंक की स्थानीय सौंफ से चयन कर के विकसित की गई है. यह किस्म 150 से 160 दिनों में पक कर तैयार होती है और 15 से 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है.

आरएफ 125 : यह किस्म इटली के ईसी 243380 से चयन कर के राजस्थान से विकसित की गई है. यह साल 1997 में विकसित की गई थी. इस के पौधे बौने व जल्दी पकने वाले छोटे घने गुच्छों वाले होते हैं. इस में वोलेटाइल आयल 1.9 फीसदी तक होता है. यह किस्म 110 से 130 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है इस की औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह किस्म राजस्थान के लिए मुफीद है.

आरएफ 143 : यह किस्म साल 2004 में विकसित की गई थी. इस के पौधे लंबे व सीधे होते हैं. इस के बीज मध्यम आकार के होते हैं और पौधों की लंबाई 116 से 118 सेंटीमीटर होती है.  इस की औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह 140 से 150 दिनों में पकती है. इस में वोलेटाइल आयल 1.87 फीसदी होता है.

आरएफ 205 : यह किस्म राजस्थान में साल 2009 में विकसित की गई थी. यह किस्म 130 से 140 दिनों में पक कर 16 क्विंटल और उपज देती है. इस में वोलेटाइल आयल 2.48 फीसदी तक होता है. पौधे सीधे व मध्यम ऊंचाई के होते हैं और दाने सुडौल होते हैं.

गुजरात फेनल 1 : यह किस्म गुजरात के बीजापुर स्थानीय से चयन कर के साल 1985 में विकसित की गई थी. इस के पौधे लंबे व झाड़ीनुमा होते हैं इस के बीज हरे होते हैं. यह गूंदिया रोग व पत्ती धब्बा रोग से मध्यम रोधी है. यह 225 दिनों में पकती है. इस की औसत उपज 17 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह अगेती बोआई के लिए मुनासिब है. यह सूखा सहने की कूवत रखती है.

जी एफ 11 : रबी की सिंचित खेती के लिए मुनासिब यह अच्छी उपज वाली किस्म मसाला अनुसंधान केंद्र जगुदान गुजरात से साल 2003 में विकसित की गई. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 1.8 फीसदी होती है. यह 150 से 160 दिनों में पक कर 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर औसत उपज देती है.

एएफ 1 : यह किस्म राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केंद्र अजमेर से साल 2005 में विकसित की गई. इस का पौधा बड़ा और शाखाओं वाला होता है. इस में बड़े आकार के पुष्पछत्रक होते हैं. यह किस्म सीधी बोआई द्वारा 19 क्विंटल और पौध रोपण विधि द्वारा 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज देती है. यह 185 दिनों में पकने वाली मोटे दानों की किस्म है.

मेथी की उन्नत व रोगरोधी किस्में

आरएमटी 1 : यह किस्म राजस्थान के लिए साल 1989 में विकसित की गई थी. इस के पौधे लंबे व शाखायुक्त होते हैं. इस के बीज सुडौल व चमकीले होते हैं. यह किस्म 140 से 150 दिनों में तैयार हो कर लगभग 14 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह जड़गलन की मध्यम रोधी किस्म है और इस में छाछिया रोग भी कम लगता है. इस किस्म का विकास नागौर जिले के स्थानीय बीज से चुनाव कर के किया गया है.

आरएमटी 143 : इस किस्म का विकास जोधपुर जिले के स्थानीय बीज का चुनाव कर के साल 1997 में किया गया. यह किस्म 140 से 150 दिनों में पक कर लगभग 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह किस्म चित्तौड़, भीलवाड़ा, झालावाड़ व जोधपुर के लिए मुफीद है.

आरएमटी 303 : यह किस्म साल 1999 में म्यूटेशन ब्रीडिंग से विकसित की गई थी. यह छाछिया रोग के प्रति मध्यम रोधी होती है. इस के बीज पीले रंग के होते हैं. यह 140 से 150 दिनों में पकती है. इस की औसत उपज 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

आरएमटी 351 : यह किस्म साल 2006 में गामा किरणों द्वारा विकसित की गई थी. इस के पौधों की ऊंचाई मध्यम होती है और शाखाएं ज्यादा होती हैं. इस की फलियों में बीजों की संख्या अधिक होती है. यह 140-150 दिनों में पक कर औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर देती है.

एफजी 1 : मध्यम ऊंचाई व चौड़ी पत्तियों वाली यह किस्म अजमेर में विकसित की गई है. यह किस्म 137 से 140 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस किस्म को विशेष रूप से पत्तियों के लिए उगाया जाता है, जिस की औसत उपज 75 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई गई है. इस में 3 बार पत्तियों की कटाई की जाती है. इस के दाने बड़े मोटे और कम कड़वे होते हैं. इस की बीज की उपज 20 से 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती?है.

