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आशुतोष महाराज समाधि और संपत्ति पर विवाद

हिंदुओं के तथाकथित धर्मगुरु आशुतोष महाराज वैज्ञानिकों की नजर में मृत हैं जबकि अंधभक्तों को समाधि में नजर आ रहे हैं. दरअसल, ड्रामा अरबों रुपए की संपत्ति का है. आशुतोष महाराज ने धर्म की जिस दुकान के जरिए करोड़ों जमा किए, आज उन्हीं करोड़ों पर संग्राम छिड़ा है. दुनियाभर को त्याग का पाठ पढ़ाने वाले इन धर्मगुरुओं का बुरा हश्र संपत्ति विवाद को ले कर ही क्यों होता है, पड़ताल कर रहे हैं जगदीश.
 
धार्मिक ड्रामों के लिए भी पहचाने जाने वाले इस देश में इन दिनों भक्तों को एक और ड्रामा मुग्ध कर रहा है.  इस बार ड्रामे की कड़ी में एक मृत बाबा को अंधविश्वास ने जिंदा कर रखा है. डाक्टरों द्वारा मृत घोषित आशुतोष महाराज को ‘समाधि’ में बताने वाला एपिसोड आस्थावानों को चमत्कृत कर रहा है. हजारों शिष्य समाधि पर भरोसा कर रहे हैं. भक्तों का विश्वास तो देखिए, कहते हैं कि महाराज पहले भी कईकई दिनों तक समाधि में चले जाते थे. इस बार भी लौट आएंगे. 
पिछले दिनों उन्नाव के साधु को सपने में दिखे ‘सोने के खजाने’ के ड्रामे का अभी पटाक्षेप भी नहीं हो पाया था, सपने में दिखे ‘खजाने’ को सरकार, अन्य दावेदार और भक्त बटोर ही नहीं पाए थे कि अब समाधि के चमत्कार के साथ संत की संपत्ति के बंटाईदार सामने आ गए हैं. 
आश्रम प्रबंधकों के अलावा आशुतोष महाराज के वारिस भी दौलत में हिस्से की मांग कर रहे हैं. बिहार के मधुबनी जिले के दिलीप कुमार ने खुद को आशुतोष महाराज का बेटा होने का दावा किया और अपने पिता की 1 हजार करोड़ रुपए की संपत्ति में से हिस्से की मांग करते हुए अनशन पर बैठ गया. 
पंजाब में जालंधर के नूरमहल में हिंदुओं के धार्मिक गुरु आशुतोष महाराज डाक्टरों द्वारा मृत घोषित किए जा चुके हैं पर आश्रम प्रबंधक और शिष्य हैं कि मानने को तैयार नहीं. शिष्यों का कहना है कि महाराज समाधि में हैं. आश्रम के लोगों का भी दावा है कि आशुतोष महाराज योग की अंतिम अवस्था में हैं पर आश्रम के पास जमा अथाह संपत्ति को ले कर उंगलियां उठ रही हैं. 
3 फरवरी को आश्रम के एक पूर्व कर्मचारी पूर्णसिंह ने पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर आशुतोष महाराज को मुक्त कराने की मांग की थी. याचिका में कहा गया था कि डेरा प्रबंधक द्वारा आशुतोष महाराज को अवैध, गैरकानूनी और बलपूर्वक तरीके से बंधक बना कर रखा गया है क्योंकि आश्रम प्रबंधक संपत्ति और उत्तराधिकार का हस्तांतरण कराना चाहता है. लिहाजा, एक वारंट अधिकारी नियुक्त किया जाए और आश्रम में छापा मार कर महाराज को मुक्त कराया जाए.
अदालत ने याचिका पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकार से आशुतोष महाराज के बारे में स्टेटस रिपोर्ट पेश करने का आदेश दिया. इस पर 5 फरवरी को जालंधर रेंज के डीआईजी, एसएसपी और एसडीएम की टीम आश्रम हैडक्वार्टर गई. आश्रम के अधिकारियों से बातचीत की पर उन्होंने तथाकथित समाधि में लीन आशुतोष महाराज को दिखाने से इनकार कर दिया.
बाद में आश्रम प्रबंधन को समझाबुझा कर डाक्टरों की एक टीम द्वारा आशुतोष महाराज के स्वास्थ्य की जांच की गई. जांच  रिपोर्ट में डाक्टरों ने स्पष्ट कहा कि वे ‘क्लिनिकली’ डैड हैं. उन की हृदय की धड़कन बंद है, नब्ज काम नहीं कर रही और मस्तिष्क डैड हो चुका है. यह रिपोर्ट सरकार को दे दी गई. सरकार ने महाराज का अंतिम संस्कार कराने के सवाल पर यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि धार्मिक रीतिरिवाज के मामले में वह हस्तक्षेप नहीं करना चाहती.
विशाल व भव्य आश्रम
पंजाब के जालंधर से 33 किलोमीटर दूर नूरमहल कसबा आम दिनों की तरह अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या में व्यस्त था. करीब 10 हजार की आबादी वाले कसबे की सड़क के किनारे बिजली के खंभों पर लगे आशुतोष महाराज की फोटो और सीख वाले वाक्यों से भरे होर्डिंग्स लोगों का ध्यान बरबस ही आकर्षित करते हैं.                                                                                       
कसबे के उत्तरपूर्व में स्थित आशुतोष महाराज के विशाल आश्रम में आम दिनों की तरह चहलपहल थी. शाम के 7 बज चुके थे. भक्त आजा रहे थे. करीब 600 एकड़ में फैले विशाल आश्रम में चमचमाती गाडि़यों की लाइनें लगी हुई थी. नकोदरलुधियाना मार्ग पर डेरे में प्रवेश से पहले पुलिस सुरक्षा का बंदोबस्त था. आनेजाने वाले भक्तों के लिए कोई रोकटोक नहीं थी. आशुतोष महाराज के कुछ भगवा वस्त्रधारी शिष्य और स्वयंसेवक डेरे में इधरउधर घूम रहे थे. आश्रम में बाहर से आए भक्त खुश थे कि महाराज समाधि में हैं. फगवाड़ा से अपनी पत्नी के साथ आया हरजिंदर सिंह गर्व से बताता है कि गुरुजी 10 दिन से समाधि में हैं. वह बिलकुल मानने को तैयार नहीं कि उस का गुरु अब इस दुनिया में नहीं रहा. गुरुजी पहले भी लंबे समय तक समाधि में बैठ जाते थे.
लगभग 3 हजार वर्गगज में निर्मित सफेद भव्य आश्रम किसी महल जैसी झलक देता दिखाई पड़ता है. आश्रम में आने वाले भक्तों के लिए रहने, खानेपीने का पूरा इंतजाम है लेकिन भक्तों को महाराज आशुतोष के दर्शन नहीं कराए जा रहे हैं. इस का उन पर कोई खास असर नजर नहीं आता. अवतार सिंह कहता है, ‘‘दर्शन बड़ी बात नहीं है. आश्रम में आने मात्र से ही गुरुजी का आशीर्वाद प्राप्त हो जाता है और शरीर शुद्ध व आत्मा पवित्र हो जाती है.’’
मृत या जीवित
यहां के बाशिंदे दबी जबान में कहते हैं कि 29 जनवरी को छाती में दर्द की वजह से आशुतोष महाराज की मृत्यु हो गई थी. वे काफी दिनों से बीमार चल रहे थे. उन की मृत्यु की खबर जब डेरे से बाहर आई तो उन के अनुयायी इकट्ठा होने लगे लेकिन आश्रम प्रबंधन द्वारा कह दिया गया कि महाराज समाधि में चले गए हैं.
आश्रम प्रबंधन आशुतोष महाराज को मृत मानने को तैयार नहीं है. आश्रम का रोजमर्रा का कामकाज बदस्तूर जारी है. आश्रम की सुरक्षा चाकचौबंद कर दी गई. महाराज के ऊंचे राजनीतिक रसूख के चलते पुलिस सुरक्षा पहले से ही थी और जनता का आवागमन बढ़ने से और बढ़ा दी गई.
आश्रम की कोई खबर बाहर न जा पाए, इस के लिए आश्रम प्रबंधन ने मीडिया के अंदर प्रवेश पर रोक लगा दी. मीडिया के लिए आश्रम से बाहर ही टैंट लगा कर 3-4 लोग तैनात कर दिए गए पर उन के पास कोई जानकारी नहीं होती. प्रबंधन बात नहीं करना चाहता. आश्रम में मौजूद स्वामी विश्वदेवानंद से जब जानकारी मांगी गई तो उन्होंने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया. वे सिर्फ इतना कहते हैं कि महाराज योग की अंतिम अवस्था में हैं जहां शरीर की संपूर्ण क्रियाएं रुक जाती हैं. 
आश्रम के भीतर कोई जानकारी नहीं दी जाती. बाहर कसबे के कुछ लोग प्रबंधन से नाराजगी जताते देखे गए पर ज्यादातर लोग आश्रम के पक्ष में खड़े दिखते हैं. यहां के एक स्थानीय नेता तीर्थराम संधु ने समाधि को ले कर एक लिखित बयान जारी कर कहा था कि महाराज अपनी समाधि से वापस लौट आएंगे. लोगों का इस में विश्वास है.
खेल संपत्ति का
स्वयं को आश्रम से जुड़ा बताने वाले मोहिंदर सिंह ने अदालत में याचिका दे कर कहा है कि डेरे की संपत्ति 1 हजार करोड़ रुपए की है. 300 करोड़ रुपए की संपत्ति तो संस्थान में ही मौजूद है. महाराज का शव फ्रीजर में इसलिए रखा गया है ताकि इस संपत्ति को प्रबंधक हथिया सकें.
उत्तराधिकार को ले कर आश्रम में कुछ गुट बने हुए हैं. एक गुट अमरजीत सिंह उर्फ अरविंदानंद का है जो आशुतोष महाराज के पुराने शिष्य हैं. यहां के लोकल शिष्य आशुतोष महाराज के बाद अरविंदानंद को गद्दी सौंपना चाहते हैं लेकिन दूसरी ओर संस्थान की गवर्निंग बौडी की अगुआई करने वाले आदित्यानंद, नरेंद्रानंद को उत्तराधिकारी बनाना चाहते हैं, जबकि अन्य गुट सुविधानंद उर्फ सोनी को उत्तराधिकारी बनाना चाहते हैं.
इसी बीच, बिहार के मधुबनी जिले के लखनौर गांव से आशुतोष महाराज का परिवार सामने आया और संपत्ति पर अपनी हिस्सेदारी जता रहा है. खुद को आशुतोष महाराज का बेटा होने का दावा करने वाला दिलीप कुमार पंजाब सरकार से अपने पिता का शव उन्हें सौंपे जाने की मांग के साथसाथ उन की संपत्ति पर भी अपना हक जताते हुए अनशन पर बैठ गया था. 2 दिन बाद बिहार भाजपा के नेता सुशील कुमार मोदी ने दिलीप कुमार के घर जा कर अनशन तुड़वाया और शव दिलवाने के लिए आश्वासन दिया.
प्रचारप्रसार
असल में पंजाब में आतंकवाद के दौर में यानी वर्ष 1983 में आशुतोष ने दिव्य ज्योति जागृति संस्थान की स्थापना की थी. बलवंत सिंह नाम के एक एनआरआई ने नूरमहल में संस्था स्थापित करने में मदद की. वह नूरमहल से पंजाब में शांति के नाम पर ‘ब्रह्मज्ञान’ बांटने लगे. प्रवचनों के बाद धीरेधीरे देशभर में उन के लाखों शिष्य बन गए. नूरमहल के अलावा दिल्ली, राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में आश्रम बना दिए गए. महाराज के प्रवचनों का कारोबार चल पड़ा. महाराज के प्रवचनों की कैसेट्स, डीवीडी, पुस्तकें, सीडी, पत्रिका आदि का अच्छाखासा बाजार बन गया.
देशविदेश में आशुतोष महाराज के तकरीबन 110 आश्रम और केंद्र हैं. इन में वौलिंटियर्स बड़ी संख्या में हैं. इन की तादाद 2 लाख से ऊपर बताई जाती है. इन के अलावा लगभग 2 हजार पूर्णकालिक प्रवचक हैं जो शहरों, कसबों में दिव्य ज्योति जागृति संस्थान और आशुतोष महाराज के प्रचार के साथसाथ प्रवचन देते हैं. देशविदेश में उन के लाखों अनुयायी हैं.

वोटबैंक
कहा जाता है कि पंजाब के राजनीतिक दलों के लिए सत्ता का रास्ता यहां के डेरों और बाबाओं के चरणों से हो कर निकलता है. लिहाजा, डेरा सच्चा सौदा की तरह वर्ष 2000 से नूरमहल का दिव्य ज्योति जागृति संस्थान सक्रिय राजनीतिक  गतिविधियों का केंद्र बनने लगा. राजनीतिक पार्टियों को दिव्य ज्योति जागृति संस्थान और आशुतोष महाराज एक बहुत बड़े वोटबैंक के मालिक नजर आने लगे. यहां सभी दलों के बड़ेबड़े नेता आने लगे थे. पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री आई के गुजराल, शिरोमणि अकाली दल नेता सुखदेव सिंह ढींढसा और सुखवीर सिंह बादल नूरमहल डेरे के अनुयायियों में शामिल हो गए. 
डेरे और बाबा अपने भक्तों को खास राजनीतिक दलों और नेताओं के पक्ष में फतवे देने लगे. इसीलिए चुनावों के आने से पहले राजनीतिबाजों द्वारा डेरों की परिक्रमा बढ़ जाती है. इसी मध्य, एक बार जब आशुतोष महाराज की अकाली दल नेताओं से नजदीकी बढ़ती देखी तो पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने उन की धार्मिक गतिविधियों पर रोक लगा दी थी. बाद में प्रकाश सिंह बादल सरकार आई तो उस ने प्रतिबंध हटा दिया.
महाराज के प्रतिद्वंद्वी
इस दौरान, आशुतोष महाराज के मजहबी प्रतिद्वंद्वी पंथ भी सामने आ गए. उन्हें बाहरी मान कर पंजाब के अन्य धर्मगुरु विरोध करने लगे. उन का धर्र्म प्रचार पंजाब के कुछ लोगों को रास नहीं आया. सिख पंथ ने समयसमय पर उन के धार्मिक समागम का विरोध किया. 
पहली बार वर्ष 1998 में अमृतसर में खंडूर साहिब में स्थानीय सिखों ने उन के सत्संग की इजाजत नहीं दी. वर्ष 2002 में सिखों ने दिव्य ज्योति जागृति संस्थान के एक प्रवाचक के खिलाफ प्रदर्शन किया और उस पर हमला कर दिया. उस पर आरोप था कि वह सिख पंथ का अपमान करता था.
उसी साल तरनतारण में हिंसा हुई और उन के अनुयायियों को निशाना बनाया गया. एक व्यक्ति की मौत भी हो गई थी. वर्ष 2008 में भी मलोट के सेवा सदन भवन में आशुतोष महाराज का रामकथा आयोजन के वक्त स्थानीय सिखों ने भारी विरोध किया. भारी संख्या में पुलिस बल तैनात करना पड़ा. महाराज के शिष्यों और सिखों की भिडं़त हुई जिस में पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी. फायरिंग में 15 लोग घायल हो गए थे. 
वर्ष 2009 में लुधियाना में भी सिख प्रदर्शनकारियों ने महाराज की संगत का विरोध किया. पुलिस बल तैनात हुआ. पुलिस को गोलियां चलानी पड़ीं. दर्जनों वाहन फूंक दिए गए, एक दर्जन से ज्यादा लोग घायल हुए. विरोध ‘दल खालसा’ ने किया था.
आशुतोष महाराज के ढोंग का पूरे पंजाब में कट्टर सिख संगठनों द्वारा विरोध किया गया. जगहजगह उन के समागमों की खिलाफत की गई. आरोप लगे कि वे सिख पंथ की बुराई करते थे. लिहाजा, वर्ष 2005 में 100 सिख संगठनों ने अकाल तख्त पर इकट्ठा हो कर पंजाब में बढ़ रहे डेरों की जांच का रास्ता निकालने की बात कही लेकिन एकजुटता की कमी के कारण बात आगे नहीं बढ़ पाई. उन के जालंधर, लुधियाना, पटियाला, फिरोजपुर, अमृतसर और नवांशहर जिलों में डेरे हैं.
सिख पंथ द्वारा समयसमय पर आशुतोष महाराज पर आरोप लगाए जाते रहे हैं कि वे सिखों की धार्मिक पुस्तक का सम्मान नहीं करते. इस पुस्तक को अन्य पुस्तक के साथ रखा और पढ़ा जाता है. बिना हाथ धोए इसे छूने दिया जाता है. ऐसे ही विवाद दलितों के गुरुद्वारों पर भी लगते रहे हैं. आशुतोष महाराज को मिली ‘जैड प्लस’ सुरक्षा का भी सिख समुदाय द्वारा विरोध किया गया.
आशुतोष महाराज के साथ पंजाब के हिंदुओं के साथसाथ सिख भी जुड़े हुए थे. कहा जाता है कि दिव्य ज्योति जागृति संस्थान को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन मिलता रहा है.
डेरों का द्वंद्व
पंजाब में जातियों, वर्गों के आधार पर अलगअलग डेरे हैं, अलगअलग गुरु हैं. यहां हर गांव में 2 गुरुद्वारे हैं. एक ऊंची जातियों का, दूसरा निचली जातियों का. यहां दलित रविदासी समुदाय के गुरुद्वारे पिछले समय में बड़ी संख्या में खड़े हो गए. इन के बीच आएदिन झगड़े, विवाद की खबरें आती रहती हैं.
पंजाब के डेरों पर किसानों की बेशकीमती जमीनें हथियाने के आरोप भी लगते रहते हैं. राज्य के कई एनआरआईज ने खासतौर से दलित समुदाय के लोगों ने पैसा कमाने के बाद अपनेअपने गांव, कसबे, शहर में दलितों के लिए गुरुद्वारे बनाने में खूब रुचि दिखाई और गुरुद्वारों के निर्माण में लाखों, करोड़ों रुपए खर्च किए. विदेशों में रहने वाले कुछ लोगों ने तो अपनी कीमती खेती की जमीन बाबाओं और डेरों को मुफ्त में दान कर दी.
महेश से महाराज
आशुतोष का असली नाम महेश कुमार झा था. वह बिहार के मधुबनी जिले के लखनौर गांव का था. वर्ष 1973 में उस ने परिवार को त्याग दिया था. उस समय उस का बेटा मात्र 1 साल का था. वह अंगरेजी में स्नातक था और आगे पढ़ने के लिए दिल्ली आ गया लेकिन यहां दिल्ली मानव धर्म संस्था में नौकरी करने लगा. कहा जाता है कि यहां से उसे अनैतिक गतिविधियों के कारण निकाल दिया गया.
इस के बाद उस ने दिल्ली छोड़ दी और पहले पटियाला फिर नूरमहल आ गया. यहां उस ने देखा, धर्मगुरु बन कर धर्मांध लोगों को गुरु, ईश्वर और ‘बह्मज्ञान’ पर प्रवचन बेचना फायदे का सौदा हो सकता है. उस ने भगवा बाना धारण कर लिया और अब उस का महेश कुमार झा से आशुतोष महाराज के रूप में नया अवतरण हो गया. धीरेधीरे उस ने खुद को गुरुओं का अवतार बता कर अपने चेले मूंडने शुरू कर दिए.
