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मुथालिक पर प्रतिबंध

सुप्रीम कोर्ट ने श्रीराम सेना के स्वयंभू हिंदू रक्षक प्रमोद मुथालिक के गोआ में प्रवेश पर प्रतिबंध को सही ठहराते हुए हिंदू धर्म के नाम पर आतंक फैलाने वालों को फटकार लगाई है. चाहे इस से कुछ बात न बने, पर इतना संतोष तो है कि हिंदू धर्म के नाम पर नैतिकता थोपने को अदालत कुछ नियंत्रित तो कर रही है. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एच एल दत्तू को इसी मुथालिक द्वारा मंगलौर में कुछ साल पहले मचाए हंगामे की याद थी जिस में उस ने एक बार में घुस कर शराब पीती लड़कियों के साथ बदसलूकी की थी. उस के बाद उस मुथालिक ने गोआ में उत्पात मचाने की योजना बनाई थी जिसे राज्य सरकार ने रोक दिया था क्योंकि उस से राज्य के पर्यटन व्यवसाय पर बहुत असर पड़ता. हिंदू धर्म नैतिकता और सत्य का प्रतीक है, यह बात सफेद झूठ है. हिंदू धर्म के नाम पर देश में लाखों मंदिरों में पंडों का धंधा चमकता है और पंडों को सच्चरित्र होने का प्रमाणपत्र मिलता है व भगवाई दुपट्टे वाले गलबहियां डाले युवा जोड़ों के पीछे पड़े रहते हैं. हिंदू धर्म ही ऐसा नहीं है, सभी धर्मों का इतिहास ही नहीं, वर्तमान भी बेईमानी, लूट, बलात्कारों, हत्याओं, झूठ आदि से भरा है पर उन्हें धर्मों के दुकानदार नैतिकता के लबादों के पीछे छिपाए रखते हैं ताकि नए ग्राहक फंसते रहें और वे अपनी मेहनत की कमाई भगवान के नाम पर इन के चरणों में चढ़ाते रहें.

आम आदमी यदि अपने घर या होटल के बंद कमरे में कुछ गलत भी कर रहा है तो तब तक तीसरे को दखलंदाजी का हक नहीं जब तक पीडि़त खुद कुछ न कहे. कोई अगर पीडि़तों की तरफ से कुछ कहे तो भी बात है. पर प्रमोद मुथालिक जैसे तो नैतिकता का बुलडोजर लिए घूमते रहते हैं और जहां मौका मिलता है, तहसनहस कर डालते हैं, जैसे आजकल इसलामिक स्टेट इराक और सीरिया की हजारों साल पुरानी धरोहरों के साथ कर रहा है. अफसोस यह है कि 1947 के बाद से देश में धार्मिक कट्टरवाद की एक नई लहर चल रही है जिस में तर्क की रक्षा करने के लिए न कांगे्रस आगे आती है, न कम्युनिस्ट, न समाजवादी और भाजपा को तो छोड़ ही दें. सुप्रीम कोर्ट यदाकदा अपने आदेश देता रहता है. पर जमीनी हकीकत यह है कि मुथालिक जैसे 10-20 का गिरोह बना कर किसी भी तरह का आतंक फैलाने में सक्षम हैं.

गुलाटी बनेंगे होस्ट

रिऐलिटी शो से मशहूर हुए गौतम गुलाटी अब टीवी पर होस्ट के अवतार में नजर आएंगे. वे एम टीवी के नए शो एम टीवी बिग एफ को होस्ट कर रहे हैं. गौतम को लोकप्रियता भी रिऐलिटी शो से ही मिली थी जब उन्होंने बिग बौस सीजन 8 जीता था. गौतम गुलाटी के मुताबिक, ‘‘एक अभिनेता के रूप में मैं ने कुछ अनूठे किरदारों में हाथ आजमाया है और मैं कुछ नया और एम टीवी बिग एफ जैसे वाकई में रोमांचक कार्यक्रम को होस्ट करने के लिए उत्साहित हूं. वैसे टीवी के ज्यादातर अभिनेता रिऐलिटी शो से चर्चित हो कर टीवी और फिल्मों तक का कामयाब सफर पूरा कर चुके हैं. ऐसे में गौतम का सफर देखने वाला होगा.

टोरंटो में तलवार

आरुषी हत्याकांड पर कुछ साल पहले रहस्य फिल्म जब रिलीज हुई थी तब राजेश तलवार ने इस फिल्म की रिलीज रोकने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था. हालांकि अदालत ने उन की मांग पर खास ध्यान न देते हुए फिल्म को रिलीज होने दिया. mइसी विषय पर मेघना गुलजार ने भी फिल्म ‘तलवार’ काफी अरसे पहले बना ली थी लेकिन रिलीज करने से कतरा रही थीं. लेकिन अब यह रिलीज हो रही है. अच्छी बात यह है कि मेलबर्न के भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल में बैस्ट ऐक्टर का खिताब जीतने वाले इरफान इस फिल्म के नायक हैं और इस फिल्म का टोरंटो फैस्टिवल में वर्ल्ड प्रीमियर होने वाला है. इरफान ने इसे लंदन फिल्म फैस्टिवल में भी ले जाने का निर्णय लिया है.

नहीं रहे आदेश

संगीतकार आदेश श्रीवास्तव को कुछ साल पहले कैंसर हुआ था, जिस का उन्होंने डट कर न सिर्फ मुकाबला किया बल्कि कैंसर को जोरदार पटखनी दे कर वापस भी आए. कुछ साल संगीत के क्षेत्र में बेहतरीन काम किया. लेकिन जब उसी कैंसर ने दोबारा उन्हें जकड़ा तो इस बार वे उसे हरा नहीं पाए और आखिरकार जिंदगी की जंग हार गए. 5 सितंबर को रात करीब 12.30 बजे मुंबई के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में उन की मृत्यु हुई. बतौर संगीतकार, उन की आखिरी फिल्म ‘वेलकम बैक’ भी हाल ही में रिलीज हुई है. उन की पत्नी विजेता पंडित अभिनेत्री रह चुकी हैं जबकि विजेता पंडित के भाई जतिनललित संगीतकार हैं. आदेश ने ‘चलतेचलते’, ‘बाबुल’, ‘बागबान’, ‘कभी खुशी कभी गम’, ‘अपहरण’, ‘राजनीति’ समेत 100 से ज्यादा फिल्मों में संगीत दिया.

अर्शी-अफरीदी का सैक्स स्कैंडल

नवाब पटौदी और शर्मीला टैगोर का किस्सा सब जानते हैं. लेकिन आजकल क्रिकेट और फिल्म के किस्से प्यारमोहब्बत वाले न हो कर लव, सैक्स और धोखा जैसे हो गए हैं. मौडल अर्शी खान का ही मामला ले लीजिए. हाल में पाकिस्तानी क्रिकेटर शाहिद अफरीदी को ले कर अर्शी ने सोशल मीडिया में अपने रिश्ते को ले कर बेहद सनसनीखेज खुलासा किया है. अर्शी के मुताबिक, अफरीदी के साथ उन्होंने यौन संबंध बनाए हैं. अब यह बात गंवारों की तरह सोशल मीडिया में चिल्ला कर बताने की जरूरत क्यों पड़ी? दरअसल, अर्शी खान ने भले ही बौलीवुड की फिल्मों में काम किया हो लेकिन आज भी उन्हें कोई नहीं जानता. लिहाजा, सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए अर्शी को यही चीप रास्ता सूझा.

सत्संग करेंगी अमृता

राजनीति, पुलिस और सामाजिक मुद्दे पर आधारित फिल्म बनाने के बाद निर्देशक प्रकाश झा ने इस बार धर्म पर कटाक्ष करने की ठानी है. इस के लिए वे बना रहे हैं फिल्म ‘सत्संग’. फिल्म में जहां अजय देवगन लीड रोल में नजर आएंगे, वहीं लंबे अरसे से बौलीवुड से गायब एक्ट्रैस अमृता राव अहम भूमिका में दिखेंगी. यह फिल्म धर्म के नाम पर हो रही दुकानदारी और आसाराम व राधे मां जैसे विवादों पर आधारित होगी. लिहाजा, ‘सत्संग’ में अमृता का भी नया अवतार देखने को मिलेगा. वैसे इस तरह के विवाद पर ‘ओह माई गौड’ और ‘पीके’ जैसी फिल्में पहले भी बन चुकी हैं. अमृता पिछली बार प्रकाश झा की सत्याग्रह में भी काम कर चुकी हैं. ‘सत्संग’ में उन का काम कितना अलग और अहम होगा, इस के लिए उन के फैंस को इंतजार रहेगा.

फिल्म समीक्षा

फैंटम

हुसैन जैदी के उपन्यास ‘मुंबई एवेंजर्स’ पर आधारित ऐक्शन थ्रिलर फिल्म ‘फैंटम’ में निर्देशक कबीर खान ने 26/11 के मुंबई हमले के हमलावरों को मार कर भारत का बदला पूरा हुआ दिखाया है. आज से 7 साल पहले मुंबई हमले में 160 से ज्यादा मासूमों को मार डाला गया था. जिन्होंने हमला किया वे आज भी चैन से सो रहे हैं. हमले का कर्ताधर्ता हाफिज सईद पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहा है और उसे आईएसआई का पूरा संरक्षण मिला हुआ है. ‘फैंटम’ में कबीर खान ने एक सीक्रेट मिशन के तहत इन हमलावरों को मार गिराते दिखाया है. उस ने यह दिखाने की कोशिश की है कि जब अमेरिका गुपचुप तरीके से पाकिस्तान के एबटाबाद शहर में घुस कर ओसामा बिन लादेन जैसे दुर्दांत आतंकवादी को मार सकता है तो भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता. उस ने अपनी इस फिल्म द्वारा 26/11 हमले का करारा जवाब दिया है. इसीलिए इस फिल्म को पाकिस्तान में बैन कर दिया गया है.

फिल्म में कबीर खान ने नायक सैफ अली खान को जेम्स बौंड सरीखा दिखाने की कोशिश जरूर की है परंतु सैफ अली खान का गेटअप जेम्स बौंड जैसा नहीं दिखता. इस से पहले सैफ अली खान ने ‘एजेंट विनोद’ फिल्म में भी इसी तरह की सीक्रेट एजेंट की भूमिका निभाई थी. भारत-पाक संबंधों पर बनी कबीर खान की पिछली फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ में उस ने भाईचारे का संदेश दिया था. हालांकि अतार्किक बातें उस फिल्म में भी थीं, फिर भी ‘बजरंगी भाईजान’ हृदयस्पर्शी थी. मगर इस फिल्म में इमोशंस नाम की कोई चीज ही नहीं है. फिल्म की कहानी एकदम सपाट है. कहानी तेज रफ्तार में शिकागो से शुरू होती है. तेज रफ्तार में गाड़ी चलाने और एक आदमी को कुचल देने के अपराध में एक भारतीय युवक दानियाल खान (सैफ अली खान) को उम्रकैद की सजा दी जाती है. किसी समय वह भारतीय सेना में था. उसे जेल में डाल देना मात्र दिखावा था. दरअसल, उसे एक मिशन को अंजाम देना है. भारत में रा के प्रमुख राम (सब्यसाची चक्रवर्ती) और उन के साथी सुमित मिश्रा (जीशान अयूब) ने दानियाल खान के लिए ऐसा मिशन तैयार किया जिस से वह 26/11 हमले के अपराधियों को सजा दे सके. मिशन के तहत दानियाल खान पहले लंदन पहुंचता है जहां उस की मुलाकात मिस्त्री (कैटरीना कैफ) से होती है. मिस्त्री दानियाल खान की मदद करती है. दानियाल खान मुंबई हमले के हमलावरों को ट्रेनिंग देने वाले साजिद मीर (मीर सरवर) और शिकागो की जेल में बंद हेडली की पहचान कर उन्हें मार डालता है. फिर अपने मिशन को पूरा करने के लिए सीरिया होते हुए पाकिस्तान पहुंच कर मुंबई हमले के दोषियों को ठिकाने लगाता है.

फिल्म की यह कहानी बहुत तेज गति से दौड़ती प्रतीत होती है. क्लाइमैक्स बेवजह लंबा खींचा गया है. क्लाइमैक्स में पानी में डूबतेउतराते सैफ अली खान को गोली लगना और उस का मर जाना कुछ अटपटा सा लगता है. सैफ अली खान पूरी फिल्म में छाया हुआ है. उस ने जम कर ऐक्शन सीन किए हैं. कैटरीना कैफ ने कुछ ऐक्शन सीन किए हैं. सब से बढि़या काम मोहम्मद जीशान अयूब का है. फिल्म का गीतसंगीत नजरअंदाज करने जैसा है. एक गीत ‘अफगान जलेबी’ अच्छा बन पड़ा है. फिल्म का छायांकन अच्छा है.

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वेलकम बैक

इस फिल्म की रिलीज से पहले अनिल कपूर टीवी चैनलों पर कहते फिर रहे थे कि भैया, इस फिल्म को देखने आना तो दिमाग को घर पर रख कर आना. फिल्म देख कर लगा, वे सही कह रहे थे, अगर दिमाग होगा तो दर्शक सोचेंगे, यह क्या और क्यों हो रहा है. दरअसल वेलकम बैक एक नौनसैंस कौमेडी है. ‘वेलकम बैक’ 8 साल पहले आई ‘वेलकम’ की सीक्वल है. सीक्वल फिल्म वह होती है जिस की कहानी वहां से शुरू हो कर आगे बढ़े जहां पहली फिल्म की कहानी खत्म हुई थी. पिछली फिल्म में उदय (नाना पाटेकर) और मजनू (अनिल कपूर) गुंडागर्दी छोड़ कर शरीफ बन गए थे. ‘वेलकम बैक’ यहीं से शुरू होती है. अब ये दोनों गुंडे शरीफ आदमी बन चुके हैं. छोटेछोटे अपराधी भी इन से हफ्ता वसूली करने लगे हैं. अब दोनों को लगने लगता है कि उन्हें शादी कर लेनी चाहिए. तभी उन की मुलाकात राजकुमारी औफ नजफगढ़ (अंकिता श्रीवास्तव) से होती है, जो महारानी औफ नजफगढ़ (डिंपल कापडि़या) की बेटी है. दोनों अपनेअपने तरीके से राजकुमारी को पटाने में लग जाते हैं. तभी एक दिन उदय का पिता आ जाता है. उस के साथ उदय की बहन रंजना (श्रुति हसन) होती है. अब उदय और मजनू को रंजना की शादी करनी है. दोनों उस के लिए लड़का ढूंढ़ते हैं उन्हें डा. घुंघरू (परेश रावल) का बेटा अज्जू (जौन अब्राहम) मिल जाता है. अज्जू छंटा हुआ बदमाश है. यह राज रंजना और अज्जू की सगाई वाले दिन खुलता है.

उधर एक डौन वांटेड (नसीरुद्दीन शाह) का नशेड़ी बेटा सनी (शाइनी आहूजा) का दिल रंजना पर आ जाता है. अब उदय और मजनू की मुसीबत बढ़ जाती है लेकिन अज्जू ऐसा चक्कर चलाता है, जिस से रंजना उस की झोली में आ गिरती है. वांटेड और सनी ताकते रह जाते हैं. महारानी और राजकुमारी की पोलपट्टी खुल जाती है. पिछली फिल्म ‘वेलकम’ भी अनीस बज्मी ने ही निर्देशित की थी. इस बार उस ने आधा दर्जन कलाकारों को साथ ले कर कहानी तो ठीकठाक ली है मगर पटकथा लिखवाते समय वह गच्चा खा गया है. फिल्म के कलाकारों के रोल ढंग से नहीं गढ़े गए हैं. अंकिता श्रीवास्तव को लेना निर्देशक की सब से बड़ी भूल रही है. यही हाल श्रुति हसन का भी है. डिंपल कापडि़या को यह क्या हो गया है कि उस ने इतना घटिया रोल स्वीकार कर लिया. जौन अब्राहम को हीरो बनाना ही नहीं चाहिए था. शाइनी आहूजा के लिए तो यही कह सकते हैं कि भैया, ऐक्ंिटग- वैक्ंिटग छोड़ो और जेल की रोटियां तोड़ो. अंधे डौन की भूमिका में नसीरुद्दीन शाह ने सिर्फ प्रभावित किया है. फिल्म का निर्देशन सामान्य है. अनीस बज्मी ने अपनी स्टाइल को ही दोहराया है. फिल्म का गीतसंगीत याद रखने लायक नहीं है. एक गीत ‘मैं हूं सोडा तूफानी…मैं हूं तीखी कचौड़ी…’ काफी चीप लगता है. छायांकन बहुत बढि़या है. दुबई की खूबसूरती को दिखाया गया है. छायाकार की तारीफ करनी होगी. फिल्म का क्लाइमैक्स काफी लंबा है. क्लाइमैक्स में रेगिस्तान में धूल का अंधड़ देखने लायक है.

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कौन कितने पानी में

ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने हमेशा दलितों पर अत्याचार किए हैं. यह हम नहीं कह रहे, हमारे धर्मग्रंथों और वेदों में ऐसा लिखा है. महाराज मनु का यह विधान था कि अगर शूद्र ईशस्तुति सुन ले तो उस के कानों में पिघला सीसा उड़ेल देना चाहिए. गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा था, ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी. ये सब ताड़न के अधिकारी.’ अर्थात शूद्रों को ताड़ना देनी चाहिए. इसीलिए तो सदियों से हमारे राजामहाराजा, मंदिरों के धर्माधिकारी अछूतों पर अत्याचार करते आ रहे हैं.

फिल्म ‘कौन कितने पानी में’ में सवर्णों और अछूतों की लड़ाई को दिखाया गया है. कहानी ओडिशा के एक गांव की है. गांव का विभाजन जाति के आधार पर किया गया है. गांव का ऊपरी हिस्सा राजा ब्रह्मकिशोर सिंह देव (सौरभ शुक्ला) को मिला है और नीचे का हिस्सा अछूतों को मिला हुआ है. राजा साहब ने अछूतों की बस्ती और अपनी जमीन के बीच एक ऊंची दीवार बनवा रखी है. राजा साहब का इकलौता बेटा राज सिंह देव (कुणाल कपूर) जब गांव लौटता है तो पाता है वहां पानी की काफी किल्लत है. पानी वहां करैंसी की तरह है. खुद राजा साहब पानी पीने को तरस रहे हैं जबकि अछूतों की बस्ती में खूब पानी है. चारों ओर खुशहाली है. अछूतों का सरदार खारू पहलवान (गुलशन ग्रोवर) अपनी बेटी पारो (राधिका आप्टे) के साथ उस बस्ती में रहता है. राज सिंह  देव अपने पिता का घर छोड़ कर खारू की बस्ती में चला जाता है और खारू पहलवान की नौकरी करने लगता है. वहीं उसे पारो से प्यार हो जाता है. जब यह बात राजा साहब के गांव वालों को पता चलती है तो लोग उस की जान लेने को तैयार हो जाते हैं. दूसरी ओर खारू पहलवान की बस्ती के लोग भी उस प्रेमी युगल को मारने के लिए दौड़ पड़ते हैं. तभी गांव के मंदिर का पुजारी बिहायी माता की आवाज में भविष्यवाणी करता है और दोनों गांवों के लोगों की तलवारें रुक जाती हैं. दोनों गांवों के लोग वर्णभेद भुला कर एक हो जाते हैं. फिल्म का विषय तो काफी अच्छा है लेकिन पटकथा काफी कमजोर है.

फिल्म की कहानी में वोट की राजनीति, जातिवाद और लवस्टोरी को बेवजह ठूंसा गया लगता है. राजा साहब की भूमिका में सौरभ शुक्ला ने दर्शकों को बांधे रखा है. राधिका आप्टे इस बार ‘मांझी’ की फगुनिया से एकदम अलग अंदाज में है. गुलशन ग्रोवर भी जमा है. फिल्म का छायांकन अच्छा है. 

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बांके की क्रेजी बरात

यह कौमेडी फिल्म प्रौक्सी मैरिज यानी छद्म शादी पर बेस्ड है. छद्म शादी का चलन उत्तर प्रदेश और बिहार में है. इस शादी में शादी की रस्में निभाने के लिए किराए का दूल्हा लाया जाता है, खासकर उस वक्त जब असली दूल्हा कुरूप हो या उस की जन्मकुंडली में कोई दोष हो. फिल्म ‘बांके की क्रेजी बरात’ ऐसी ही एक छद्म शादी की बात करती है. कहानी हिमाचल प्रदेश की है, जहां कामदेव का भक्त बांकेलाल (राजपाल यादव) अपने पिता (राकेश बेदी) और चाचा कन्हैया लाल (संजय मिश्रा) के साथ रहता है. बांके की कुंडली में दोष है, इसलिए उस की शादी नहीं हो पा रही. इस के लिए घर वाले एक उपाय ढूंढ़ते हैं कि बांके की छद्म शादी कराई जाए. रस्में कोई और करे और दुलहन वह बांके को दे दे. इस काम के लिए एक नकली दूल्हे को ढूंढ़ा जाता है. ऐन मौके पर वह नकली दूल्हा गायब हो जाता है. तभी बस के मालिक के बेटे विराट (सत्यजीत दुबे) को बांके बना कर अंजलि (रिया वाजपेयी) से शादी करने के लिए राजी करना पड़ता है. विराट और अंजलि की शादी हो जाती है तो कन्हैया विराट से अंजलि को छोड़ कर जाने को कहता है. तभी अंजलि एक प्लान बनाती है और वह भाग कर विराट के साथ चली जाती है. बांके कुंआरा का कुंआरा रह जाता है.

फिल्म की कहानी और पटकथा काफी कमजोर है. कई मौकों पर हंसी तो आती है लेकिन शीघ्र ही वह फुर्र भी हो जाती है. संजय मिश्रा और विजय राज दर्शकों को बांधे रखते हैं. राजपाल यादव ने तो बंदरों की तरह उछलकूद ही की है. दूल्हादुलहन की भूमिका में सत्यजीत दुबे और रिया वाजपेयी प्रभावित करते हैं. फिल्म में साफसुथरी कौमेडी जरूर है मगर इस में ‘बौंबे टू गोआ’, ‘चला मुसद्दी औफिस औफिस’ सरीखी कौमेडी नहीं है. फिल्म का गीतसंगीत काफी कमजोर है. सिर्फ ‘मेहंदी’ सौंग अच्छा है. छायांकन अच्छा है.

मेरी पहचान सफाई वाली दीदी की भी है : विद्या बालन

‘परिणीता’ फिल्म से अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत करने वाली साधारण नैननक्श मगर अभिनय प्रतिभा से भरी विद्या बालन ने अपनी खास पहचान बनाई है. रेखा और स्मिता पाटिल के नक्शेकदम पर चलते हुए विद्या ने ‘कहानी’ जैसी कई फिल्मों में अपनी ऐक्ंिटग का लोहा मनवाया है. इस के साथ ही फिल्म ‘डर्टी पिक्चर’ में ग्लैमर से भरपूर रोल अदा कर ‘ऊ लाला ऊ लाला…’ गाने पर थिरक अपनी बनीबनाई इमेज को झटके में बदल भी दिया. उन्होंने बारबार यह साबित किया है कि वे हर किरदार में ढल सकती हैं. पिछले दिनों सफाई मुहिम में हिस्सा लेने पटना पहुंचीं विद्या ने बातचीत के दौरान बताया कि गांवों में अब उन की पहचान उस दीदी के रूप में कायम हो गई है जो सफाई और शौचालय की बात करती है. उन का कहना है कि हर घर में शौचालय होना चाहिए. एक ओर औरतों को घर की इज्जत कहा जाता है जबकि उन्हें खुले में शौच जाने को मजबूर किया जाता है. कोई अपने घर की इज्जत के साथ ऐसा रवैया अपनाता है क्या? शौचालय घर की इज्जत को घर में रखने के साथ स्वास्थ्य और साफसफाई के लिए भी काफी जरूरी है.

सामाजिक कामों में उन की कैसे और कब दिलचस्पी जगी, इस बाबत विद्या बताती हैं, ‘‘समाज में रहना है तो समाज के बारे में सोचना होगा. हर किसी को समाज को कुछ देने के बारे में सोचना व करना पड़ेगा. इच्छा होती थी किसी सामाजिक मुहिम से जुड़ने की, लेकिन सही मौका नहीं मिल रहा था. सैनिटेशन के विज्ञापन से जुड़ने के बाद इस समस्या को करीब से देखने और समझने का अवसर मिला.’’

वे बताती हैं, ‘‘अच्छे काम का अपना ही मजा और सुख है. पिछले दिनों गांव के एक स्कूल में गई तो सभी बच्चे मुझे दीदी कह कर पुकारने लगे. बच्चों ने मुझ से शौचालय मुहिम का डायलौग बोलने को कहा. मुझे काफी हैरानी हुई. अब तक मैं जहां भी गई तो लोग मुझे ‘ऊ लाला ऊ लाला…’ गाने पर डांस करने को कहते थे या किसी फिल्म का डायलौग बोलने को कहते थे. मुझे महसूस हुआ कि फिल्मी हीरोइन से अलग भी मेरी पहचान है.’’ घरघर शौचालय मुहिम की राह में सब से बड़े रोड़े को ले कर उन का मानना है, ‘‘भारत के 56 फीसदी लोग शौचालय का उपयोग केवल इसलिए नहीं करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि जिस घर में पूजापाठ करते हैं उस में शौचालय कैसे हो सकता है. मुझे जब यह पता चला तो हैरानी के साथ दुख भी हुआ. तब मुझे महसूस हुआ कि लोगों को इस पुरानी और बेकार सोच से बाहर लाने के लिए शौचालय मुहिम को और तेज करने की जरूरत है.’’

एक दशक से ज्यादा बौलीवुड में जमने वाली विद्या अपने संघर्ष को जरूरी मानते हुए कहती हैं, ‘‘लंबे संघर्ष के बाद ही असली और ठोस कामयाबी मिलती है. खुद के काम पर यकीन था और परिवार का पूरा सपोर्ट था, जिस से संघर्ष में ताकत मिलती रही.’’ जिन्हें फिल्म इंडस्ट्री में कास्ंिटग काउच के जाल में फंसना पड़ता है उन्हें सलाह देते हुए वे कहती हैं, ‘‘कामयाबी या फिल्म पाने के लिए शौर्टकट अपनाने से परेशानी ही होती है. अभिनेत्रियां खुद पर भरोसा रख कर संघर्ष करें तो किसी भी जाल में फंसने की संभावना काफी कम हो जाती है. अगर किसी में टैलेंट है तो काम पाने के लिए किसी भी तरह का समझौता करने की जरूरत ही नहीं है.’’

पंचम ने दिलाया भारत को कांस्य

विश्व कुश्ती प्रतियोगिता में भारत को पदक का इंतजार था. आखिरकार लास वेगास में 74 किलोग्राम फ्री स्टाइल वर्ग में 26 वर्षीय भारतीय पहलवान नरसिंह पंचम यादव ने कांस्य पदक जीत कर देश को 2016 रियो ओलिंपिक के लिए कोटा दिला दिया. नरसिंह ने कांस्य पदक के लिए खेले गए मुकाबले में फ्रांस के जेलिमरवान खादिजेव को हराया. दरअसल, 74 किलोग्राम भार वर्ग में 2 बार के ओलिंपिक पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार को उतरना था लेकिन कंधे की चोट की वजह से ऐसा हो न सका और नरसिंह के ऊपर यह जिम्मेदारी थी और जीत दिला कर उन्होंने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया. अगले वर्ष रियो ओलिंपिक में देखना दिलचस्प होगा कि अनुभवी सुशील कुमार और नरसिंह पंचम में से 74 किलोग्राम भार वर्ग में भारत का प्रतिनिधित्व कौन करेगा, क्योंकि नियमों के अनुसार ओलिंपिक में स्थान देश के लिए पक्का माना जाता है न कि खिलाड़ी के लिए. इसलिए नरसिंह ने अगर पदक हासिल किया है तो ऐसा जरूरी नहीं है कि वही इस का प्रतिनिधित्व करेंगे.

भारतीय पहलवानों के लिए यह चिंता का विषय है कि वे विश्व चैंपियनशिप में अच्छा नहीं कर पाए. उन का निराशाजनक प्रदर्शन रहा और 2013 की विश्व चैंपियनशिप में 57 किलोग्राम भार वर्ग में रजत पदक दिलाने वाले अमित कुमार क्वार्टर फाइनल तक नहीं पहुंच सके. यही हाल 70 किलोग्राम भार वर्ग के अरुण कुमार और 125 किलोग्राम भार वर्ग के सुमित का भी रहा. अगर समय रहते ये अपनी कमियों को दूर कर लेते हैं तो शायद भारतीय पहलवानों के लिए भविष्य अच्छा रहेगा.

दुनिया का सब से बड़ा स्टेडियम

गुजरात क्रिकेट संघ यानी जीसीए ने अहमदाबाद के मोटेरा स्थित सरदार पटेल स्टेडियम को मेलबर्न की तर्ज पर दुनिया का सब से बड़ा आधुनिक स्टेडियम बनाने का फैसला लिया है. वर्तमान स्टेडियम को तोड़ कर नए रूप में आधुनिक टैक्नोलौजी का इस्तेमाल कर पुनर्निर्माण करना अच्छी बात है पर इस स्टेडियम को बनाने में लागत कितनी आएगी इस का सही अनुमान शायद अभी किसी के पास नहीं है. चिंता की बात इसलिए भी नहीं है क्योंकि माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नगरी में यह कार्य हो रहा है ऊपर से जीसीए के अध्यक्ष भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह हैं. अब तो आप को भी अंदाजा लग गया होगा कि स्टेडियम के निर्माण कार्य में कहीं भी रोड़ा आने वाला नहीं है.

हालांकि स्टेडियमों के निर्माण से जुड़ी एक सचाई यह भी है कि कौमनवैल्थ के दौरान जिन स्टेडियमों का निर्माण दिल्ली में किया गया और करोड़ोंअरबों रुपए लगाए गए, क्या उन स्टेडियमों का सही इस्तेमाल हो पा रहा है? आज वे सफेद हाथी साबित हो रहे हैं, उन के रखरखाव में लाखों रुपए खर्च किए जा रहे हैं. चीन या बाकी देश स्टेडियमों का इस्तेमाल बखूबी करना जानते हैं और खेलों के अलावा उन स्टेडियमों को अन्य दूसरे कार्यों में ले कर धन उगाही करते हैं ताकि अर्थव्यवस्था को ठीक करने में फायदा मिल सके. ऐसे ही भारत में भी स्टेडियमों का इस्तेमाल होना चाहिए. कम से कम इतना तो होना ही चाहिए ताकि रखरखाव का खर्च निकाल सके. मगर सरकारी कार्यक्रमों के अलावा यहां शायद ही दूसरे कार्यक्रमों के लिए हम अपने स्टेडियमों का इस्तेमाल कर पाते हों. खैर, जिस तरह हर स्टेडियम की अपनी कहानी है उसी तरह मोटेरा की भी अपनी कहानी है. 54 हजार दर्शकों की कूवत वाले स्टेडियम में मशहूर क्रिकेटर सुनील गावस्कर ने टैस्ट मैचों में 10 हजार रन पूरे किए थे जबकि 7 साल बाद कपिलदेव ने अपना 432वां टैस्ट विकेट ले कर यहीं विश्व रिकौर्ड बनाया था. सोचने वाली एक बात यह भी है कि देश में आम लोग आज भी सर्दी हो या गरमी या फिर बरसात, सड़कों या पुलों के नीचे रहने को मजबूर हैं. उन के रहने के लिए छत तक नहीं है. ऐसे में वाहवाही या तारीफ के काबिल तब होते जब ऐसे लोगों के लिए छत होती.

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