एफजी 2 : मध्यम ऊंचाई वाली यह किस्म भी अजमेर में विकसित की गई है. इस के बीज छोटे आकार के होते हैं. यह किस्म 138 दिनों में पकती है. इस के बीजों की उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह किस्म भी पत्तियों के लिए खासहै. इस की 3 बार कटाई में 72 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरी पत्तियां हासिल होती हैं.

अजवायन की उन्नत व रोगरोधी किस्में

अजमेर अजवायन 1 : यह किस्म प्रतापगढ़ की स्थानीय किस्म से चयन कर के अजमेर में विकसित की गई है. यह किस्म बारानी व सिंचाई दोनों हालात में मुफीद है. यह 165 दिनों में पकती?है. इस की उपज 14.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सिंचित इलाकों में और 5.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर असिंचित इलाकों में होती है. बीज में आवश्यक तेल की मात्रा 3.4 फीसदी होती है.

अजमेर अजवायन 2 : यह किस्म भी अजमेर में विकसित की गई है. यह छाछिया रोग के प्रति रोगरोधी है. यह 147 दिनों में पकती है. इस की उपज 12.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सिंचित इलाकों में और 5.2 क्विंटल असिंचित इलाकों में है. बीज में आवश्यक तेल 3 फीसदी होता है. 

बतखपालन : जोखिम कम मुनाफा ज्यादा

बतखपालन का काम बेरोजगार युवाओं के लिए आय का अच्छा साधन साबित हो सकता है. मुरगीपालन के मुकाबले बतखपालन कम जोखिम वाला होता है. बतख के मांस और अंडों के रोग प्रतिरोधी होने के कारण मुरगी के मुकाबले बतख की मांग अधिक है. बतख का मांस और अंडे प्रोटीन से भरपूर होते हैं. बतखों में मुरगी के मुकाबले मृत्युदर बेहद कम है. इस का कारण बतखों का रोगरोधी होना भी है. अगर बतखपालन का काम बड़े पैमाने पर किया जाए तो यह बेहद लाभदायी साबित हो सकता है.

कैसे करें शुरुआत

बतखपालन शुरू करने के लिए शांत जगह बेहतर होती है. अगर यह जगह किसी तालाब के पास हो तो बहुत अच्छा होता है, क्योंकि बतखों को तालाब में तैरने के लिए जगह मिल जाती है. अगर बतखपालन की जगह पर तालाब नहीं है, तो जरूरत के मुताबिक तालाब की खुदाई करा लेना जरूरी होता है. तालाब में बतखों के साथ मछलीपालन भी किया जा सकता है. अगर तालाब की खुदाई नहीं करवाना चाहते हैं तो टीनशेड के चारों तरफ  2-3 फुट गहरी व चौड़ी नाली बनवा लेनी चाहिए, जिस में तैर कर बतखें अपना विकास कर सकती हैं. बतखपालन के लिए प्रति बतख डेढ़ वर्ग फुट जमीन की आवश्यकता पड़ती है. इस तरह 5 हजार बतखों के फार्म को शुरू करने के लिए 3750 वर्ग फुट के 2 टीनशेडों की आवश्यकता पड़ती है. इतनी ही बतखों के लिए करीब 13 हजार वर्ग फुट का तालाब होना जरूरी होता है.

प्रजाति का चयन

बतखपालन के लिए सब से अच्छी प्रजाति खाकी कैंपवेल है, जो खाकी रंग की होती है. ये बतखें पहले साल में 300 अंडे देती हैं. 2-3 सालों में भी इन की अंडा देने की कूवत अच्छी होती है. तीसरे साल के बाद इन बतखों का इस्तेमाल मांस के लिए किया जाता है. इन बतखों की खासीयत यह है कि ये बहुत शोर मचाने वाली होती हैं. शेड में किसी जंगली जानवर या चोर के घुसने पर शोर मचा कर ये मालिक का ध्यान अपनी तरफ  खींच लेती हैं. इस प्रजाति की बतखों के अंडों का वजन 65 से 70 ग्राम तक होता है, जो मुरगी के अंडों के वजन से 15-20 ग्राम ज्यादा है. बतखों केअंडे देने का समय तय होता है. ये सुबह 9 बजे तक अंडे दे देती हैं, जिस से इन्हें बेफिक्र हो कर दाना चुगने के लिए छोड़ा जा सकता है. खाकी कैंपवेल बतख की उम्र 3-4 साल तक की होती है, जो 90-120 दिनों के बाद रोजाना 1 अंडा देती है.