इर्दगिर्द कुछ एजेंट रख लिए जो महाराज के झूठे, गढ़े गए चमत्कारों की कथा लोगों को सुना कर डेरे की ओर खींचने की कोशिश करने लगे. हर धर्मगुरु के पास ऐसे पेशेवर वेतनभोगी दलाल हैं जो गुरु को परमात्मा का स्वरूप, प्रिय देवदूत, पैगंबर, अवतार सिद्ध करने में सिद्धहस्त हैं. आशुतोष महाराज के एजेंटों ने भी यही फंडा अपनाया. एजेंटों ने नए भक्तों को निशाना बनाया. दावा किया गया कि आशुतोष महाराज के सत्संग में शामिल हों, वहां साक्षात, सशरीर भगवान के दर्शन कर सकते हैं. उच्च स्तर के आध्यात्मिक अनुभव करेंगे. 
लिहाजा, दुख के मारे लोग उन्हें साक्षात गुरु, अवतार मान कर पूजने लगे. भक्तों की तादाद बढ़ने लगी. अब वह प्रवचन देने गांव, कसबे, शहरों में जाने लगा. भीड़ जुटी यानी ग्राहक बनने लगे तो वे दूसरी दुकान पर न जाएं, इस के लिए उन्हें गुरुमंत्र दे कर फंसा लिया गया. महाराज की झोली में चढ़ावा आने लगा. 
महाराज के दलाल नए लोगों को आकर्षित करने के लिए अपने घरों में कार्यक्रम कराने लगे. इस का तमाम खर्च आश्रम उठाने लगा. कार्यक्रम में आशुतोष महाराज की तसवीर सब से ऊपर रखी जाती है. उसे गुरु का दरजा दिया जाता है. लोग सत्संग के बाद गुरु की तसवीर के आगे दानदक्षिणा चढ़ाते हैं. जो लोग 5-7 बार सत्संग में आ जाते हैं उन्हें मुख्य आश्रम में गुरुमंत्र लेने के लिए भेजा जाता है. मंत्र देने का अधिकार केवल आशुतोष महाराज को ही था. मंत्र लेने वालों से एक फौर्म भरवाया जाता है जिस में शिष्य की पूरी जानकारी होती है. बाद में आश्रम से ही 50 रुपए का प्रसाद दिया जाता है जो महाराज के चरणों में चढ़ाना होता है.
इस तरह नया चेला बनते ही 50 रुपए तो देने ही पड़ते हैं. बाद में हर कार्यक्रमों में भक्तों की जेबें खाली कराईर् जाती हैं.
महाराज के एजेंट उन के चमत्कारों की जो कथा सुनाते थे उन में एक यह कथा भी पंजाब में काफी चर्चित है कि एक बार किसी औरत का पति मर गया. वह दहाड़ें मारमार कर रो रही थी. तब किसी ने आशुतोष महाराज को बुलाने की बात कही. महाराज वहां पहुंचे और महिला के पति की मृतदेह पर उन के हाथ फेरते ही वह जिंदा हो गया.
इस से आगे का वाकया यह है कि महाराज का एजेंट एक अमृतधारी के पास गया और उसे उन का शिष्य बनाने की खातिर चमत्कार का यह किस्सा सुनाया तो उस अमृतधारी ने उठ कर एजेंट का गला  पकड़ लिया और दबाना शुरू कर दिया. एजेंट गिड़गिड़ाने लगा और अपने जीवन की भीख मांगने लगा. इस पर अमृतधारी बोला कि तुम मरने से डरते क्यों हो? तुम्हें तो तुम्हारे गुरु जिंदा कर ही देंगे. 
असल में चमत्कारों के किस्से धर्मगुरुओं की मार्केटिंग के तरीके होते हैं. नूरमहल में आप प्रवेश करेंगे और आश्रम की ओर बढें़गे तो रास्ते के किनारे आप को छोटेबड़े होर्डिंग्स दिखाई देंगे. अच्छीअच्छी सीख लिखे ये अनगिनत होर्डिंग्स लोगों को केवल धर्म की बढि़या बातें सिखाने के लिए नहीं, ये मार्केटिंग का एक कारगर फंडा हैं. 
यह टीम गुरुओं की करामाती लीला को अनंत और लाजवाब बता कर प्रचारप्रसार करती है. भक्तों की सुविधा का इतना खयाल रखा गया है कि  आश्रम परिसर में ही बैंक का एटीएम लगवा दिया गया ताकि भक्तगण गुरुजी और आश्रम को दान देने के लिए पैसे एटीएम से निकाल कर दे सकें.
लेकिन इन के चमत्कारों में ईश्वर, अवतार होने के दावों में पोल ही पोल होती है. दिक्कत यह है कि धर्म, गुरु, अवतार, ईश्वर के जो करिश्मे बताए जाते हैं उन का धर्मांध जनता तार्किक मंथन नहीं कर पाती और धर्म के इन धंधेबाजों के चंगुल में फंसती जाती है. अपना कीमती वक्त और धन इन पर बरबाद करती रहती है.
आशुतोष महाराज फोटो, इहलोक और परलोक सुधारने के मंत्र, यंत्र, तंत्र बेचने लगे. फिर एक समय आया कि वे विवादों में रहने लगे. अलगअलग पहनावे में दिखने लगे. तरहतरह की तसवीर भक्तों में बांटने लगे. किसी में पगड़ी पहने, किसी में खुले बाल, कहीं भगवा वस्त्रों में तो कहीं हरे कपड़े पहन कर मुसलमानों को लुभाने के लिए पीर बनने का ढोंग किया. उन्होंने खुद को सिख गुरु के अवतार के रूप में पेश किया. अपनी तसवीरों में गुरुवाणी की पंक्तियां प्रदर्शित कर वे हर जाति, धर्म, पंथ, वर्ग को रिझाने का प्रयास करते रहे.
संत और बाबाओं पर ऐयाशी के आरोप न लगें, यह तो हो ही नहीं सकता. आशुतोष महाराज पर भी आरोप लगते रहे हैं कि वे दूसरे संतों, बाबाओं की तरह धन और लड़कियों के शौकीन रहे हैं. यहां तक कहा जाता है कि वे अपने भक्तों से, खासतौर से सिख अनुयायियों से कहते थे कि वे अपनी जवान बेटियों को डेरों में दान दे दें.
अगर किसी गुरु, संत की छवि पर कोई लांछन लगता है तो उन के एजेंट उस कलंक को धोने और गुरु को फिर से शैतान से भगवान बना देने में इतने माहिर और सामर्थ्यवान होते हैं कि श्रद्धालुओं के विश्वास को कम होने नहीं देते. यही वजह है कि गुरुओं, संतों का आर्?िथक साम्राज्य इस देश में बढ़ता जा रहा है. अरबों की धनसंपदा बना कर वे ऐश करते हैं.
मजे की बात है कि धर्म मृत्यु को शाश्वत सत्य मानता है पर डाक्टरों द्वारा मृत घोषित आशुतोष महाराज के सत्य को आश्रम प्रबंधक स्वीकार नहीं करना चाहता. असल में अगर यह कह दिया जाए कि इस गुरु की मौत हार्टअटैक से हुई है तो यह आश्रम के लिए घाटे का सौदा साबित होगा क्योंकि धर्म, धर्मगुरुओं को तो सदैव अलौकिक, चमत्कारी करार दिया जाता रहा है. आम आदमी की तरह मरने की बात पर भला धर्म का धंधा कैसे चल सकता है. 
लिहाजा, शाश्वत मृत्यु को समाधि का नाम दे कर जनता को बेवकूफ बनाया जा रहा है. कोई भी संत जब तक जिंदा रहता है तब तक औरों को माया से दूर रहने का ज्ञान दे कर खुद खजाना भरने में लीन रहता है और मरने के बाद उस के भक्तों में उस धनदौलत के लिए जूतमपैजार होने लगती है. हैरानी यह है कि लुटेपिटे भक्तों को फिर भी समझ नहीं आती.           
 
 

सियासी मैदान में अनाड़ी बनते खिलाड़ी

चुनावी मौसम आते ही सभी राजनीतिक दल नामी चेहरों की तलाश में खेल के मैदान का रुख करने लगते हैं. लिहाजा खिलाडि़यों को टिकट मिल जाता है. लेकिन सत्ता की पिच पर इन का खेल कितना फ्लौप हो रहा है, बता रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.
मौजूदा चुनावी होहल्ले में एक अहम खबर सिमट कर रह गई थी कि फ्लाइंग सिख के नाम से मशहूर धावक मिल्खा सिंह को चंडीगढ़ सीट से लड़ने के लिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपनी तृणमूल कांग्रेस से टिकट देने की पेशकश की थी जिसे मिल्खा सिंह ने विनम्रता से नकारते हुए जवाब दिया था कि अगर उन्हें राजनीति में आना ही होता तो वे जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते ही आ गए होते. इस बाबत नेहरू ने भी उन्हें प्रस्ताव दिया था.
मिल्खा सिंह के जमाने यानी 60 के दशक से ले कर अब तक की राजनीति काफी बदल गई है पर खिलाडि़यों का राजनीति में आने का सिलसिला थम नहीं रहा है. सभी खिलाड़ी आमतौर पर मिल्खा सिंह की तरह और बड़ी पेशकश ठुकराते नहीं हैं उलटे उस का इंतजार और कभीकभी खुद भी पहल करते हैं. मिल्खा की मानें तो नेताओं की छवि ठीक नहीं है और जो मानसम्मान आज मुझे मिल रहा है वह राजनीति में आ कर नहीं मिलता.
इस का यह मतलब कतई नहीं कि राजनीति में दाखिले पर खिलाड़ी जगत में दो फाड़ हैं. राजनेताओं के बारे में मिल्खा सिंह की राय बेहद व्यक्तिगत ही कही जाएगी लेकिन यह जताने में वे कामयाब रहे कि खेल और राजनीति व खिलाडि़यों और नेताओं के गठजोड़ की बुनियाद खुदगर्जी पर टिकी है. उन के बहाने ममता बनर्जी की मंशा उत्तर भारत में अपनी पार्टी का खाता खोलने और एक ऐसा सांसद हथियाने की थी जिस की छवि आम सांसदों से हट कर है. यही नेहरू चाहते थे. खिलाडि़यों की लोकप्रियता का फायदा उठाने के कांग्रेसी संस्कार छूत की बीमारी की तरह सभी राजनीतिक दलों को लग गए हैं.
अब किसी खिलाड़ी को मानसम्मान, पूछपरख या स्वाभिमान की चिंता नहीं है. राजनीति और खिलाडि़यों से ताल्लुक रखता यह समीकरण भी दिलचस्प है और अहम भूमिका निभाता है कि क्रिकेट को छोड़ दूसरे खेलों में खिलाड़ी आमतौर पर 30 की उम्र के बाद रिटायर होना शुरू हो जाते हैं और उलट इस के अधिकांश नेता इस उम्र में आ कर पहचान बना पाते हैं.
करार या सौदा एकदम साफ है कि राजनीतिक दलों को खिलाड़ी के रूप में ऐसा उम्मीदवार मिल जाता है जिस की जीत की गारंटी हो न हो पर शोहरत की बिना पर संभावना ज्यादा रहती है.
दूसरी तरफ खाली बैठे खिलाडि़यों की खुदगर्जी यह रहती है कि उसे नाम के अलावा और भी बहुत कुछ मिलता रहता है जिस में सुर्खियों में बने रहना प्रमुख है. खेल संगठनों में पांव जमाने में भी राजनीति उन की मदद करती है.
भारत रत्न के खिताब से नवाजने से पहले क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर को सरकार ने राज्यसभा के लिए नामांकित किया था पर सचिन 2 दफा ही संसद तक गए और सांसदों से घिरे रहे. कई सांसद तो आम लोगों की तरह उन के औटोग्राफ लेने टूट पड़े.
अगर महज घूमनेफिरने या दर्शन देने ही सचिन जैसे खिलाड़ी संसद जाते हैं तो उन्हें सांसद बनाने का क्या लाभ? बात समझ से परे है कि यह सरकारों की खुदगर्जी और चालाकी है जो भारत रत्न जैसे खिताब भी खैरात की तरह बांटती है. सचिन के पहले एनडीए सरकार ने भी मशहूर पहलवान दारासिंह को राज्यसभा में लिया था दारासिंह भी न के बराबर गए.
इस दफा के महारथी
कलाकारों, फिल्मकारों और पत्रकारों को थोक में संसद तक पहुंचाने वाली ममता बनर्जी को भले ही मिल्खा सिंह ने निराश किया हो पर मशहूर फुटबौलर बाईचुंग भूटिया को घेरने में वे कामयाब रहीं, जो इस चुनाव में पश्चिम बंगाल की दार्जिलिंग सीट से टीएमसी के उम्मीदवार हैं.
बाईचुंग भूटिया भी राजनीति में आए दूसरे खिलाडि़यों की तरह सियासी दांवपेंच में बहुत ज्यादा माहिर नहीं हैं लेकिन सीख रहे हैं इसलिए टिकट के ऐलान के तुरंत बाद उन्होंने गोरखा जनमुक्ति मोरचा (जीजेएम) के मुखिया बिमल गुरुंग से मिल कर समर्थन मांगा पर बिमल गुरुंग ने उन्हें टरका दिया.
दरअसल, दार्जिलिंग के समीकरण क्षेत्रीय और जातिगत हैं. जीजेएम का दबदबा यहां है जो भारतीय जनता पार्टी से गठजोड़ कर टीएमटी को पांव नहीं जमाने देना चाहती.
पहली बार में ही बाईचुंग भूटिया को कड़ी टक्कर भाजपा के एसएस अहलूवालिया, कांग्रेस के सुजाय घटक और सीपीएम के समन पाठक से मिलना तय है. उन के लिए इकलौती सुकून देने वाली बात सत्तारूढ़ सीएमसी की मुखिया ममता बनर्जी का सहारा और कांग्रेस का खत्म होता दबदबा है. वैसे भाजपा ने मशहूर गायक बप्पी लाहिड़ी को भी पश्चिम बंगाल की श्रीरामपुर लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाया गया है.
कांग्रेस ने इलाहाबाद की फूलपुर सीट से क्रिकेटर मोहम्मद कैफ को मैदान में उतार कर मुकाबला न केवल दिलचस्प बल्कि कड़ा बनाने में भी कामयाबी पा ली है. फूलपुर सीट जानी इसलिए जाती है कि यहां से जवाहरलाल नेहरू ने अपना पहला चुनाव लड़ा था और 1961 में राम मनोहर लोहिया को लगभग 66 हजार वोटों से हराया था, लेकिन 1984 के बाद से कांग्रेस यहां से जीत के लिए तरस भी रही है. कैफ स्थानीय प्रत्याशी हैं और कांग्रेस को अल्पसंख्यक वोट मिलने की उम्मीद उन के नाम पर है. सपा और बसपा का भी खासा प्रभाव इस सीट पर है और भाजपा भी बराबरी से दौड़ में है.
भूटिया की तरह कैफ भी चतुष्कोणीय कड़े मुकाबले में हैं. उन्हें भी इकलौता फायदा खिलाड़ी और उस में भी खासतौर से क्रिकेटर होने का मिल रहा है. देखना दिलचस्प होगा कि भीड़ को वे वोटों में तब्दील कर पाते हैं या नहीं.
इन दोनों की तरह हौकी के मशहूर खिलाड़ी आदिवासी समुदाय के दिलीप तिर्की की राह भी आसान नहीं है जिन्हें बीजू जनता दल के मुखिया और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने सुंदरगढ़ सीट से उम्मीदवार बनाया है. इस के पहले उन्हें बीजद ने मार्च 2011 में राज्यसभा में लिया था. मूलरूप से आदिवासी दिलीप तिर्की इस इलाके के 60 फीसदी आदिवासियों की तरह धर्म बदल कर ईसाई बन गए थे. भारतीय हौकी टीम के 7 साल तक कप्तान रहे दिलीप की प्रतिबद्धता हमेशा ही आदिवासी समुदाय के साथ रही है.
ममता बनर्जी और राहुल गांधी की तरह नवीन पटनायक की मंशा भी एक खिलाड़ी को खड़ा कर सीट हथियाने की है. पद्म, एकलव्य और अर्जुन पुरस्कार विजेता दिलीप तिर्की त्रिकोणीय मुकाबले में लोकसभा चुनाव फतह कर पाएंगे या नहीं यह 16 मई को पता चलेगा.
दिलीप तिर्की को सुकून देने वाली बात झारखंड मुक्ति मोरचा और बीजद का गठजोड़ है. इस सीट से बीजद पहली दफा चुनाव लड़ रही है. इस का और अपनी लोकप्रियता का फायदा भी उन्हें मिल सकता है.
बिहार की दरभंगा सीट से तीसरी बार अपने जमाने के क्रिकेटर कीर्ति आजाद मुकाबले में हैं. इस सीट से 2 बार जीते और एक बार हारे कीर्ति आजाद एक पेशेवर नेता के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैं. 2009 के चुनाव में उन्होंने आरजेडी के मोहम्मद अली अशरफ फातमी को तकरीबन 60 हजार वोटों से शिकस्त दे कर 2004 में उन्हीं के हाथों हुई डेढ़ लाख वोटों से शिकस्त दे कर हिसाब चुका कर लिया था. कीर्ति आजाद को दिक्कत देने वाली इकलौती बात यह है कि इस बार कांग्रेस और आरजेडी के बीच वोटों का बंटवारा नहीं होगा.
2009 के चुनाव में कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश की मुरादाबाद सीट दिलाने वाले पूर्व क्रिकेट कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन इस दफा राजस्थान की सवाई माधोपुर टोंक लोकसभा से उतारे गए हैं.
इस दफा मुरादाबाद में उन का विरोध था-मतदाता में भी और कार्यकर्ताओं में भी, जिस ने सवाई माधोपुर में उन का पीछा नहीं छोड़ा. नाम का ऐलान होते ही वहां के कार्यकर्ता और मतदाता ने दोटूक कहा कि अजहरुद्दीन अगर जीत भी गए तो यहां कभी मुंह नहीं दिखाएंगे.
राजस्थान की ही जयपुर ग्रामीण सीट से भाजपा ने मशहूर निशानेबाज, परिवार में चिली के नाम से पुकारे जाने वाले राज्यवर्धन सिंह राठौर को उम्मीदवार बना कर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है. जागीरदार परिवार से ताल्लुक रखते राज्यवर्धन को सितंबर 2012 से ही उम्मीदवार माना जा रहा था जब उन्होंने भाजपा की सदस्यता लेते नरेंद्र मोदी का नाम जपना शुरू कर दिया था. मोदी के अलावा उन्हें मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का भी आशीर्वाद मिला हुआ है जो कांग्रेस के धाकड़ नेता सीपी जोशी से निपटने में उन की मदद करेगा.
भाजपा के सांसद के रूप में अमृतसर के मतदाता ने नवजोत सिंह सिद्धू  पर
2 दफा भरोसा जताया था. तीसरी बार भी नवजोत सिंह सिद्धू अमृतसर से भाजपा के उम्मीदवार होते पर इस बार अकाली दल ने टंगड़ी अड़ा दी.
चेतन चौहान का जादू क्रिकेट की तरह राजनीति में भी शुरुआती दौर में चमक कर रह गया. अपने टैस्ट जीवन में शतक लगाने को तरस गए चेतन चौहान अब राजनीति से भी रिटायर कर दिए गए हैं. जाहिर है वे एक असफल नेता साबित हुए हैं.
साल 2004 में पश्चिम बंगाल की कृष्णपुर सीट से भाजपा के सत्यव्रत मुखर्जी से 20 हजार वोटों से जीती मशहूर एथलीट ज्योतिर्मयी सिकदर को भी इस बार टिकट नहीं मिला है.

जो नहीं चल पाए
ऐसे खिलाडि़यों और उन में भी ज्यादातर क्रिकेटरों की फेहरिस्त काफी लंबी है जो सियासी ग्लैमर के चलते चुनाव तो लड़े लेकिन पहली बार ही औंधेमुंह लुढ़क गए.
इन में एक अहम नाम महाराष्ट्र के पूर्व क्रिकेटर विनोद कांबली का है. कांबली ने 2009 का विधानसभा चुनाव मुंबई की विक्रोली सीट से गुमनाम से राजनीतिक दल लोक भारती पार्टी से लड़ा था लेकिन उन्हें पहली बार में ही हार का मुंह देखना पड़ा था.
इस कड़ी में दूसरा नाम तेज गेंदबाज चेतन शर्मा का है. उन्होंने 2009 का लोकसभा चुनाव हरियाणा की फरीदाबाद सीट से बसपा के टिकट पर लड़ा था तो इस क्षेत्र में खासा रोमांच क्रिकेट की ही तरह पैदा हो गया था. अपने पहले ही भाषण में चेतन शर्मा ने मायावती को भरोसा दिलाया था कि वे इस सीट को बसपा के खाते में गिन लें. लेकिन जब नतीजा आया तो चेतन गिनती में ही नहीं थे. भाजपा के रामचंद बैसा और कांग्रेस प्रत्याशी अवतार सिंह भड़ाना के बीच वे ऐसे पिसे कि फिर राजनीति का नाम नहीं लिया.
अपने जमाने के मशहूर औलराउंडर मनोज प्रभाकर ने भी राजनीति में दांव आजमाया पर दिल्ली के मतदाताओं ने उन्हें आउट करार दे दिया.
एक और क्रिकेटर योगराज सिंह, जो कि आज के कामयाब क्रिकेटर युवराज सिंह के पिता हैं, ने हालांकि एक ही टैस्ट खेला था पर जातिगत समीकरणों के चलते उन्हें चुनाव लड़ने का मौका मिला था. योगराज ने 2009 का विधानसभा चुनाव पंचकुला सीट से आईएनएलडी के टिकट पर लड़ा लेकिन कांग्रेस के उम्मीदवार देवेंद्र कुमार बंसल से 12 हजार से ज्यादा वोटों से हार गए थे. दिलचस्प बात रही कि युवराज ने अपने पिता के पक्ष में चुनाव प्रचार नहीं किया था.
इन हारों से एक बात यह साबित हुई कि एक दफा राष्ट्रीय दलों से खिलाड़ी शायद जीत पाएं पर क्षेत्रीय या छोटे दलों से जीतना उन के लिए मुश्किल है.
खिलाडि़यों का रुझान कब से राजनीति की तरफ हुआ इस सवाल का जवाब हैं नवाब मंसूर अली खान पटौदी, जिन्होंने पहला चुनाव 1971 में विशाल हरियाणा पार्टी के टिकट पर गुड़गांव सीट से लड़ा था पर हार गए थे.
भोपाल से पटौदी की हार शोध का विषय नहीं कही जा सकती क्योंकि ‘नवाबी’ को छोड़ कर सबकुछ उन के हक में था. पटौदी सुबह 11 बजे सो कर उठते थे और 1 बजे दोपहर तक चुनाव प्रचार के लिए निकलते थे. तब तक उन के दरबार में कार्यकर्ता उन का इंतजार करते चायनाश्ता करते रहते थे.
मशहूर हौकी खिलाड़ी कांग्रेस के असलम शेर खां का नाम अब बुजुर्गों की जमात में शुमार होने लगा है, जो 1984 और 1991 में मध्य प्रदेश की बैतूल सीट से जीते पर 1996 में भाजपा के विजय खंडेलवाल से हार गए थे.
कितने खरे कितने खोटे
राजनीति में खिलाड़ी उतने कामयाब हुए नहीं जितने होने चाहिए थे. इस की वजह नौसिखियापन के अलावा उन का नुमाइश की चीज होना भी है.
सांसद बने खिलाडि़यों ने कभी झांक कर अपने क्षेत्र में नहीं देखा. साल में एकाध बार पार्टी के कहने पर अपने होने और जाने की रस्म उन्होंने निभाई तो इस का खमियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा. पेशेवर नेताओं की तरह खिलाड़ी नेताओं ने कभी जनता से भावनात्मक संबंध या संपर्क नहीं रखा. शायद इस की वजह उन्हें यह समझ आना था कि वे नेता नहीं खिलाड़ी होने की वजह से चुने गए हैं.
संसद में अधिकतर खिलाड़ी नदारद रहे. हां, कीर्ति आजाद इस का अपवाद कहे जा सकते हैं क्योंकि बचपन से ही राजनीति देखने और समझने के कारण उन्हें अहसास था कि अगर जमे रहना है तो रहना आम नेताओं की तरह ही पड़ेगा.
खिलाडि़यों की जीत की एक अहम वजह पार्टियों के जमीनी कार्यकर्ता भी रहते हैं. यह बात खिलाड़ी भी समझते  हैं इसलिए वे निर्दलीय लड़ने का जोखिम नहीं उठाते. अभी तक के खिलाड़ी मतदाता की उम्मीदों पर कतई खरे नहीं उतरे हैं लेकिन उन का संसद में पहुंचना महत्त्वपूर्ण और जरूरी भी है जिस की अहमियत वे खुद नहीं समझ पाते.
2009 का लोकसभा चुनाव राजनीति के खिलाडि़यों की बिदाई के लिए ज्यादा जाना गया था स्वागत के लिए कम. लेकिन इस बार माहौल बदला हुआ है. मतदाताओं की एक मानसिकता खिलाडि़यों को वोट देने के पीछे यह भी रहती है कि पेशेवर नेता हमारे लिए वादों के मुताबिक कौन से चांदतारे तोड़ लाते हैं. खिलाड़ी जीतता है तो उन की सीट चर्चा में तो आ जाती है. पहले खिलाडि़यों को इसलिए वोट दिया जाता था कि उन्हें रूबरू देखने का मौका मिलेगा, लेकिन मीडिया के बढ़ते दायरे ने खिलाडि़यों को भी आम बना दिया है. ऐसे में तय है कि जिस खिलाड़ी को जीतना है उसे पसीना बहाना पड़ेगा और मतदाताओं को क्षेत्र की तरक्की का भरोसा भी दिलाना पड़ेगा नहीं तो 2009 के नतीजों का रीप्ले होने में देर नहीं लगने वाली.

मेरे पापा

मेरा लक्ष्य था डाक्टर बनना. इस लक्ष्य को हासिल करने में मुझे पापा का पूरा सहयोग मिला. किसी भी जगह पेपर देना होता था, वे मेरे साथ रहते और मेरा उत्साह बढ़ाते. पढ़ना तो मुझे होता था परंतु हर मौके पर उन का साथ होता था. कभी मुझे निरुत्साहित देखते तो मुझे प्यार से समझाते कि हर हाल में खुश रहो, जो भी मिले उस में संतुष्ट रहो. मेहनत करती रहो, सफलता अवश्य मिलेगी. उन के विचार सही साबित हुए. मुझे मैडिकल में प्रवेश मिल गया और उन की बदौलत आज मैं एक सफल डाक्टर हूं.
एना सिंह चौहान, कोटा (राज.)
 
मेरे बचपन का ज्यादातर वक्त पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के कसबे मानिकतल्ला बाजार में गुजरा है. मैं अपने पिता व मां के साथ ही रहता था. छोटा पुत्र होने के कारण मैं अपनी मां का बहुत दुलारा था. उस समय मेरी उम्र लगभग 
10 वर्ष की रही होगी. 
एक दिन किसी बात को ले कर मां व पिताजी के बीच जोरों का झगड़ा हो रहा था. जो मुझ से बरदाश्त नहीं हो रहा था. मैं ने आव देखा न ताव, एक डंडा पिताजी की पीठ पर दे मारा. वे दर्द से बिलबिला उठे व मुझे मारने के लिए दौड़े. मैं उन के डर से भाग कर अपने घर के बगल में स्थित अमरूद के पेड़ पर चढ़ गया.
अमरूद के पेड़ के बगल में एक गहरा तालाब था. मेरे वजन से पेड़ की शाखा ऊपरनीचे हो रही थी तभी पिताजी को ऐसा आभास हुआ कि पेड़ की शाखा से तालाब में गिरने पर मेरी जान खतरे में पड़ सकती है. वे वहां से चले गए व 5 मिनट बाद लौटे तो उन के हाथ की मुट्ठी चौकलेट से भरी हुई थी.
उन्होंने मुझे दुलारते हुए नीचे आ कर चौकलेट लेने के लिए कहा. मैं सहमते हुए नीचे उतरा व सारी चौकलेटें ले लीं. फिर उन्होंने मुझे प्यार करते हुए समझाया कि गलती हो तो भी किसी को मारा नहीं करते. मैं पिताजी के पैरों पर गिर गया और उन से माफी मांगी. उन्होंने मुझे गले लगा लिया.
के चंद्रा, पटना (बिहार)
 
मैं अपने पापा के साथ जा रहा था. मैं ने देखा, एक स्कूटर वाला एक बच्चे को टक्कर मार कर तेजी से भाग गया. बच्चा सड़क पर गिरा पड़ा रो रहा था. कुछ ही देर में उस की मां वहां आ गई और कहने लगी, ‘‘हम लोग गरीब हैं, कहां से इतना पैसा खर्च कर पाएंगे इलाज में.’’
मेरे पापा बच्चे को डाक्टर के यहां ले कर गए. उस को दवा दिलवाई व पट्टी करवाई. वह महिला मेरे पापा को धन्यवाद देने लगी. पापा ने कहा, ‘‘मुझे धन्यवाद नहीं करो, बच्चे को समय से दवा देती रहना.’’
पापा से जुड़ी ऐसी अनेक छोटीबड़ी घटनाओं के प्रभाव ने मेरे हृदय में दयालुता का बीज कब बो दिया, पता न लगा.
तन्मय कटियार, कानपुर (उ.प्र.) 

टी-20 क्रिकेट के विज्ञापनों पर चुनाव का असर

विज्ञापन की दुनिया भी निराली है. जनमानस जहां जुड़ा विज्ञापनों की भरमार शुरू हो जाती है. भारत में क्रिकेट मैच पर दर्शक लट्टू हैं और पैसे की बाढ़ है इसलिए क्रिकेट में सट्टेबाजी जैसी गैरकानूनी गतिविधियां भी सुर्खियों में रहती हैं. विज्ञापनों पर तो पैसा पानी की तरह बहाया जाता है. एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार, क्रिकेट टी-20 के विज्ञापनों में कमाई 2008 के मुकाबले 2013 में 92 फीसदी बढ़ी है. रिपोर्ट में कहा गया है कि 2008 में भारतीय खेल उद्योग में विज्ञापन का कारोबार 2,139 करोड़ रुपए का था जो 2013 में 4,109 करोड़ रुपए तक पहुंचा है. यह चुनावी वर्ष है और इस साल चुनावी विज्ञापनों के साथ ही टी-20 क्रिकेट मैच के विज्ञापनों पर भी खर्च हो रहा है.

पिछले वर्ष यानी 2013 में टी-20 क्रिकेट मैच के दौरान 10 सैकंड के विज्ञापन के प्रसारण के लिए साढ़े 4 लाख रुपए खर्च करने पड़ रहे थे जो इस साल साढ़े 5 लाख रुपए हो गया है. विज्ञापन प्रसारकों को पिछले वर्ष टी-20 इंडियन क्रिकेट लीग से 900 करोड़ रुपए की कमाई हुई थी, जिस के इस साल 1,080 करोड़ रुपए से अधिक रहने के आसार हैं.

टी-20 क्रिकेट में विज्ञापन की दर किस कदर बढ़ रही है, इस का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 2008 में लीग मैचों में प्रसारण क्षेत्र को 300 करोड़ रुपए के विज्ञापन मिले थे. इसी तरह से इन मैचों के दर्शकों की संख्या भी बढ़ रही है. 2008 में क्रिकेट टीवी दर्शकों की संख्या 4.81 करोड़ थी जो 2009 में घट कर 4.17 करोड़ रह गई थी. 2012 में 16.50 करोड़ दर्शकों ने ये मैच देखे जबकि 2013 में यह संख्या बढ़ कर 21.50 करोड़ पहुंची.

दरअसल, चुनावी वर्ष में लीग मैच विदेशों में कराए गए जिस से दर्शक संख्या घटी लेकिन इस बार के चुनाव का ज्यादा असर दर्शकों पर नहीं रहने की संभावना जताई जा रही है और उम्मीद की जा रही है कि लीग मैचों में विज्ञापनों के साथ ही टीवी दर्शकों की संख्या भी बढ़ेगी.

सौर ऊर्जा की दुनिया की सब से बड़ी परियोजना

हमारी सरकार परमाणु ऊर्जा को बढ़ावा देने की कोशिश कर के देश की ऊर्जा जरूरत को पूरा करने का प्रयास कर रही है जबकि जापान जैसे कई बड़े देशों में इस तरह की परियोजनाओं का कड़ा विरोध हो रहा है. वहां की सरकारें जनता की भावनाओं के अनुरूप कदम उठाने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन हमारी सरकार जनविरोध की परवा किए बिना परमाणु ऊर्जा केंद्रों को विकसित करने पर उतारू है.

जनविरोध और सरकार की हठधर्मिता के बीच अच्छी खबर यह है कि देश में सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी कंपनियों ने दुनिया की सब से बड़ी और पर्यावरण के लिहाज से सब से सुरक्षित सौर ऊर्जा परियोजना पर काम करने का निर्णय लिया है. इस संयुक्त ऊर्जा संयंत्र से 4 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जाएगा. इस साल जनवरी में हुए इस समझौते के तहत परियोजना का विकास राजस्थान के सांभर में 19 हजार एकड़ भूमि पर किया जाएगा.

परियोजना के लिए बीएचईएल, पावरग्रिड सोलर एनर्जी कौर्पोरेशन, सांभर साल्ट लिमिटेड, सतलुज जल विद्युत निगम तथा राजस्थान इलैक्ट्रौनिक्स ऐंड इंस्ट्रुमैंट लिमिटेड के बीच समझौता हुआ. परियोजना को कई चरण में पूरा किया जाएगा. पहले चरण पर 7,500 करोड़ रुपए खर्च आने का अनुमान है और इस चरण में 1,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है.

परियोजना से शेष 3000 मेगावाट बिजली के उत्पादन के लिए भी चरणबद्ध तरीके से काम किया जाएगा. प्रत्येक संयंत्र की उम्र 25 वर्ष बताई जा रही है. इतने बड़े क्षेत्र में दुनिया की सब से बड़ी इस परियोजना में भेल की हिस्सेदारी 26, सोलर एनर्जी की हिस्सेदारी 23 तथा पावरग्रिड और सांभर साल्ट की हिस्सेदारी 16-16 फीसदी होगी. सार्वजनिक कंपनियों की यह क्रांतिकारी पहल है. निजी क्षेत्र की कंपनियों को भी इस तरह के प्रयास कर के पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कदम उठाने चाहिए.

 

महंगाई के गर्त में समाते छोटे सिक्के

महंगाई की मार से सिक्कों की शामत आ गई है. छोटे सिक्कों का अस्तित्व लगातार खतरे में पड़ रहा है. किस्सों, कहानियों और फिल्मी गानों के जरिए तक लोगों के बीच लोकप्रिय रहे छोटे सिक्के अब किंवदंतियां बन कर रहने के कगार पर पहुंच गए हैं. अगर आप आज की पीढ़ी से कहेंगे कि 1, 2, 3, 5, 10, 20, 25, 50 पैसे के सिक्के प्रचलन में रहे हैं तो शायद ही उन्हें यकीन आएगा.

सरकारी स्तर पर 25 पैसे का सिक्का अगस्त 2011 से प्रचलन से बाहर कर दिया गया था और अब 50 पैसे के सिक्के की बारी है. यह सिक्का व्यावहारिक रूप से प्रचलन से बाहर हो चुका है. कोई 50 पैसे लौटाए या नहीं, इस का किसी पर फर्क नहीं पड़ता है. रिजर्व बैंक के एक आंकड़े के अनुसार पिछले वर्ष मार्च तक 25 और 50 पैसे के प्रचलन के लिए बाजार में मौजूद सिक्कों की संख्या, मार्च 2010 के 54 अरब 73 करोड़ 80 लाख से घट कर सिर्फ 14 अरब 78 करोड़ 80 लाख थी. यानी 3 साल में इन सिक्कों का प्रचलन 52 प्रतिशत से घट कर 2013 मार्च तक 17.5 प्रतिशत ही रह गया.

अब हालत यह है कि 50 पैसे का सिक्का लेने वाला भी कोई नहीं है. हां, 1, 2, 5 और 10 रुपए के सिक्कों की संख्या लगातार बढ़ रही है. 1 रुपए के सिक्के का प्रचलन 2010 मार्च की तुलना में 2011 मार्च में 28 फीसदी से बढ़ कर 42 फीसदी तक पहुंचा है. यानी 2010 में 1 रुपए के 29 अरब 46 करोड़ 10 लाख सिक्के बाजार में थे जो पिछले वर्ष मार्च में बढ़ कर 35 अरब 88 करोड़ 40 लाख तक पहुंच गए थे. लेकिन भरोसा नहीं है कि महंगाई के कारण कमजोर हो रहा 50 पैसे का सिक्का भी कब दम तोड़ दे.

कई सार्वजनिक बैंकों ने तो ऐसा सौफ्टवेयर विकसित कर लिया है जो 50 पैसे की राशि को 1 रुपया मान लेता है. इस तरह से महंगाई की मार आम आदमी के साथ ही सिक्कों पर भी भारी पड़ रही है. और शायद किसी ने यह नहीं सोचा होगा कि महंगाई के कारण छोटे सिक्के इस तरह से बाजार से गायब हो जाएंगे और उन का अस्तित्व किस्सेकहानी बन कर रह जाएगा.

 

शेयर सूचकांक में नई ऊंचाई छूने की लय बरकरार

शेयर बाजार में समाप्त वित्त वर्ष का आखिरी माह रिकौर्ड के अंबार लगा गया. मार्च में बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई तथा नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी ने पुराने सारे रिकौर्ड तोड़ कर नई ऊंचाई हासिल की है. यह सिलसिला माह की शुरुआत से ही नजर आने लगा था. 5 मार्च को सूचकांक 21,297 अंक का स्तर हासिल कर के पूर्व के रिकौर्ड के नजदीक पहुंच गया था. इस से पहले 23 जनवरी को सूचकांक 21,377 अंक पर पहुंचा था लेकिन जल्द ही बाजार ने अपने सभी पुराने रिकौर्ड तोड़ दिए.

सूचकांक 11 मार्च को लगातार दूसरे दिन 22 हजार अंक के स्तर तक पहुंचा जबकि निफ्टी पहली बार 6563 अंक के उच्चतम स्तर तक गया. बीएसई का सूचकांक 6 मार्च को सर्वाधिक 21,514 अंक पर था. इस से पहले बाजार पिछले वर्ष 9 दिसंबर को सर्वाधिक 21,484 अंक पर बंद हुआ था. कमाल तो 18 मार्च को हुआ जब बीएसई का सूचकांक कारोबार के दौरान सर्वाधिक 22,045 अंक के स्तर पर पहुंचा. हालांकि मुनाफा वसूली के कारण यह स्तर बाजार के बंद होने तक कायम नहीं रह सका.

बाजार के विशेषज्ञों का मानना है कि यूके्रन संकट, अमेरिकी केंद्र रिजर्व की नीतियां इस बीच बाजार को लगातार प्रभावित करती रही हैं. उन का कहना है कि विदेशी निवेशक भारत की अर्थव्यवस्था की ढांचागत मजबूती के मद्देनजर बीएसई में लगातार निवेश कर रहे हैं. निवेशकों में फरवरी में मुद्रास्फीति के 9 माह के न्यूनतम स्तर 4.68 प्रतिशत पर पहुंचने का भी बाजार पर खासा उत्साह रहा है.

 

भारत भूमि युगे युगे

खुशवंत की पत्रकारिता
खुशवंत सिंह साहित्य और पत्रकारिता की सीमारेखा पर कलम चलाते रहने वाले लेखक थे. कह सकते हैं वे नास्तिक थे और वर्जनाओं में नहीं रहते थे, उन्मुक्तता उन के लिखे में साफ दिखती है. अखबारों में लिखा उन का एक स्तंभ 2 दशक तक देखा गया जिस में वे जब यात्रा करते थे तब उन्हें एक धनाढ्य और अभिजात्य महिला जरूर मिलती थी जो सैक्सी भी होती थी. हैरानी की बात यह है कि अकसर उस महिला को सीट भी खुशवंत के पास ही मिलती थी.
खुशवंत सिंह के लेखन पर संस्मरण हमेशा हावी रहे लेकिन इस से इतर गांधीनेहरू परिवार के विवाद से नाम कमाने वाले इस अनुभवी पत्रकार की खूबी यह भी थी कि वे दायरों में नहीं बंधे और यथासंभव सच बोलते रहे.
 
उमा की अजबगजब परिस्थिति
लोकसभा चुनाव में हर कोई कुछ न कुछ ड्रामा कर रहा है. कोई टिकट न मिलने पर आंसू बहा रहा है तो कोई बहीखाता पेश कर अपनी सेवाओं का वास्ता दे रहा है. कई इसलिए खुश हैं कि बैठेबिठाए टिकट मिलने की लौटरी लग गई.
बोलने के लिए चर्चित रही फायरब्रांड साध्वी उमा भारती चुप हैं. वे झांसी से चुनाव लड़ रही हैं. अपनी पार्टी में मची उठापटक पर वे खामोश क्यों रहीं, इस का पहला जवाब तो यह है कि उन के बोलने न बोलने के कोई माने नहीं रह गए हैं, दूसरा यह है कि झांसी जा कर वे फंस गई हैं. बुंदेलखंड के लोगों को समझ यह आ रहा है कि उमा भारती न अब उत्तर प्रदेश की रहीं, न मध्य प्रदेश की और न मोदी की हैं न आडवाणी की. ऐसे में उन के लिए वे कुछ खास नहीं कर पाएंगी.
 
पुराना फर्नीचर
जसवंत सिंह का कद एक झटके में छोटा कर देने वाली राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने उन का टिकट बाड़मेर सीट से कटवा कर पुराने हिसाब चुकता कर लिए हैं. जसवंत सिंह की तिलमिलाहट भाजपा से टिकट न मिलने के साथ कल की लड़की के हाथों पटखनी खाने की भी है. इस प्रकरण में वसुंधरा की प्रतिक्रिया यह थी कि कभीकभी कड़वी दवा भी पीनी पड़ती है. लेकिन एक सेहतमंद आदमी को दवा क्यों पिलाई गई, यह उन्होंने नहीं बताया. जसवंत की दुर्दशा पर क्या करें और क्या कहें, सोचने वालों की हिचक, खुद उन्होंने ‘फर्नीचर नहीं हूं’, कह कर दूर कर दी.
 
हम थे जिन के सहारे 
अमर सिंह और जयाप्रदा नाम की फोटो अब अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के फ्रेम में फिट हो गई है जो किसानों की हिमायती पार्टी समझी जाती है. इन दोनों को अब बरगद का दूसरा पेड़ मिल गया है पर उन की हालत खराब है. अनुभव बताते हैं कि मुलायम सिंह ने जिन्हें छोड़ा वे ज्यादा कामयाब नहीं रहे क्योंकि मैदानी राजनीति का तजरबा उन्हें नहीं था. सपाकी पालकी पर सवार हो कर क्षेत्र से संसद तक का सफर कब, कैसे पूरा हो जाता था, उन्हें पता ही नहीं चला. लेकिन इस दफा बात कुछ अलग यानी मुश्किल वाली है.
-भारत भूषण श्रीवास्तव द्य 

