फैंटम
हुसैन जैदी के उपन्यास ‘मुंबई एवेंजर्स’ पर आधारित ऐक्शन थ्रिलर फिल्म ‘फैंटम’ में निर्देशक कबीर खान ने 26/11 के मुंबई हमले के हमलावरों को मार कर भारत का बदला पूरा हुआ दिखाया है. आज से 7 साल पहले मुंबई हमले में 160 से ज्यादा मासूमों को मार डाला गया था. जिन्होंने हमला किया वे आज भी चैन से सो रहे हैं. हमले का कर्ताधर्ता हाफिज सईद पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहा है और उसे आईएसआई का पूरा संरक्षण मिला हुआ है. ‘फैंटम’ में कबीर खान ने एक सीक्रेट मिशन के तहत इन हमलावरों को मार गिराते दिखाया है. उस ने यह दिखाने की कोशिश की है कि जब अमेरिका गुपचुप तरीके से पाकिस्तान के एबटाबाद शहर में घुस कर ओसामा बिन लादेन जैसे दुर्दांत आतंकवादी को मार सकता है तो भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता. उस ने अपनी इस फिल्म द्वारा 26/11 हमले का करारा जवाब दिया है. इसीलिए इस फिल्म को पाकिस्तान में बैन कर दिया गया है.
फिल्म में कबीर खान ने नायक सैफ अली खान को जेम्स बौंड सरीखा दिखाने की कोशिश जरूर की है परंतु सैफ अली खान का गेटअप जेम्स बौंड जैसा नहीं दिखता. इस से पहले सैफ अली खान ने ‘एजेंट विनोद’ फिल्म में भी इसी तरह की सीक्रेट एजेंट की भूमिका निभाई थी. भारत-पाक संबंधों पर बनी कबीर खान की पिछली फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ में उस ने भाईचारे का संदेश दिया था. हालांकि अतार्किक बातें उस फिल्म में भी थीं, फिर भी ‘बजरंगी भाईजान’ हृदयस्पर्शी थी. मगर इस फिल्म में इमोशंस नाम की कोई चीज ही नहीं है. फिल्म की कहानी एकदम सपाट है. कहानी तेज रफ्तार में शिकागो से शुरू होती है. तेज रफ्तार में गाड़ी चलाने और एक आदमी को कुचल देने के अपराध में एक भारतीय युवक दानियाल खान (सैफ अली खान) को उम्रकैद की सजा दी जाती है. किसी समय वह भारतीय सेना में था. उसे जेल में डाल देना मात्र दिखावा था. दरअसल, उसे एक मिशन को अंजाम देना है. भारत में रा के प्रमुख राम (सब्यसाची चक्रवर्ती) और उन के साथी सुमित मिश्रा (जीशान अयूब) ने दानियाल खान के लिए ऐसा मिशन तैयार किया जिस से वह 26/11 हमले के अपराधियों को सजा दे सके. मिशन के तहत दानियाल खान पहले लंदन पहुंचता है जहां उस की मुलाकात मिस्त्री (कैटरीना कैफ) से होती है. मिस्त्री दानियाल खान की मदद करती है. दानियाल खान मुंबई हमले के हमलावरों को ट्रेनिंग देने वाले साजिद मीर (मीर सरवर) और शिकागो की जेल में बंद हेडली की पहचान कर उन्हें मार डालता है. फिर अपने मिशन को पूरा करने के लिए सीरिया होते हुए पाकिस्तान पहुंच कर मुंबई हमले के दोषियों को ठिकाने लगाता है.
फिल्म की यह कहानी बहुत तेज गति से दौड़ती प्रतीत होती है. क्लाइमैक्स बेवजह लंबा खींचा गया है. क्लाइमैक्स में पानी में डूबतेउतराते सैफ अली खान को गोली लगना और उस का मर जाना कुछ अटपटा सा लगता है. सैफ अली खान पूरी फिल्म में छाया हुआ है. उस ने जम कर ऐक्शन सीन किए हैं. कैटरीना कैफ ने कुछ ऐक्शन सीन किए हैं. सब से बढि़या काम मोहम्मद जीशान अयूब का है. फिल्म का गीतसंगीत नजरअंदाज करने जैसा है. एक गीत ‘अफगान जलेबी’ अच्छा बन पड़ा है. फिल्म का छायांकन अच्छा है.