बतखों का आहार

बतखों के लिए प्रोटीन वाले दाने की जरूरत पड़ती है. चूजों को 22 फीसदी तक पाच्य प्रोटीन देना जरूरी होता है. जब बतखें अंडे देने की हालत में पहुंच जाएं, तो उन का प्रोटीन घटा कर 18-20 फीसदी कर देना चाहिए. बतखों के आहार पर मुरगियों के मुकाबले 1-2 फीसदी तक कम खर्च होता है. उन्हें नालोंपोखरों में ले जा कर चराया जाता है, जिस से कुदरती रूप से वे घोंघे जैसे जलीय जंतुओं को खा कर अपनी खुराक पूरी करती हैं. बतखों से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए उन्हें अलग से आहार देना जरूरी होता है. वे रेशेदार आहार भी आसानी से पचा सकती हैं. बतखों को 20 फीसदी अनाज वाले दाने, 40 फीसदी प्रोटीन युक्त दाने (जैसे सोयाकेक या सरसों की खली), 15 फीसदी चावल का कना, 10 फीसदी मछली का चूरा, 1 फीसदी, नमक व 1 फीसदी खनिजलवण के साथ 13 फीसदी चोकर दिया जाना मुनासिब होता है. हर बतख के फीडर में 100-150 ग्राम दाना डाल देना चाहिए.

इलाज व देखभाल

बतखों में रोग का असर मुरगियों के मुकाबले बहुत ही कम होता है. इन में महज डक फ्लू का प्रकोप ही देखा गया है, जिस से इन को बुखार हो जाता है और ये मरने लगती हैं. बचाव के लिए जब चूजे 1 महीने के हो जाएं, तो डक फ्लू वैक्सीन लगवाना जरूरी होता है. इस के अलावा इन के शेड की नियमित सफाई करते रहना चाहिए और 2-2 महीने के अंतराल पर शेड में कीटनाशक दवाआें का छिड़काव करते रहना चाहिए.

बतख के साथ मछलीपालन

जिस तालाब में बतखों को तैरने के लिए छोड़ा जाता है, उस में अगर मछली का पालन किया जाए तो एकसाथ दोगुना लाभ लिया जा सकता है. दरअसल बतखों की वजह से तालाब की उर्वरा शक्ति में इजाफा हो जाता है. जब बतखें तालाब के पानी में तैरती हैं, तो उन की बीट से मछलियों को प्रोटीनयुक्त आहार की आपूर्ति सीधे तौर पर हो जाती है, जिस से मछलीपालक मछलियों के आहार के खर्च में 60 फीसदी की कमी ला सकते हैं.

लागत व लाभ

कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया (बस्ती) के वरिष्ठ पशु वैज्ञानिक डा. लाल के अनुसार बतखपालन के लिए प्रति चूजा 35 रुपए का खर्च आता है. इस तरह 5 हजार चूजों की लागत 1 लाख 75 हजार रुपए आती है. टीन शेड बनवाने पर करीब 3 लाख रुपए व तालाब पर 50 हजार रुपए की लागत आती है, जो सिर्फ  1 बार ही लगती है. इस तरह 5 हजार बतखों का फार्म शुरू करने में करीब 6 लाख रुपए की जरूरत पड़ती है. 1 साल में 1 बतख के दाने व रखरखाव पर करीब 1 हजार रुपए का खर्च आता है. इस तरह 1 साल में 5 हजार चूजों पर करीब 50 लाख रुपए की लागत आती है. कुल लागत 56 लाख को निकाल कर अगर पहले साल में देखा जाए तो 5 हजार बतखों पर शुद्ध आय 15 लाख अंडों से (5 रुपए प्रति अंडा की दर से कुल 75 लाख में से घटा कर) 19 लाख रुपए होगी. दूसरे साल से तालाब व शेड पर कोई लागत नहीं आती है. इस तरह बतखपालन से काफी लाभ कमाया जा सकता है. पशु विज्ञानी डा. लाल के अनुसार बतख के अंडों के अलावा तीसरे साल लगभग डेढ़ सौ रुपए के हिसाब से बतख को मांस के लिए बेचा जा सकता है, जिस से करीब 7 लाख 50 हजार रुपए की आमदनी होगी. तीसरे साल नए चूजे खरीद कर उन से अंडे का उत्पादन लिया जा सकता है. बतख के अंडों को बेचने में किसी तरह की परेशानी नहीं होती है. इन्हें दवाएं बनाने के लिए भी खरीदा जाता है.

डा. लाल के अनुसार बतख न केवल लाभ देती है, बल्कि यह सफाई बनाए रखने में भी योगदान देती है. मात्र 5-6 बतखें ही 1 हेक्टेयर तालाब या आबादी के आसपास के मच्छरों के लारवों को खा जाती हैं. इस तरह बतखें न केवल लाभदायी होती हैं, बल्कि ये इनसानों की सेहत के लिए भी कारगर होती हैं. बतखपालन की ज्यादा जानकारी के लिए कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया के पशु विज्ञानी डा.  लाल के मोबाइल नंबर 9415853028 पर संपर्क किया जा सकता है. चूजों को हासिल करने के लिए बेंगलूरू के हैसर घट्टा में स्थित ‘सेंट्रल डक ब्रीफिंग फार्म’, बरेली के इज्जत नगर में स्थित ‘केंद्रीय पक्षी अनुसंधान संस्थान’ या भुवनेश्वर के ‘केंद्रीय पक्षी अनुसंधान संस्थान’ से संपर्क किया जा सकता है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें