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एक जादुई औषधीय पौधा कौंच

इस का वानस्पतिक नाम मुकुना प्रूरिएंस है और यह फाबेसी परिवार का पौधा है. बात हो रही है कौंच की जो भारत के लोकप्रिय औषधीय पौधों में से एक है. यह भारत के मैदानी इलाकों में झाडि़यों के रूप में फैली हुई होती है. इस झाड़ीय पौधे की पत्तियां नीचे की ओर झुकी होती हैं. इस के भूरे रेशमी डंठल 6.3 से 11.3 सेंटीमीटर लंबे होते हैं. इस में झुके हुए गहरे बैगनी रंग के फूलों के गुच्छे निकलते हैं, जिस में करीब 6 से 30 तक फूल होते हैं. इस पौधे में सेम जैसी फलियां लगती हैं. कौंच के पौधे के सभी भागों में औषधीय गुण होते हैं. इस की पत्तियों, बीजों व शाखाओं का इस्तेमाल दवा के तौर पर किया जाता है. ज्यादातर कौंच का इस्तेमाल लंबे समय तक सेक्स की कूवत बरकरार रखने के लिए किया जता है.

जिन खिलाडि़यों की मांसपेशियों में खिंचाव आ जाता?है, उन के लिए भी कौंच का इस्तेमाल मुफीद होता है. इस के बीजों के इस्तेमाल से याद रखने की कूवत बढ़ती है. वजन बढ़ाने में भी कौंच का इस्तेमाल कारगर साबित होता है. इस के अलावा गैस, दस्त, खांसी, गठिया दर्द, मधुमेह, टीबी व मासिकधर्म की तकलीफों के इलाज के लिए भी कौंच के बीजों का इस्तेमाल किया जाता है.

कौंच के बीजों में निम्न रोगों को दूर करने की कूवत होती है:

* दर्द व पेट की तकलीफें  * मधुमेह

* बुखार * खांसी, * सूजन

* गुर्दे की पत्थरी * गैस की समस्या

* नपुंसकता * नसों की कमजोरी

यौन संबंधी परेशानियां

कौंच को कपिकच्छू और कैवांच वगैरह नामों से भी जाना जाता है. आयुर्वेद में इसे यौन कूवत बढ़ाने वाली दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. सेक्स कूवत बढ़ाने के लिए इस के बीज बेहद कारगर होते हैं. कौंच का इस्तेमाल मर्दों व औरतों की हमबिस्तरी की ख्वाहिश में इजाफा करता है. यह नपुंसकता दूर करने में मदद करती है.

कौंच के बीजों का इस्तेमाल

कौंच के बीजों का इस्तेमाल करने के लिए उन को दूध या पानी में उबाल कर उन के ऊपर का छिलका हटा देना चाहिए. इस के बाद बीजों को सुखा कर बारीक चूर्ण बना लेना चाहिए. इस चूर्ण की 5 ग्राम मात्रा को मिश्री व दूध में मिला कर रोज सुबहशाम इस्तेमाल करने से मर्दों के अंग का ढीलापन और शीघ्रपतन का रोग दूर होता है. कौंच के बीजों के साथ सफेदमूसली और अश्वगंधा के बीजों को बराबर मात्रा में मिश्री के साथ मिला कर बारीक चूर्ण तैयार कर के सुबहशाम 1 चम्मच मात्रा दूध के साथ लेने से मर्दों की तमाम सेक्स संबंधी दिक्कतों को दूर किया जा सकता है. कौंच के बीजों के साथ शतावरी, गोखरू, तालमखाना, अतिबला और नागबला को एकसाथ बराबर मात्रा में मिला कर बारीक चूर्ण तैयार कर के इस चूर्ण को मिश्री मिला कर 2-2 चम्मच चूर्ण सुबह और शाम के वक्त दूध के साथ रोज लेने से मर्द के अंग की कूवत बढ़ती है. सोने से 1 घंटा पहले इस चूर्ण को कुनकुने दूध के साथ लेने से जिस्मानी संबंध बेहतर होते हैं.

10-10 ग्राम धाय के फूल, नागबला, शतावरी, तुलसी के बीज, आंवला, तालमखाना व बोलबीज, 5-5 ग्राम अश्वगंधा, जायफल व रुद्रंतीफल, 20-20 ग्राम सफेदमूसली, कौंच के बीज व त्रिफला और 15-15 ग्राम त्रिकुट व गोखरू को एकसाथ मिला कर चूर्ण बना लें. इस के बाद इस मिश्रण को 16 गुना पानी में मिला कर उबालने पर जब पानी सूख जाए तो उस में 10 ग्राम भांगरे का रस मिला कर दोबारा उबालें और जब मिश्रण गाढ़ा हो जाए तो इसे आंच से उतारें और ठंडा कर के कपड़े से अच्छी तरह मसल कर छान लें और सुखा कर व पीस कर चूर्ण बनाएं. इस चूर्ण में 20 ग्राम शोधी हुई शिलाजीत, 1 ग्राम बसंतकुसूमार रस और 5 ग्राम स्वर्ण बंग मिलाएं. इस मिश्रण की आधा ग्राम मात्रा शहद के साथ मिला कर सुबहशाम चाट कर उस के बाद दूध पीना बेहद फायदेमंद होता है. इस औषधि के सेवन से मर्द के बल में इजाफा होता है. इस औषधि को लेने के दौरान तेज मिर्चमसाले वाली, तली हुई व खट्टी चीजें नहीं खानी चाहिए.

कौंच के बीजों के साथ उड़द, गेहूं, चावल, शक्कर, तालमखाना और विदारीकंद को बराबर मात्रा में ले कर बारीक पीस कर दूध मिला कर आटे की तरह गूंध कर इस की छोटीछोटी पूडि़यां बना कर गाय के घी में तलें. इन पूडि़यों को दूध के साथ खाने से भी काफी फायदा होता है. 100-100 ग्राम कौंच के बीज, शतावरी, उड़द, खजूर, मुनक्का, दाख व सिंघाड़ा को मोटा पीस कर 1 लीटर दूध व 1 लीटर पानी मिला कर हलकी आग में पकाएं. गाढ़ा होने पर आंच से उतारें और ठंडा होने पर छानें. इस में 300-300 ग्राम चीनी, वंशलोचन का बारीक चूर्ण और घी मिलाएं. इस मिश्रण की 50 ग्राम मात्रा में शहद मिला कर रोजाना सुबहशाम खाने से बल बढ़ता है.

कौंच के अन्य लाभ

कौंच तनाव और चिंता को दूर करती है. यह खासतौर पर यौन ग्रंथियों को मजबूती प्रदान करती है. यह तंत्रिकातंत्र के लिए एक खास पोषक तत्त्व के रूप में काम करती है.

तंत्रिकातंत्र संबंधी परेशानियां : कौंच तंत्रिकातंत्र संबंधी परेशानियों के लिए एक खास दवा के रूप में इस्तेमाल की जाती है. यह पार्किसंस रोग में भी इस्तेमाल की जाती है.

कोलेस्ट्राल और ब्लडशुगर : कौंच कोलेस्ट्राल कम करने की एक खास दवा है, साथ ही यह ब्लडशुगर के स्तर को सही करने के लिए फायदेमंद दवा है. इस के अलावा यह एक मानसिक टानिक के रूप में भी कारगर होती है. 

कुछ कहती हैं तसवीरें

किस में कितना है दम : बुल फाइटिंग यानी सांड़ों की लड़ाई महज भारत में ही नहीं मशहूर है, बल्कि दुनियाभर के मुल्कों में इस के कायल मौजूद हैं. ये नजारे हैं जापानी बुलफाइटिंग के. दर्शकों का जोश भी देखने लायक है.

मेरे पापा

मैं कक्षा 9 में पढ़ती थी. उस दौरान पहनने के लिए कपड़े सालभर में 1-2 बार ही बनवाए जाते थे. पिताजी हम 2 बहनों के लिए 6 मीटर कपड़ा सलवारसूट के लिए लाए. घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण कम सिलाई लेने वाली पास में रहने वाली एक महिला को कपड़े सिलने के लिए दे दिए. बाल उत्सुकतावश मैं 4-5 दिन बाद अपने ‘सूट’ के बारे में पूछने गई. उन्होंने कहा कि 3-4 दिन बाद ले जाना. इसी तरह कलकल कह कर 12-13 दिन बीत गए और वह कपड़ा वैसे ही वापस कर दिया. नए कपड़े पहनने का उत्साह ठंडा पड़ गया. मैं बिना सिला कपड़ा देख कर पिताजी के पास आ कर फूटफूट कर रो पड़ी. पिताजी ने चुप कराया, ढांढ़स बंधाया कि पड़ोस में ही रहने वाली ताईजी तुम्हारे सूट सिल देंगी. मैं कपड़ा ले कर उन के पास गई. उन्होंने हम दोनों की नाप ली. हम खुश हो गए कि सारे कपड़े सिल जाएंगे. पर ताईजी भी केवल आश्वासन देती रहीं और मैं अपना कपड़ा वापस ले आई पिताजी से कहा, ‘‘अब बताओ किस से सिलवाओगे हमारे कपड़े?’’

वे कुमाऊंनी भाषा में बोले, ‘‘मेरी चेली तमौत्ते होशियार छ:. मैं बतौन उ सिड़ैली. तू त कसकस कै हरें देली.’’ अर्थात् मेरी लड़की तो बहुत होशियार है. मैं बताऊंगा, वह सिलेगी. वह तो कैसेकैसों को हरा सकती है. इन शब्दों से मैं उत्साह से भर गई. पिताजी के प्रोत्साहन व प्रेरणा से मैं अपना सूट काटने के लिए तैयार हो गई. 6 मीटर कपड़े में मैं केवल 1 सूट बना पाई. उस के बाद धीरेधीरे मैं घर के सभी कपड़े सिलने लगी और अच्छी दर्जिन बन गई. फिर मैं पासपड़ोस के भी कपड़े सिलने लगी जो हमारी आजीविका का साधन बन गया. आज पिताजी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन के प्रेरणास्रोत शब्द आजीवन हमारे साथ रहेंगे.

काबिंदी पाठक, बेतालघाट (नैनीताल)

*

हम उत्तराखंड के अल्मोड़ा शहर में रहते थे. हम 5 बहनें और 3 भाई हैं. पिताजी सरकारी नौकरी की वजह से बाहर रहते थे पर होली, दीवाली त्योहारों में घर आते थे. वे हम लोगों को बहुत प्यार करते थे. एक बार हमारी छोटी बहन बहुत बीमार पड़ गई. पिताजी घर आए हुए थे. बहुत इलाज के बाद भी वह ठीक नहीं हो रही थी लेकिन जब तक वह ठीक नहीं हुई तब तक पिताजी उस के पास बैठे रहे और देखभाल करते रहे. कुछ तो दवाओं का असर और कुछ पिताजी के असीम प्यार के कारण बहन ठीक हो गई. ऐसे थे हमारे पिताजी जिन्हें हम आज भी याद करते हैं.

रमा पांडे, लखनऊ (उ.प्र.)

पैक्ड फूड : सेहत के लिए खतरे की निशानी

व्यस्तताओं के बीच हमें खाने का भी वक्त नहीं मिलता. ऐसे में खाना पकाने के लिए वक्त निकाल पाना दूर की बात है. ऐसे में अकसर लोग बाजार में बिकने वाले रेडी टू ईट यानी खाने की तैयार चीजों पर निर्भर हो जाते हैं और अपनी भूख को तुरंत शांत करने के लिए इन के उत्पादकों के बेहद शुक्रगुजार भी होते हैं. औफिस जाने वालों के लिए तो ऐसी चीजें जीवनदायी साबित होती हैं, क्योंकि उन के पास खाना बनाने का वक्त नहीं होता है. आजकल ऐसे लोगों की आबादी बेहद तेजी से बढ़ रही है, खासतौर से महानगरों और बड़े शहरों में, जहां काम का दबाव ज्यादा होने के साथसाथ काम के लिए रोज लंबी दूरी भी तय करनी पड़ती है. वहीं, ऐसे परिवारों की संख्या भी कम नहीं है जो पूरी तरह से पैक्ड फूड या रेडी टू ईट फूड पर निर्भर हो चुके हैं. उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि ऐसा कर के वे अपनी सेहत के साथ किस कदर समझौता कर रहे हैं.

जीवन को सिर्फ आसान बनाने वाली चीजों की तलाश करना काफी नहीं है बल्कि जीवन को स्वस्थ बनाने वाली चीजों को प्राथमिकता देना भी जरूरी है. पैक्ड फूड का कभीकभी इस्तेमाल कर लेना खराब नहीं है, लेकिन अकसर इस पर निर्भर रहना गलत है. आप शायद इन के लेबल पढ़ कर खुद को संतुष्ट कर लेते होंगे जहां लिखा होता है कि इस में ट्रांसफैट, प्रिजर्वेटिव या मोनोसोडियम ग्लूटामेट यानी एमएसजी नहीं मिलाया गया है. लेकिन इन में ऐसे कई छिपे तत्त्व भी होते हैं जिन के चलते प्रोसैस्ड और रेडी टू ईट फूड के लंबे समय तक इस्तेमाल से डायबिटीज, मोटापा और यहां तक कि कैंसर भी हो सकता है.

पैक्ड फूड की असलियत

पैकट वाले खाने की चीजों की प्रोसैसिंग इस तरीके से की जाती है कि उन्हें लंबे समय तक स्टोर किया जा सके और वे खाने के लिए सुरक्षित व स्वादिष्ठ रहें. इस प्रक्रिया के दौरान इन बातों का ध्यान रख पाना संभव नहीं होता कि इन में पोषण भी बरकरार रहे. बड़े ब्रैंड अपने उत्पादों में चीनी, नमक, फैट जैसी चीजें अच्छी क्वालिटी की इस्तेमाल करते हैं, जबकि सस्ते ब्रैंड के मामले में इन चीजों की गुणवत्ता की गारंटी नहीं होती है. ये उत्पाद बनाने वाली कंपनियां उत्पादों को लंबे समय तक ताजा बनाए रखने, उन का फ्लेवर बढ़ाने और टैक्चर व रंग अच्छा दिखाने के लिए कृत्रिम शुगर, नमक, फैट इस्तेमाल करती हैं.

हानिकारक तत्त्व

कृत्रिम शुगर : ग्राहक अकसर खाने की चीजों के पैकेट पर शुगर फ्री का लेबल देख कर खुश हो जाते हैं, लेकिन वे यह नहीं सोचते हैं कि इस में कृत्रिम शुगर मिलाई गई है. डायबिटीज पीडि़त लोग तो इसे अपने लिए वरदान मान लेते हैं. मगर वे इस बात को ले कर जागरूक नहीं होते हैं कि सैक्रीन, ऐस्पारटेम और फ्रूक्टोस जैसी कृत्रिम शुगर उत्पादकों के लिए आसानी से और कम कीमत पर उपलब्ध होती हैं. यही वजह है कि वे तकरीबन सभी पैकेट वाली चीजों में इन का इस्तेमाल करते हैं. अध्ययन बताते हैं कि इन के लंबे समय तक इस्तेमाल से कैंसर हो सकता है.

मोनोसोडियम ग्लूटामेट यानी एमएसजी : यह तत्त्व कृत्रिम या प्राकृतिक दोनों रूपों में उपलब्ध है. मोनोसोडियम ग्लूटामेट खाने की प्राकृतिक चीजों का फ्लेवर बढ़ाता है. लेकिन इस के साथ समस्या यह है कि यह उत्पाद ब्लडब्रेन बैरियर को पार कर सकता है, जिस से कुछ लोगों को माइग्रेन की समस्या हो सकती है. 

सोडियम नाइट्रेट : पैक्ड फूड व रेडी टू ईट खाने की चीजों, खासतौर से मीट वाले उत्पाद की लाइफ बढ़ाने के लिए इस में सोडियम नाइट्रेट मिलाया जाता है. सोडियम नाइट्रेट वाली चीजें खाने से बालों के झड़ने, त्वचा में एलर्जी, सिरदर्द और पेट की समस्याएं हो सकती हैं. जब तक जरूरी न हो, पैक्ड जूस न पिएं. इन में शुगर काफी ज्यादा होती है और प्रिजर्वेटिव भी खूब होते हैं, जो आप को फ्रैश जूस की तरह ताजगी व तंदरुस्ती दे पाने में नाकाम हैं. शोधकर्ताओं ने पाया है कि पैक्ड सलाद खाना हानिकारक हो सकता है. वे मानते हैं कि सलाद  की हरी पत्तेदार सामग्री में अकसर बैक्टीरिया पनप जाते हैं और वे फूड पौइजनिंग का कारण बन सकते हैं. आप को आश्चर्य होगा कि उत्पादकों के लेबल पर प्राकृतिक शब्द के इस्तेमाल के लिए एफडीए के तय मानदंड या दिशानिर्देश नहीं हैं. इस शब्द का इस्तेमाल करना कंपनियों का ऐसा हथकंडा है जिस से आमतौर पर लोग चक्कर खा जाते हैं. फूड पैकेजिंग ऐक्ट के अनुसार प्रत्येक पैक्ड खाद्य पदार्थ की पैकिंग पर बैच नंबर, निर्माण की तिथि तथा उचित उपयोग की अवधि लिखना अनिवार्य है. लेकिन कुछ उत्पादकों द्वारा इस का पालन नहीं किया जाता है. लब्बोलुआब यह है कि प्रोसैस्ड और रेडी टू ईट खाने की चीजों के बहुत ज्यादा इस्तेमाल से बचें.

जब भी डब्बाबंद या पैकेट वाली खाने की चीजें खरीदें तब अपने दिमाग में यह बात जरूर रखें कि यह आप की सेहत के लिए खतरनाक है. अगर आप लगातार इस का इस्तेमाल कर रहे हैं तो इस के लाजवाब स्वाद और फ्लेवर की आप को आदत लग सकती है. ऐसे में अपनी सेहत की खातिर ऐसी चीजों के लगातार इस्तेमाल व इस की लत में पड़ने से बचें. स्वास्थ्य की दृष्टि से घर में पके खाने का कोई जवाब नहीं होता. वहीं, कृत्रिम चीजें तो हमेशा कृत्रिम ही रहेंगी. अगर आप अकसर पैक्ड व रेडी टू ईट फूड का इस्तेमाल करते हैं तो इसे तुरंत बंद कर दें.     

 – कनिका मलहोत्रा

(लेखिका हैल्थकेयर ऐट होम में सीनियर क्लीनिकल न्यूट्रीशनिस्ट हैं)

नेपाल की प्रथम महिला राष्ट्रपति विद्या देवी

19 जून, 1960 को नेपाल के भोजपुर इलाके में जन्मी विद्या जब स्कूल में पढ़ती थीं तो नेपाल की लड़कियों और औरतों की हालत को ले कर दुखी होती थीं. उन के पिता रामबहादुर पांडे भारतीय मूल के नेपाली नागरिक थे. उन्होेंने ही विद्या के कोमल दिलोदिमाग में यह बैठा दिया था कि पढ़ाई के जरिए ही महिलाओं, समाज और समूचे देश की तरक्की हो सकती है. उन के घर की माली हालत ठीक नहीं थी, इस के बावजूद उन की पढ़ाई में रुकावट नहीं आने दी गई. 15 साल की उम्र में छात्र राजनीति से जुड़ने वाली विद्या ने स्कूल और कालेज की पढ़ाई के दौरान ही मुखर वक्ता के तौर पर अपनी पहचान बना ली थी. उन्होंने महिला समस्याओं को उठाया और तमाम परेशानियों के बाद भी महिलाओं के लिए लगातार लंबी लड़ाई लड़ती रहीं.

वही विद्या 28 अक्तूबर को नेपाल की पहली महिला राष्ट्रपति चुनी गई हैं. नेपाल के इतिहास में पहली बार किसी महिला को सब से ऊंचे सरकारी पद पर बैठने का गौरव हासिल हुआ है. नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी की उपाध्यक्ष विद्या देवी भंडारी ने नेपाल कांग्रेस के अपने नजदीकी प्रतिद्वंद्वी कुल बहादुर गुरुंग को 113 वोट से शिकस्त ही नहीं दी बल्कि 4 दूसरी पार्टियों का समर्थन पाने में भी कामयाब रहीं. नेपाल में राजशाही खत्म होने के बाद विद्या दूसरी निर्वाचित राष्ट्रपति हैं, जबकि नया संविधान बनने के बाद वे पहली राष्ट्रपति बनी हैं. उन्होंने रामबरन यादव की जगह ली.

पढ़ाई के दौरान ही साल 1978 में विद्या कम्युनिस्ट पार्टी औफ नेपाल (एमएल) की यूथ विंग से जुड़ गईं. पार्टी की युवा नेता के तौर पर सभाओं में वे जम कर बोलतीं और महिलाओं को अपने मसलों के लिए आवाज उठाने को ललकारती थीं. देश में महिलाओं की कमजोर हालत के साथसाथ विद्या को नेपाल की पंचायतीराज व्यवस्था में राजशाही का दखल काफी कचोटता था. उन का मानना है कि कहने को तो जनता को अपना लोकल नेता चुनने का अधिकार मिला हुआ था लेकिन नेता जनता के बजाय राजा के प्रति जवाबदेह थी. उन्होंने इस माहौल को बदलने की ठान ली. उन्होंने जनता के बीच इस मसले को जोरदार तरीके से उठाया और आखिर, राजशाही का खात्मा हो गया.

आंदोलन के दिनों में ही उन की मुलाकात पार्टी के सीनियर लीडर मदन भंडारी से हुई और देखते ही देखते दोनों की दोस्ती मुहब्बत में बदल गई. उस के बाद 1982 में दोनों विवाह के बंधन में बंध गए. विवाह के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों व झंझटों के बढ़ जाने से वे राजनीति से काफी हद तक कट गईं. 2 बेटियों की मां बनने के बाद उन्होंने पूरी तरह से परिवार का बोझ अपने कंधे पर उठा लिया और राजनीतिक गतिविधियां कम कर दीं. साल 1993 में पति की सड़क दुर्घटना में मौत हो जाने के बाद विद्या को गहरा झटका लगा. उसी समय पार्टी ने उन्हें बड़ी जिम्मेदारी उठाने का आग्रह किया, जिसे वे टाल न सकीं.

पार्टी और परिवार के काम के बीच तालमेल बिठाते हुए वे दोनों ही दायित्वों को बेहतर तरीके से पूरा करने में लगी रहीं. 1994 के आम चुनाव में उन्होंने नेपाल के तब के प्रधानमंत्री कृष्ण प्रसाद भट्टाराई को काठमांडू सीट से हरा कर चुनाव जीता. 1999 में उन्होंने दोबारा उस सीट पर जीत हासिल की. उस के बाद माधव कुमार नेपाल की सरकार में उन्हें रक्षा मंत्री की जिम्मेदारी सौंपी गई. 25 मई, 2009 से 6 फरवरी, 2011 तक वे रक्षा मंत्री रहीं. 2008 में काठमांडू-4 सीट से वे चुनाव हार गई थीं लेकिन 2013 में हुए संविधान सभा के चुनाव में वे फिर से पूरी ताकत के साथ वापस लौटीं.

साल 2006 में जब नेपाल में राजशाही को खत्म करने का आंदोलन तेज हुआ तो उन्होंने राजा ज्ञानेंद्र के खिलाफ लड़ाई की अगुआई की. उसी साल राजा ने गद्दी छोड़ने का ऐलान किया तो देश में लोकतंत्र कायम होने का रास्ता साफ हो गया. उसी समय उन की तबीयत खराब हुई और जांच के बाद कैंसर होने का पता चला, इस के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. उन्होंने ही पहली बार सरकार में महिलाओं को एकतिहाई आरक्षण देने की मांग उठाई. गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ेपन से जूझते नेपाल के लिए विद्या का राष्ट्रपति बनना देश के लिए नई उम्मीद जगाने के साथ ही महिलाओं को कमजोर मानने वाले देश में महिला के ताकतवर होने का रास्ता भी खोलता है. नेपाल में ज्यादातर महिलाएं घरपरिवार चलाने या छोटामोटा रोजगार करने में ही मसरूफ रही हैं. नई राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ऐसा नेपाल चाहती हैं जिस में महिलाओं को बराबरी का हक मिले. उन का सपना है कि हर नेपाली लड़की स्कूल जाए और उसे मनचाहा कैरियर चुनने का मौका व हक मिले. विद्या के सामने सब से बड़ी चुनौती भूकंप की मार, सियासी उठापटक और माओवादियों के 10 साल तक चले गृहयुद्ध से पूरी तरह से टूट चुके नेपाल को दोबारा अपने पैरों पर खड़ा करने की है. नेपाल की संविधान सभा में कुल 173 महिलाएं सांसद बनी हैं लेकिन 18 सदस्यीय मंत्रिमंडल में केवल रेखा शर्मा को ही जगह मिल सकी है. महिला सांसद मंत्रिमंडल में 33 फीसदी महिलाओं को जगह देने की आवाज उठा रही हैं.

भारत-नेपाल मैत्री संघ के सदस्य अनिल कुमार सिन्हा कहते हैं कि भारत के साथ संबंध सुधारना और मधेशी आंदोलन को ठंडा करना नई राष्ट्रपति के लिए बहुत बड़ी चुनौती है. देश के 7 राज्य मधेशी आंदोलन की चपेट में हैं, जिस से समूचा नेपाल अस्तव्यस्त हो चुका है. इस के साथ ही, नेपाली लड़कियों की तस्करी पर रोक लगाने, नशे पर पाबंदी लगाने, बाल विवाह को रोकने, पढ़ाईलिखाई को दुरुस्त करने, रोजगार पैदा करने, तराई इलाकों का विकास करने समेत ढेरों चुनौतियों से निबटते हुए उन्हें नेपाल को पटरी पर लाना है.     –

बिहार चुनाव नतीजा काम न आई भाजपा की विकास कल्पना

धार्मिक राज की स्थापना के लिए दौड़ाए गए अश्वमेध के घोड़े को बिहार में रोक दिया गया. राज्य में भाजपा ने विकास के मुलम्मे में जो धर्म इस्तेमाल किया था, जनता ने उसे ठुकरा दिया. मतदाताओं को भरमाने, बरगलाने की तमाम कोशिशें नाकाम साबित हुईं. गो, पाकिस्तान, आरक्षण की समीक्षा जैसे धार्मिक मुद्दों को नकार दिया गया. 243 विधानसभाई सीटों वाले इस प्रदेश में 178 सीटें जीत कर नीतीश-लालू की अगुआई वाले महागठबंधन ने हिंदुत्व राष्ट्रवादी ताकतों को परास्त कर दिया. महीनों पहले ही दो घोर विरोधी नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने हाथ मिला लिया था. 2014 के लोकसभा  चुनाव में नरेंद्र मोदी की आंधी से आशंकित इन नेताओं ने महागठबंधन बनाया, हालांकि बारबार टूटने के लिए बदनाम इस गठबंधन को समाजवादी पार्टी छोड़ गई लेकिन राजद, जदयू और कांग्रेस ने मिल कर पूरी गंभीरता से चुनाव लड़ा. उधर, रामायणमहाभारत सरीखे विभीषणों को ढूंढ़ने और फायदा उठाने की चालों में माहिर भारतीय जनता पार्टी ने जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा को साथ ले लिया. बिहार में दलित वोटों में पैठ रखने वाले रामविलास  पासवान को उस ने पहले से ही केंद्र की सत्ता में भागीदार बना रखा है.

चुनावों में प्रदेश की जनता के सामने आज भी शिक्षा, रोजगार, बिजली, पानी, सड़कों जैसे अहम बुनियादी सवाल खड़े थे पर दोनों ही गठबंधनों के पास इन सवालों के ठोस जवाब नहीं थे, न ही कोई रूपरेखा. ऐसे मुद्दे उठाए गए जिन का प्रदेश और प्रदेशवासियों की तरक्की से किसी तरह का वास्ता नहीं था. लालू यादव को प्रदेश में सब से बड़ी कामयाबी मिली. यह सफलता भाजपा की गलत नीतियों की वजह से मिली है. भाजपा के चुनाव प्रचार में धर्म की संकीर्णता की जहरीली हवा बही. पार्टी और संघ के नेता जो भाषण दे रहे थे वे उस जातीय, धार्मिक नफरत की वारदातों से प्रभावित थे जो देश के दूसरे हिस्सों में हो रही थीं. बिहार में बहुसंख्यक दलितों और पिछड़ों को गुजरात के हार्दिक पटेल के आंदोलन का पता लगने लगा था और ऊपर से संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा आरक्षण की समीक्षा करने की बात का भी. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के भाषण की इस बात से कि अगर नीतीश, लालू का महागठबंधन जीता तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे, लोगों ने भाजपा की संकुचित नजर को स्पष्ट तौर पर भांप लिया. स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 26 रैलियों से लोगों को आकर्षित नहीं कर पाए. प्रधानमंत्री के भाषणों में भीड़ तो जुटी पर वे उस भीड़ को भरोसा नहीं दिला पाए कि भाजपा की तरक्की का रास्ता दिखेगा.

लालू यादव भाजपा के नकारात्मक चुनाव प्रचार और देशभर में फैले उस के कट्टरवादी माहौल का पूरा फायदा उठाते हुए लोगों को समझाने में कामयाब रहे कि अगर भाजपा का राज आया तो फिर से  पौराणिक व्यवस्था लागू हो जाएगी. लालू ने धर्म की वर्णव्यवस्था से सताई जातियों को और कुछ दिया या न दिया हो, उन्हें पिछले साढ़े 3 दशक से सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर जरूर जाग्रत कर दिया, उन में इस बात की चेतना जगा दी कि धार्मिक व्यवस्था की वजह से वे गरीब, पिछड़े और नीची जातियों में हैं. यह किसी पूर्वजन्म के कर्मों का फल नहीं, स्वार्थी चालों की वजह से है. लालू अरसे से ब्राह्मणवाद को कोसते रहे हैं. लोहिया, जयप्रकाश नारायण की क्रांति के दौर में निकले लालू, शरद यादव जैसे पिछड़े नेताओं ने सदियों से चली आ रही धर्म की भेदभाव वाली व्यवस्था की पोल खोली और लोगों को सचेत किया. प्रदेश की अधिकांश निचली, पिछड़ी जातियां जानती हैं कि भाजपा फिर से वही व्यवस्था थोपना चाहती है जो उन की गरीबी, बदहाली का कारण रही है. दरअसल, 2014 में भाजपा को लोकसभा चुनाव में जो जनादेश मिला था, भाजपा ने उसे हिंदू राष्ट्रवाद पर मोहर समझ लिया पर वह कांग्रेस नेतृत्व वाले संप्रग के भ्रष्ट, निकम्मेपन के खिलाफ विकल्प के अभाव में आक्रोश का नतीजा था. ऐसा नहीं है कि  कांग्रेस हिंदूवादी नहीं है. कांग्रेस भी उतनी ही पाखंडी है जितनी भाजपा.

कांग्रेस में भी शुरू से ही ब्राह्मणवादी सोच हावी रही. यह सोच उस की पार्टी और शासन की नीतियों में उजागर होती रही. महात्मा गांधी स्वयं तो वर्णव्यवस्था के पैरोकार थे, मदनमोहन मालवीय, बाल गंगाधर तिलक और प्रगतिशील माने गए जवाहरलाल नेहरू ने भी हिंदुत्व विचारों का पोषण किया. कांग्रेस द्वारा जातियों में ऊंचनीच बनाए रखने की नीति का खुलासा करते हुए ‘मुक्ति के अग्रदूत बाबू जगजीवनराम’ नामक पुस्तक में जगजीवनराम ने लिखा है, ‘‘पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक कमेटी बनाई थी, ‘आर आर दिवाकर कमेटी’, जिस का काम यह देखना था कि लोग सरकारी कागजातों में अपनी जाति का नाम नहीं लिखें. कमेटी की सिफारिश आ गई. इस पर विचार हुआ. मैं ने पंडितजी से कहा कि दिवाकर कमेटी की सिफारिशें तो हमें ठगने के लिए हैं. मैं ने कहा कि मेरे नाम से पता नहीं चलता कि मैं कौन हूं. बाह्मण हूं कि राजपूत हूं, वैश्य हूं कि शूद्र हूं. जगजीवनराम बाह्मण भी हो सकता है, क्षत्रिय भी हो सकता है, लाला भी हो सकता है, शूद्र भी हो सकता है, अछूत भी हो सकता है. लेकिन पंतजी को जाति बताने की क्या जरूरत है? गोविंद वल्लभ पंत ब्राह्मण के अलावा दूसरा कोई हो ही नहीं सकता. मेरी जाति तो लिखना ही बंद करा दें, ब्राह्मणों व कुछ दूसरों की जाति लिखना चालू रहे, इस से बढ़ कर धोखा क्या हो सकता है. नेहरू कहने लगे कि बात तो ठीक कहते हो पर किया क्या जाए? मैं ने कहा कि बहुत सरल तरीका है कि किसी के नाम के आगे या पीछे कोई जाति सूचक विशेषण या उपाधि लगाई ही न जाए.

‘‘वे कहने लगे, बड़ी गड़बड़ी होगी. मैं ने कहा, हां, एक पीढ़ी में कठिनाइयां आएंगी, दूसरी पीढ़ी में ठीक हो जाएंगी. आज जाति सूचक उपाधि लगाने की बीमारी तेजी से बढ़ रही है, हम जाति मिटाने का नारा लगाते रहे. अपनी जाति का विज्ञापन करने पर क्यों तुले हैं. अपनी जाति को अपने नाम के साथ ले कर सारी दुनिया को क्यों बताने लगे कि हम इस जाति के हैं?’’ जाहिर है नेहरू ने कोई कारगर निर्णय नहीं लिया. गांधी ने भी ‘हरिजन’ नाम दे कर दलितों की अलग पहचान कायम रखी. कांग्रेस कम पाखंडी नहीं थी. गरीबी, जाति, गुलामी मिटाने के लिए उस ने कोई व्यावहारिक कदम नहीं उठाया. बिहार सब से अधिक नक्सलवाद प्रभावित राज्य है. नक्सलवाद कांग्रेस और भाजपा की इसी धार्मिक भेदभाव वाली नीति की देन है. नक्सली धर्म जाति के सताए दलित, पिछड़े और आदिवासी हैं जिन से उन की रोजीरोटी, जमीन छीनी जा रही है. धर्म के रास्ते पर चलने वाली भाजपा की सोच धर्मग्रंथों में वर्णित उन्हीं बातों जैसी है, जिन में शूद्रों को संपत्ति रखने का कोई अधिकार नहीं है और अगर किसी के पास कोई संपत्ति है तो उसे ब्राह्मण को छीन लेनी चाहिए.

संघ ने जोर लगाया कि दलितों, पिछड़ों को मंदिरों से जोड़ा जाए. वे सफल हुए. उन्हें 2 नंबर के देवता पकड़ा दिए गए. एक सेना तैयार कर ली गई. इन वर्गों को भाजपा धर्म के जंजाल में उलझा रही है. ऊंचे देवता, अवतार उन के  खुद के लिए और उन के सेवकों को शूद्रों, दलितों को पकड़ा दिया गया. आज बड़ी तादाद में ये वर्ग शिव, हनुमान, शनिदेव, साईं बाबा जैसों को अपना भगवान मान कृतज्ञ हो रहे हैं. भाजपा और संघ बिहार में विकास का नहीं पाखंड का एजेंडा ले कर आए. प्रधानमंत्री खुद को योग के विश्व ब्रैंड प्रचारक साबित करते सुने गए. मोहन भागवत जगतगुरु की भूमिका में नजर आए. प्रदेश की 85 प्रतिशत आरक्षण की पक्षधर जनता के सामने आरक्षण की समीक्षा की बात कह कर फंस गए. भले ही इतनी तादाद में पिछड़ों/दलितों का आरक्षण कोटा ऊंट के मुंह में जीरा हो पर इन वर्गों के लिए दिखाने के लिए आरक्षण बड़ा सहारा है. भागवत की एक तरह से यह धमकी थी कि भाजपा को वोट नहीं दिया तो आरक्षण बंद करा देंगे. संघ के हिंदुत्व एजेंडे ने बंटाधार कर दिया. उस ने खुद ही महागठबंधन के लिए जीत की बिसात तैयार कर दी. ‘सब का साथ सब का विकास’ का नारा देने वाले मोदी स्वयं बिहार में अपनी ही बात से भटक गए. उन के भाषणों में विकास की जगह योग, आयुर्वेद, गो, पाकिस्तान जैसे मुद्दे हावी हो गए.

बिहार चुनाव के दौरान देशभर में भाजपा नेताओं के धार्मिक संकीर्णता भरे बयान आते रहे. अरुण जेटली ने कहा था, ‘‘बलात्कार छोटी घटनाएं हैं,’’ फिर बोले, ‘‘मध्यवर्ग अपना खयाल खुद रखे.’’ शुक्र है यह नहीं कहा कि महंगाई, अपराध, असुरक्षा उन के पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है. मोदी ने कहा था, ‘‘लड़की अगर अचार बेचे तो ज्यादा बिकेगा.’’ मनोहर लाल खट्टर ने कहा, ‘‘बलात्कार के लिए लड़कियां जिम्मेदार हैं.’’ फिर कहा, ‘‘गोमांस खाने वाले पाकिस्तान चले जाएं.’’ साक्षी महाराज ने फरमाया था, ‘‘महिलाएं 4-5 बच्चे पैदा करें.’’ भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय के वचन थे, ‘‘लड़कियों को मर्यादा में रहना होगा, तब बलात्कार नहीं होगा.’’ अमित शाह ने कहा था, ‘‘राममंदिर के लिए 320 सीटें चाहिए.’’ बिहार से आने वाले सांसद एवं कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने कहा कि किसान आत्महत्या प्रे्रम संबंधों और नपुंसकता की वजह से कर रहे हैं. कैलाश विजयवर्गीय फिर बोले, ‘‘भ्रष्टाचार ऐसे करो कि किसी को पता न चले.’’ हेमा मालिनी के बोल थे, ‘‘ज्यादातर बंगाल और बिहार की विधवा महिलाएं मथुरा में भीख मांगती हैं.’’ ये विधवाएं हिंदू धर्म की ही देन हैं, उन्होंने यह नहीं बताया.

दुनिया को बताने के लिए एक बार मोदी ने यह भी कहा था कि गुजरात की लड़कियां कुपोषण की शिकार नहीं हैं बल्कि वे तो अपना शरीर बनाने के चक्कर में कुपोषण जैसी हो रही हैं. एक और नेता पुरुषोत्तम रूपाला ने कहा था, ‘‘दलित और महिलाओं को मार मारने से ही वे सीधे चलते हैं.’’ देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने तो गालियों को ही वेद वाक्य बता दिया. रक्षा मंत्री वी के सिंह ने दलित की बराबरी कुत्ते से कर दी. इन के अलावा केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा, सांसद महंत आदित्य नाथ, साध्वी निरंजना जैसे कई नेताओं की शास्त्रसम्मत बातें जनता के सामने आईं.

मोदी दुनियाभर में दौरे करने में जुटे हैं पर मोदी को विदेशों में जो भाव मिल रहे हैं वह भारत से गए हुए उन संपन्न व सफल हिंदुओं की तरफ से ही हैं जो अलगअलग देशों में हिंदुत्व का झंडा उठाए वहां की सरकारों पर दबाव की कूवत रखते हैं. वे यहां से धर्म की पोटली लाद कर विदेशों में गए एनआरआई हैं जो भारत में धर्म के पाखंडों के बढ़ावे के लिए तो पैसा भेजते हैं पर शिक्षा और तार्किक सोच के प्रचारप्रसार में उन की उतनी रुचि नहीं है. ये लोग आईपीएल मैचों में भारत का झंडा लहराते दिखते हैं. पर जिन देशों में रहते हैं, सुविधाएं पाते हैं, उन के प्रति वे वफादारी कहां दिखाते हैं चाहे वे वहां के नागरिक बन गए हों. उन के दोहरेपन को कोसना जरूरी नहीं है क्या? वे रहते अमेरिका, फ्रांस में हैं, गुणगान भारत के नरेंद्र मोदी का करते हैं. संघ का एजेंडा भाजपा के सत्ता में आने के बाद तेज हुआ है. कांग्रेस तो पाखंडी थी. मगर वह धर्म को बेच नहीं रही थी. लेकिन भाजपा धर्म को विदेशों तक में बेचने का बाजार तैयार करने में जुटी है. भला किसी देश के प्रधानमंत्री को दुनियाभर में योग, आयुर्वेद, संस्कृति के प्रचार की क्या जरूरत है?

महागठबंधन की जीत भाजपा के पाखंडपूर्ण धार्मिक धु्रवीकरण के खिलाफ है. इस विजय का संदेश जमीनी हकीकत का जनादेश है. नीतीश कुमार ने अपने कार्यकाल में बिहार की जातियों के एकजुट रखने के साथसाथ बड़े इलाकोंमें पानी, बिजली और सड़क उपलब्ध कराई. इस के साथ ही वे लड़कियों की शिक्षा के लिए भी कार्यक्रम ले कर आए. ये काम सुर्खियां नहीं बनते, पिंक पन्नों पर छपे अखबारों में नहीं आते. इन से धन्ना सेठों को लाभ नहीं. भाजपा के पास विकास का कोई ब्लूप्रिंट अभी भी नहीं है. जो कुछ प्रचारित किया गया, वह विदेशी पूंजी को भारत में लाने तक सीमित है. बिहार ने देश को भी एक दिशा दी है. वोट के जरिए पाखंड की बर्बर सोच पर रोक लगा कर भाजपा ऐंड कंपनी द्वारा प्रदेश को जिस गलत दिशा की ओर ले जाने की तैयारी की गई थी, जनता ने वोट की चोट से उसे रोकने का काम किया है.

हिंदू कट्टरवाद से हारी भाजपा

क्या बिहार में मिली करारी हार के बाद कट्टरवाद को छोड़ कर मोदी विकास के एजेंडे पर वापस लौटेंगे? अगर कोई ऐसा एजेंडा है तो लोकसभा चुनाव में ‘सब का साथ, सब का विकास’ नारे के बूते बहुमत के साथ जीत हासिल करने वाले मोदी यह भूल गए कि आम आदमी ने उन्हें विकास के नाम पर वोट दिया था. जीत के बाद कट्टरवाद के रास्ते पर चल पड़ना भाजपा के लिए खतरनाक साबित हुआ है. एक भाजपा नेता कहते हैं कि बिहार में मोदी को हारना जरूरी था वरना उन की तानाशाही और कट्टरवाद की राजनीति ज्यादा धारदार हो जाती. मोदी से पहले भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी सांप्रदायिक और कट्टरवाद की राजनीति को बढ़ावा देने के लिए जाने जाते थे, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी एक ऊंट की तरह आडवाणी के कट्टरवाद के हाथी को काबू में रखा करते थे. आज भाजपा में मोदी और अमित शाह दोनों ही ताकतवर नेता हैं और दोनों ही कट्टरवाद व धर्म की राजनीति की उपज रहे हैं. मोदी लाख कोशिश कर लें, लेकिन क्या वे गुजरात दंगों के कलंक से उबर सकते हैं?

लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने विकास पुरुष का चोला पहना और चुनाव में उतरे, जनता ने उन पर पूरा भरोसा किया, लेकिन अफसोस की बात है कि मोदी जनता के भरोसे को ज्यादा समय तक कायम नहीं रख सके. इसी का नतीजा है कि बिहार के चुनाव में उन्हें जनता ने सबक सिखा दिया है. अगर मोदी और शाह की जोड़ी अभी भी नहीं संभलती है तो अगले साल पश्चिम बंगाल, असम और तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव और 2017 में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा का डब्बा गोल होना तय है. भाजपा सांसद आर के सिंह पार्टी आलाकमान पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि भाजपा को गहराई में जा कर हार का आकलन करने की जरूरत है. पार्टी को मिली हार से साफ है कि प्रदेश भाजपा में जनता का भरोसा नहीं है और इस में जल्द से जल्द बदलाव की जरूरत है.

बिहार के चुनावी नतीजों ने कट्टरवाद के मसले पर आरएसएस और भाजपा को ठंडे दिमाग से मंथन करने का संदेश दिया है. उन्हें यह समझना होगा कि कट्टरवाद की राजनीति भारत के डीएनए में नहीं है. इस मसले पर भाजपा में भी विरोध की आवाजें उठने लगी हैं. भाजपा सांसद हुकुमदेव नारायण यादव मानते हैं कि ऐन चुनाव के मौके पर मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कह कर पिछली और दलित जातियों को नाराज कर दिया और वे महागठबंधन के पक्ष में गोलबंद हो गए. वहीं अमित शाह ने पाकिस्तान में पटाखे फूटने की बात कह कर हिंदू धु्रवीकरण की कोशिश की, जिसे जनता ने खारिज कर दिया.

भाजपा की सहयोगी पार्टी हिंदुस्तान आवाम मोरचा के अध्यक्ष जीतनराम मांझी भी कहते हैं कि भागवत के आरक्षण वाले बयान ने राजग की लुटिया डुबो दी. वे इस बात से इनकार नहीं करते हैं कि भागवत के असमय आए उस बयान को लालू समेत महागठबंधन के नेताओं ने कैश करा लिया. मांझी यह भी मानते हैं कि भागवत ने कुछ गलत नहीं कहा. आरक्षण की समीक्षा की जानी चाहिए, लेकिन चुनाव के समय इस तरह की बातें नहीं उठनी चाहिए थीं. नीतीश और लालू अपने वोटरों को यह समझाने में कामयाब हो गए कि भाजपा आरक्षण को खत्म करना चाहती है. चुनावी नतीजों ने राज्य में भाजपा विरोध का नया माहौल पैदा कर दिया है. इस माहौल को पैदा करने के जिम्मेदार उस के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में जब भाजपा नीतीश के साथ विकास के नारे के साथ चुनाव में उतरी थी तो उसे 102 में से 91 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. गौरतलब है कि उस समय भाजपा की लाख कोशिशों के बाद भी नीतीश ने नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार के लिए बिहार नहीं आने दिया था. नीतीश को हमेशा इस बात का डर रहता था कि मोदी के साथ मंच शेयर करने से उन का वोटबैंक गड़बड़ हो सकता है. इसी वजह से नीतीश ने भाजपा के साथ रहते हुए भी मोदी से एक खास दूरी हमेशा बनाए रखी.

जबजब भाजपा विरोधी ताकतें एकजुट हो जाती हैं तो भाजपा को शिकस्त का मुंह देखना पड़ता है. दिल्ली विधानसभा चुनाव में कुछ ऐसा ही माहौल पैदा किया गया था. भाजपा विरोधी वोट के बंटने से ही भाजपा को राजनीतिक फायदा होता रहा है. बिहार विधानसभा के ताजा चुनाव में राजद, जदयू और कांगे्रस के एकसाथ आ जाने से भाजपा के लिए जीत दूर की कौड़ी हो गई. दरअसल, बिहार के चुनाव को नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने व्यक्तिवादी चुनाव बना दिया. भाजपा की बिहार शाखा के नेताओं को परदे के पीछे कर दिया गया और केवल नरेंद्र मोदी व शाह ही हर मंच पर नजर आए. भाजपा की हर चुनावी रैली को भाजपा की रैली कहने के बजाय मोदी की रैली कहा जाता रहा. इसी तरह लोकसभा चुनाव के समय भी पार्टी को गौण कर ‘हर हर मोदी, घर घर मोदी’, ‘अब की बार मोदी सरकार’ जैसे व्यक्ति केंद्रित नारे लगाए गए, बिहार में भाजपा के हर पोस्टर, बैनर, स्टीकर पर मोदी ही मोदी छाए रहे.

नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार के डीएनए को खराब बता कर नीतीश कुमार पर सीधा और बड़ा ही तीखा हमला बोला था और उन्हें सीधी लड़ाई की चुनौती दी थी. इस लड़ाई में एक मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को करारी शिकस्त दी है. मोदी ने जब नीतीश के डीएनए को खराब बताया तो नीतीश उस मामले को सीधे जनता के बीच ले गए. जदयू और राजद के कार्यकर्ताओं ने अपने सिर के बाल और नाखून काट कर डीएनए टैस्ट के लिए मोदी को भेज कर बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया था. यह चुनाव नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के लिए करो या मरो वाली हालत थी. नीतीश यह साबित करना चाहते थे कि साल 2005 और 2010 का विधानसभा चुनाव वे भाजपा के भरोसे नहीं जीते थे. बिहार की जनता में उन की गहरी पैठ है. दलित पिछड़े तो उन्हें पसंद करते ही हैं, साथ ही शहरी और अगड़ी जातियों के ज्यादातर लोग भी उन के तरक्की के नारे में यकीन करते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के हाथों करारी हार मिलने के बाद नीतीश जीत के लिए किसी भी तरह का दांवपेंच छोड़ना नहीं चाहते थे. गौरतलब है पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी जदयू को केवल 2 सीटें ही मिलीं, जबकि 2009 के आम चुनाव में उन्होंने 20 सीटों पर कब्जा जमाया था. यही वजह है कि नीतीश अपने धुर विरोधी नरेंद्र मोदी को उन के ही दांव से उन्हें मात देने की कवायद में लगे हुए थे और जिस में उन्हें भारी कामयाबी मिली.

महागठबंधन के दलों के लिए सब से बड़ी ताकत यह रही कि सभी दल अपनेअपने वोट को सहयोगी दलों के खाते में ट्रांसफर कराने में कामयाब रहे, जिस को ले कर तीनों दलों के नेताओं में काफी आशंका थी. वोट ट्रांसफर को ले कर नीतीश और लालू बारबार अपने कार्यकर्ताओं के बीच गए और सारे कन्फ्यूजन दूर करने में सफल रहे. लालू यादव कहते हैं कि प्रमंडल स्तर पर कार्यकर्ताओं से रायविचार करने के बाद ही गठबंधन हुआ था. कहीं कोई भी विवाद या खींचतान के हालात नहीं थे. गठबंधन की सभी पार्टियों के नेताओं ने अपनेअपने कार्यकर्ताओं से मशविरा करने के बाद ही सीटों को ले कर तालमेल पर फैसला लिया था. जिन सीटों पर राजद के उम्मीदवार थे वहां 74 फीसदी यादव वोट मिले और जिन सीटों पर जदयू के उम्मीदवार थे वहां 60 फीसदी यादव वोट मिले. इसी तरह राज को 69 फीसदी कुर्मी और जदयू को 67 फीसदी कुर्मी वोट हासिल हो सके. ओबीसी का 33 फीसदी वोट जदयू को और 38 फीसदी राजद के खाते में पड़े. महादलितों के 23 फीसदी वोट जदयू को और 32 फीसदी राजद के हिस्से में पड़े. मुसलिमों के 78 फीसदी वोट जदयू को और 59 फीसदी राजद की झोली में गिरे.

भाजपा की संसदीय बोर्ड की बैठक में हार की समीक्षा की गई और शुतुर्मुर्गी फैसले किए गए. पार्टी नेताओं ने इस बात को खारिज कर दिया कि मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा करने वाले बयान से भाजपा की हार हुई है. वहीं सहयोगी दलों को भी क्लीनचिट दे दी गई. जबकि सच यह है कि उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी जैसे नेताओं का कोई खास जनाधार नहीं रहा है. दोनों ही नेता नीतीश का विरोध कर उन से अलग हुए थे और उन्हें भाजपा ने लपक लिया. भाजपा ने दोनों नेताओं को ओवरएस्टीमेट करते हुए उन्हें 61 सीटों पर चुनाव लड़ने की सहमति दे थी. मांझी की पार्टी ‘हम’ से मांझी के अलावा कोई जीत नहीं सका, वहीं उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा के 40 में से 2 उम्मीदवार ही जीत पाए.

– साथ में बीरेंद्र बरियार

फ्रांस पर हमला

फ्रांस में निहत्थे, निर्दोष, युवा, बुजुर्ग, बच्चे एक बार फिर गोलियों के निशाना बने जो धर्म की बंदूकों से निकली थीं और शुक्रवार की एक रंगीन शाम खूनी रात में बदल गई. धर्म के नशे में चूर इसलामिक स्टेट के आत्मघाती दस्ते के 8 या 9 आतंकियों ने पेरिस के 6 ठिकानों पर धुआंधार गोलियां बरसा कर व बम विस्फोट कर 150 लोगों को मार डाला. और आतंकियों के सरगनों ने धमकी दी है कि वाशिंगटन, लंदन, बर्लिन आदि भी निशाने पर हैं. इराक के विद्रोह से जन्मे इसलामिक स्टेट औफ इराक ऐंड सीरिया यानी आईएसआईएस के पास आज पश्चिमी एशिया का बहुत बड़ा इलाका है और उस के लड़ाके बेरहमी की सीमाएं लांघ कर बेदर्दी से हत्याएं कर खौफ पैदा कर रहे हैं. यह क्रूर संगठन दुनियाभर में अपने तथाकथित इसलामी राज को स्थापित करने का सपना देख रहा है.

धर्म के नाम पर हत्याएं सदियों से हो रही हैं. जर, जमीन और जोरू से ज्यादा धर्म अप्राकृतिक मौतों का जिम्मेदार है क्योंकि धर्म की आड़ में मारने वाले के दिमाग में बैठा दिया जाता है कि हत्याएं वह अपने हित के लिए नहीं कर रहा, ऊपर वाले के आदेशों को लागू करने के लिए कर रहा है और यह पुण्य का काम है जिस में जान चली भी जाए तो भी हर्ज नहीं क्योंकि स्वर्ग में सीट पक्की है.

यह अफसोस है कि धर्म के नाम पर शांति, शराफत और बराबरी का मुखौटा पहने लोगों के चेहरे खूंखार हैं और हाथ अत्याचारों व खून से भरे हैं. आज दुनिया में जितने विवाद हैं उन में से 90 प्रतिशत धर्म के कारण हैं और हर जगह आम आदमी मारे जा रहे हैं. मुंबई में ताजमहल होटल में और पेरिस के बताक्लां कंसर्ट हौल में हो रहे म्यूजिक प्रोग्राम के दौरान हत्याएं धर्म के नाम पर की गईं. मरने वाले उस समय किसी धर्म का प्रचार नहीं कर रहे थे. जमीन और सत्ता के लिए युद्ध लड़े जाएं, यह समझा जा सकता है पर धर्मयुद्धों में हमेशा आम निहत्थों को मारा जाता है क्योंकि दूसरी तरफ अपने धर्म की रक्षा के लिए हथियारबंद सिपाही पर आक्रमणों से ज्यादा आम लोगों की हत्याएं की जाती हैं जो दूसरे धर्म के होते हैं. मानवता को धर्म के नाम पर जितना छला व लूटा गया है उतना लुटेरों और डाकुओं ने नहीं लूटा. आराम से अपने काम में लगे लोगों को पहले धर्म की अफीम पिला दी जाती है और फिर या तो उन्हें हत्यारा बना डाला जाता है या हत्यारों का निशाना.

अफसोस यह है कि पिछले 20 वर्षों में धार्मिक हत्याओं के बढ़ने के बावजूद उस के मूल कारण धर्म के व्यापार पर कोई विशेष रोकटोक नहीं लगी है. इस आतंक से पूरी तरह छुटकारा पाना है तो अफगानिस्तान की गुफाओं या इराक व सीरिया के कैंपों पर हमले ही नहीं, बल्कि धर्म की हर तरह की शिक्षा को मानवता के खिलाफ जहर मान कर नष्ट करना होगा. यह प्लेग, मलेरिया, इबोला की तरह का कहर है जिसे नष्ट करने के लिए मरीज का इलाज ही काफी नहीं है, जहां उस के विषाणु पलते हैं, वहां भी आक्रमण जरूरी है.

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