*
वेलकम बैक
इस फिल्म की रिलीज से पहले अनिल कपूर टीवी चैनलों पर कहते फिर रहे थे कि भैया, इस फिल्म को देखने आना तो दिमाग को घर पर रख कर आना. फिल्म देख कर लगा, वे सही कह रहे थे, अगर दिमाग होगा तो दर्शक सोचेंगे, यह क्या और क्यों हो रहा है. दरअसल वेलकम बैक एक नौनसैंस कौमेडी है. ‘वेलकम बैक’ 8 साल पहले आई ‘वेलकम’ की सीक्वल है. सीक्वल फिल्म वह होती है जिस की कहानी वहां से शुरू हो कर आगे बढ़े जहां पहली फिल्म की कहानी खत्म हुई थी. पिछली फिल्म में उदय (नाना पाटेकर) और मजनू (अनिल कपूर) गुंडागर्दी छोड़ कर शरीफ बन गए थे. ‘वेलकम बैक’ यहीं से शुरू होती है. अब ये दोनों गुंडे शरीफ आदमी बन चुके हैं. छोटेछोटे अपराधी भी इन से हफ्ता वसूली करने लगे हैं. अब दोनों को लगने लगता है कि उन्हें शादी कर लेनी चाहिए. तभी उन की मुलाकात राजकुमारी औफ नजफगढ़ (अंकिता श्रीवास्तव) से होती है, जो महारानी औफ नजफगढ़ (डिंपल कापडि़या) की बेटी है. दोनों अपनेअपने तरीके से राजकुमारी को पटाने में लग जाते हैं. तभी एक दिन उदय का पिता आ जाता है. उस के साथ उदय की बहन रंजना (श्रुति हसन) होती है. अब उदय और मजनू को रंजना की शादी करनी है. दोनों उस के लिए लड़का ढूंढ़ते हैं उन्हें डा. घुंघरू (परेश रावल) का बेटा अज्जू (जौन अब्राहम) मिल जाता है. अज्जू छंटा हुआ बदमाश है. यह राज रंजना और अज्जू की सगाई वाले दिन खुलता है.
उधर एक डौन वांटेड (नसीरुद्दीन शाह) का नशेड़ी बेटा सनी (शाइनी आहूजा) का दिल रंजना पर आ जाता है. अब उदय और मजनू की मुसीबत बढ़ जाती है लेकिन अज्जू ऐसा चक्कर चलाता है, जिस से रंजना उस की झोली में आ गिरती है. वांटेड और सनी ताकते रह जाते हैं. महारानी और राजकुमारी की पोलपट्टी खुल जाती है. पिछली फिल्म ‘वेलकम’ भी अनीस बज्मी ने ही निर्देशित की थी. इस बार उस ने आधा दर्जन कलाकारों को साथ ले कर कहानी तो ठीकठाक ली है मगर पटकथा लिखवाते समय वह गच्चा खा गया है. फिल्म के कलाकारों के रोल ढंग से नहीं गढ़े गए हैं. अंकिता श्रीवास्तव को लेना निर्देशक की सब से बड़ी भूल रही है. यही हाल श्रुति हसन का भी है. डिंपल कापडि़या को यह क्या हो गया है कि उस ने इतना घटिया रोल स्वीकार कर लिया. जौन अब्राहम को हीरो बनाना ही नहीं चाहिए था. शाइनी आहूजा के लिए तो यही कह सकते हैं कि भैया, ऐक्ंिटग- वैक्ंिटग छोड़ो और जेल की रोटियां तोड़ो. अंधे डौन की भूमिका में नसीरुद्दीन शाह ने सिर्फ प्रभावित किया है. फिल्म का निर्देशन सामान्य है. अनीस बज्मी ने अपनी स्टाइल को ही दोहराया है. फिल्म का गीतसंगीत याद रखने लायक नहीं है. एक गीत ‘मैं हूं सोडा तूफानी…मैं हूं तीखी कचौड़ी…’ काफी चीप लगता है. छायांकन बहुत बढि़या है. दुबई की खूबसूरती को दिखाया गया है. छायाकार की तारीफ करनी होगी. फिल्म का क्लाइमैक्स काफी लंबा है. क्लाइमैक्स में रेगिस्तान में धूल का अंधड़ देखने लायक है.
*
कौन कितने पानी में
ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने हमेशा दलितों पर अत्याचार किए हैं. यह हम नहीं कह रहे, हमारे धर्मग्रंथों और वेदों में ऐसा लिखा है. महाराज मनु का यह विधान था कि अगर शूद्र ईशस्तुति सुन ले तो उस के कानों में पिघला सीसा उड़ेल देना चाहिए. गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा था, ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी. ये सब ताड़न के अधिकारी.’ अर्थात शूद्रों को ताड़ना देनी चाहिए. इसीलिए तो सदियों से हमारे राजामहाराजा, मंदिरों के धर्माधिकारी अछूतों पर अत्याचार करते आ रहे हैं.
फिल्म ‘कौन कितने पानी में’ में सवर्णों और अछूतों की लड़ाई को दिखाया गया है. कहानी ओडिशा के एक गांव की है. गांव का विभाजन जाति के आधार पर किया गया है. गांव का ऊपरी हिस्सा राजा ब्रह्मकिशोर सिंह देव (सौरभ शुक्ला) को मिला है और नीचे का हिस्सा अछूतों को मिला हुआ है. राजा साहब ने अछूतों की बस्ती और अपनी जमीन के बीच एक ऊंची दीवार बनवा रखी है. राजा साहब का इकलौता बेटा राज सिंह देव (कुणाल कपूर) जब गांव लौटता है तो पाता है वहां पानी की काफी किल्लत है. पानी वहां करैंसी की तरह है. खुद राजा साहब पानी पीने को तरस रहे हैं जबकि अछूतों की बस्ती में खूब पानी है. चारों ओर खुशहाली है. अछूतों का सरदार खारू पहलवान (गुलशन ग्रोवर) अपनी बेटी पारो (राधिका आप्टे) के साथ उस बस्ती में रहता है. राज सिंह देव अपने पिता का घर छोड़ कर खारू की बस्ती में चला जाता है और खारू पहलवान की नौकरी करने लगता है. वहीं उसे पारो से प्यार हो जाता है. जब यह बात राजा साहब के गांव वालों को पता चलती है तो लोग उस की जान लेने को तैयार हो जाते हैं. दूसरी ओर खारू पहलवान की बस्ती के लोग भी उस प्रेमी युगल को मारने के लिए दौड़ पड़ते हैं. तभी गांव के मंदिर का पुजारी बिहायी माता की आवाज में भविष्यवाणी करता है और दोनों गांवों के लोगों की तलवारें रुक जाती हैं. दोनों गांवों के लोग वर्णभेद भुला कर एक हो जाते हैं. फिल्म का विषय तो काफी अच्छा है लेकिन पटकथा काफी कमजोर है.
फिल्म की कहानी में वोट की राजनीति, जातिवाद और लवस्टोरी को बेवजह ठूंसा गया लगता है. राजा साहब की भूमिका में सौरभ शुक्ला ने दर्शकों को बांधे रखा है. राधिका आप्टे इस बार ‘मांझी’ की फगुनिया से एकदम अलग अंदाज में है. गुलशन ग्रोवर भी जमा है. फिल्म का छायांकन अच्छा है.
*
बांके की क्रेजी बरात
यह कौमेडी फिल्म प्रौक्सी मैरिज यानी छद्म शादी पर बेस्ड है. छद्म शादी का चलन उत्तर प्रदेश और बिहार में है. इस शादी में शादी की रस्में निभाने के लिए किराए का दूल्हा लाया जाता है, खासकर उस वक्त जब असली दूल्हा कुरूप हो या उस की जन्मकुंडली में कोई दोष हो. फिल्म ‘बांके की क्रेजी बरात’ ऐसी ही एक छद्म शादी की बात करती है. कहानी हिमाचल प्रदेश की है, जहां कामदेव का भक्त बांकेलाल (राजपाल यादव) अपने पिता (राकेश बेदी) और चाचा कन्हैया लाल (संजय मिश्रा) के साथ रहता है. बांके की कुंडली में दोष है, इसलिए उस की शादी नहीं हो पा रही. इस के लिए घर वाले एक उपाय ढूंढ़ते हैं कि बांके की छद्म शादी कराई जाए. रस्में कोई और करे और दुलहन वह बांके को दे दे. इस काम के लिए एक नकली दूल्हे को ढूंढ़ा जाता है. ऐन मौके पर वह नकली दूल्हा गायब हो जाता है. तभी बस के मालिक के बेटे विराट (सत्यजीत दुबे) को बांके बना कर अंजलि (रिया वाजपेयी) से शादी करने के लिए राजी करना पड़ता है. विराट और अंजलि की शादी हो जाती है तो कन्हैया विराट से अंजलि को छोड़ कर जाने को कहता है. तभी अंजलि एक प्लान बनाती है और वह भाग कर विराट के साथ चली जाती है. बांके कुंआरा का कुंआरा रह जाता है.
फिल्म की कहानी और पटकथा काफी कमजोर है. कई मौकों पर हंसी तो आती है लेकिन शीघ्र ही वह फुर्र भी हो जाती है. संजय मिश्रा और विजय राज दर्शकों को बांधे रखते हैं. राजपाल यादव ने तो बंदरों की तरह उछलकूद ही की है. दूल्हादुलहन की भूमिका में सत्यजीत दुबे और रिया वाजपेयी प्रभावित करते हैं. फिल्म में साफसुथरी कौमेडी जरूर है मगर इस में ‘बौंबे टू गोआ’, ‘चला मुसद्दी औफिस औफिस’ सरीखी कौमेडी नहीं है. फिल्म का गीतसंगीत काफी कमजोर है. सिर्फ ‘मेहंदी’ सौंग अच्छा है. छायांकन अच्छा है.