नेताओं की बदजबानी

नपुंसक, लहूपुरुष, पागल, नौनसैंस, दस नंबरी और बुढि़या गुडि़या. गलियों की शक्ल में की गईं ये तमाम बदजबानियां चोरउचक्कों की नहीं बल्कि उन सियासी महारथियों की हैं जो खुद को जनता का प्रतिनिधि कहते नहीं थकते. बातबात पर देश के संस्कार और संस्कृति का झंडा उठाने वाले इन नेताओं का क्या यही असली चरित्र है?
नेताओं की बदजबानी की कोई सीमा नहीं है. उन की जबान न मौका देखती है न मामले की नजाकत, तीर की तरह बेधड़क वार कर देती है. अगर भारतीय राजनीति या राजनीतिक नेताओं की बदजबानी का लेखाजोखा तैयार किया जाए तो एक आलेख कम पड़ जाएगा. इस का तो बाकायदा एक पोथा तैयार किया जा सकता है, वह भी कई खंडों में.
हाल ही में उत्तर प्रदेश में सहारनपुर संसदीय सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार इमरान मसूद ने एक रैली में नरेंद्र मोदी को बोटीबोटी करने की धमकी दी. नेताजी गिरफ्तार हो गए. रैली के दौरान के वीडियो फुटेज में आई इमरान की यह बदजबानी कांग्रेस की ही छीछालेदर कर रही है. जहां पार्टी ने इस टिप्पणी से किनारा कर लिया  वहीं इमरान अपने बयान ‘अगर नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश को गुजरात बनाने की कोशिश करते हैं तो हम उन की बोटीबोटी कर देंगे’ पर माफी मांगने को तैयार नहीं हैं.
इस तर्ज पर राजस्थान के टोंक में भाजपा विधायक हीरालाल रेगर ने तो यहां तक कह दिया कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के कपड़े उतार कर इटली भेजा जाना चाहिए. सलमान खुर्शीद ने नरेंद्र मोदी को ‘नपुंसक’ कहा तो एक बार फिर से ‘बदजबानी’ पर चर्चा शुरू हुई. खासकर तब जब कांगे्रस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इसे अमर्यादित कह कर ऐसे बयानों को बरदाश्त न करने की बात कह दी.
राजनीतिक विवादित बयान
राजनीतिक विवादित बयान की बात करें तो एक से बढ़ कर एक नमूने मिल जाएंगे. बदजबानी के सरताज दिग्विजय सिंह और बेनी प्रसाद वर्मा रहे हैं और सब से ज्यादा हमले के शिकार हुए हैं नरेंद्र मोदी. मोदी को मणिशंकर अय्यर पैरोडी में लहू पुरुष कह चुके हैं. वहीं रेणुका चौधरी ने ताना मारते हुए कहा कि जो व्यक्ति अपनी जनानी को नहीं पहचानता, वह लोगों के दर्द को क्या समझेगा, महिलाओं की क्या इज्जत करेगा. दिग्विजय सिंह ने तो अरविंद केजरीवाल की तुलना राखी सावंत से कर दी.
हाल ही में राष्ट्रीय चैनल पर नवीन जिंदल की बदजबानी से उन के अभिजात होने का मुलम्मा उतर चुका है.
वैसे सब से ज्यादा अमर्यादित शब्द ‘नपुंसक’ रहा है. समयसमय पर बहुत सारे नेता अपने विरोधियों को ‘नपुंसक’ ठहरा चुके हैं. उद्धव ठाकरे ने 2009 में भाजपाशिवसेना की एक रैली में मनमोहन सिंह को ‘नपुंसक प्रधानमंत्री’ कहा. इस बार यह शब्द रक्षा मंत्री ए के एंटोनी के लिए कहा गया.
नरेंद्र मोदी ने 2009 के चुनाव प्रचार के दौरान कर्नाटक में कांगे्रस को 125 साल की बुढि़या कहा तो उस समय भी नेताओं के बोलवचन की आलोचना शुरू हो गई. तब प्रियंका वाड्रा ने पत्रकारों से पूछ ही लिया कि क्या मैं बुढि़या लगती हूं. इस पर मोदी ने फिर जबान खोली और कहा कि कांगे्रस को बुढि़या सुनना अच्छा नहीं लगता तो कांगे्रस को गुडि़या की पार्टी कहूंगा. मोदी के इस बयान ने बुढि़या और गुडि़या की बहस को हवा दे दी.
कांग्रेस की रेणुका चौधरी ने अमर्यादित बयानों की झड़ी लगा कर हद ही कर दी. हरियाणा में बलात्कार की एक घटना पर रामदेव के बयान से भड़कीं रेणुका चौधरी ने रामदेव को ‘पागल’, ‘नौनसैंस’ तक कह डाला.
उत्तर प्रदेश भी कम बदनाम नहीं रहा है बदजबानी में. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के विधायकमंत्री की जबान पर लगाम नहीं है. अब जब चुनाव का समय है तो नेताओं की जबानी जंग पूरे शबाब पर है जिस के मकसद 2 हुआ करते हैं. एक, अगले को नीचा दिखाना और दूसरा, अपने राजनीतिक कद को बरकरार रखने की जद्दोजहद में विपक्ष पर वार करना.
नरेंद्र मोदी ने अगर सोनिया गांधी को ‘दस नंबरी गांधी’ कहा तो सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कह डाला. चुनावी हवा बनाने के चक्कर में बिहार के वैशाली में भाजपा नेता गिरिराज सिंह ने कहा कि नीतीश कुमार की हत्या नरेंद्र मोदी के हाथों होगी.
फौरवर्ड ब्लौक नेता देवव्रत विश्वास ने एक बार तृणमूल की राजनीति को वेश्यावृत्ति करार दिया. बयान कुछ इस प्रकार था, पार्टी और कब तक राजनीतिक वेश्यावृत्ति करेगी, भाजपा के साथ सो चुकी है, आरएसएस के साथ रह चुकी है. इस के बाद कांगे्रस के साथ भी हनीमून मना चुकी है. इस तरह महिला आरक्षण का मुद्दा जब पहली बार संसद में उठा तब जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने अपनी भड़ास निकालते हुए जहर उगला, बोले, ‘इस विधेयक का मकसद क्या संसद में ‘परकटी महिलाओं’ को लाना है? वहीं, मुंबई आतंकी हमले के बाद नारेबाजी कर रही महिलाओं के बारे में भाजपा के मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि लिपस्टिकपाउडर लगा कर ये महिलाएं भला क्या विरोध करेंगी.
बलात्कार जैसे मुद्दे पर
दिल्ली के निर्भया मामले के समय तो पूरे देश में विवादित बयानों की झड़ी लग गई. नेताओं से ले कर तथाकथित संतमहात्माओं ने बयान जारी किए. कुछ बानगी दोहरा ली जाए. सब से पहले आसाराम ने कहा कि अकेली महिला रात को घर से बाहर निकले तो भाई को साथ ले कर निकले. यही नहीं, निर्भया के लिए आसाराम के सुझाव की भी चर्चा रही. बकौल आसाराम, आरोपी को भाई कह कर बुलाना चाहिए था पीडि़ता को. साथ में यह भी कि अगर हिम्मत नहीं थी तो आत्मसमर्पण क्यों नहीं कर दिया.
मजे की बात यह है कि महिलाओं के खिलाफ महिलाओं के बयान कुछ कम चौंकाने वाले नहीं हैं. दिल्ली गैंगरेप के बाद राष्ट्रवादी महिला कांगे्रस की आशा मिर्जे ने बलात्कार के लिए महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहरा दिया. पत्रकार सौम्या विश्वनाथन की हत्या पर शीला दीक्षित ने कहा कि इतना ऐडवैंचरस नहीं होना चाहिए था, थोड़ी एहतियात बरतनी चाहिए थी.
कोलकाता की पार्क स्ट्रीट पर चलती गाड़ी में गैंगरेप की घटना के बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि मातापिता से मिली आजादी के कारण बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं. उत्तर 24 परगना के बरासात में बलात्कार की घटना के बाद ममता का एक और विवादित बयान आया, जो इस प्रकार था, ‘बलात्कार नहीं हुआ है. हुआ है तो मजूरी दे दूंगी.’ ममता के इस बयान (नहले) पर दहला दागते हुए माकपा के नेता अनीसुररहमान ने भी एक बयान दे डाला, जिस में उन्होंने ममता बनर्जी से पूछ लिया, ‘पीडि़ता की फीस अगर 20 हजार रुपए है तो आप का रेट कितना है?’
मुरली मनोहर जोशी ने निर्भया मामले में बलात्कार की जिम्मेदारी पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव और विदेशी सोच के मत्थे मढ़ दी. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बेटे अभिजीत ने बयान दिया कि हर मुद्दे पर महिलाएं सजधज कर कैंडल मार्च पर निकल पड़ती हैं और रात को वही महिलाएं डिस्को चली जाती हैं. इसी तरह बलात्कार की एक अन्य घटना पर हरियाणा प्रदेश कांगे्रस के प्रवक्ता धर्मवीर गोयल का बयान आया. उन्होंने कहा कि 90 प्रतिशत लड़कियों के साथ बलात्कार नहीं होता, वे अपनी सहमति से शारीरिक संबंध बनाती हैं. वहीं, मध्य प्रदेश कांगे्रस के नेता सत्यदेव कटारे ने तो यहां तक कह डाला कि जब तक कोई महिला किसी पुरुष को तिरछी नजर से नहीं देखती, तब तक पुरुष उसे नहीं छेड़ता.
बदजबानी की बादशाहत
देश की राजनीति में विवादित बयान की बाकायदा बादशाहत भी है. विवादित बयान के मामले में कुछ नेता सदाबहार हैं.
विवादित बयान के मामले में कांगे्रस में 2 दिग्गज नेता हैं, बेनी प्रसाद वर्मा और दिग्विजय सिंह. उत्तर प्रदेश के बेनी प्रसाद के निशाने पर जाहिर है मुलायम सिंह और अखिलेश होंगे. समयसमय पर इन के श्रीमुख से ‘नेताजी’ और उन के बेटे के लिए विवादित बयान निकले हैं. अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने पर बेनी प्रसाद बोले, ‘बेटा अपने पापा का नाम रोशन करेगा.’ वहीं उन्होंने मुलायम सिंह के लिए कई बयान दिए. मसलन, मुलायम सिंह का जीवन आपराधिक रहा है. वे राज्य के बाहुबलियों की सरपरस्ती करते हैं. वे सठिया गए हैं. वगैरहवगैरह. अफजल गुरू की फांसी की सजा पर उन्होंने कह डाला कि मुसलमान होने के कारण फांसी की सजा हुई, कोई और होता तो आजीवन कारावास की सजा होती. इस बयान विशेष पर कांगे्रस ने उन से कन्नी भी काट ली. इस बयान का खमियाजा हो सकता है इस लोकसभा चुनाव में कांगे्रस को उठाना पड़े. बेनी प्रसाद कांगे्रस के ऐसे नेता हैं जिन्होंने सलमान खुर्शीद के एनजीओ में भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी के आरोपों पर बयान दे डाला कि 71 लाख रुपए बहुत छोटी रकम है. इतनी छोटी रकम का घोटाला सलमान नहीं कर सकते. केजरीवाल को भी वे ‘हर दिन न भूंकने’ की सलाह दे चुके हैं.
दिग्विजय सिंह भी अपने बयानों की वजह से मीडिया में छाए रहते हैं. मोदी की लोकप्रियता की तुलना वे हिटलर से कर चुके हैं. एक बार तो पूछ ही लिया कि मोदीजी, आप की पत्नी यशोदाबेन कहां हैं?
इसी तरह उमा भारती पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने यहां तक कह डाला कि उमा भारती साध्वी का महज चोला पहनती हैं. अंदर से वे कुछ और हैं. अपने एक बयान में रामदेव को वे ठग बता चुके हैं. भाजपा को नचनियों की पार्टी कह डाला. उन के बयान जहां विवाद पैदा करते हैं वहीं एक हद तक लोगबाग का मनोरंजन भी करते हैं. शायद इसीलिए उन्होंने अपने बारे में भी एक बयान दे डाला था, ‘सच कहता हूं, इसीलिए पागल कहलाता हूं.’
बेनी प्रसाद वर्मा, दिग्विजय सिंह के बाद कैलाश विजयवर्गीय का नाम लिया जा सकता है. दिल्ली के निर्भया मामले के बाद कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि महिलाएं अपनी सीमा लांघ देती हैं तो सीताहरण हो जाता है. उन का एक और चर्चित बयान है, ‘जागृति’ फिल्म में कवि प्रदीप के गीत ‘दे दी हमें आजादी बिना…’ पर.
कैलाश कहते हैं कि इस गीत के लिखने वाले को कस कर तमाचा मारने को मन होता है. उन्हें नेहरूगांधी के अलावा और किसी का बलिदान नजर नहीं आता.
सपा नेता नरेश अग्रवाल भी कुछ कम नहीं. इन की भी बानगी देखें. तहलका के तरुण तेजपाल मामले में उन्होंने कहा कि इस मामले के बाद लड़कियों को बतौर प्राइवेट सैक्रेटरी या असिस्टेंट रखने में लोग घबराने लगे हैं. मोदी के चाय बेचने के मुद्दे पर कहा, ‘चाय बेचने वाले मोदी का नजरिया राष्ट्रीय नहीं हो सकता.’
कांग्रेस के सलमान खुर्शीद ने फर्रूखाबाद में अरविंद केजरीवाल को धमकी देते हुए कहा कि कलम से बहुत काम कर चुका हूं, अरविंद केजरीवाल फर्रूखाबाद आएं और लौट कर दिखाएं. उधर मुरादाबाद से बसपा उम्मीदवार हाजी याकूब मोदी को बर्बर कहते हैं.
मजेदार बात यह भी है कि राहुल गांधी की भी जबान कभीकभार फिसल ही जाती है.

पोंगापंथ के दलदल में धंसते सुशासन बाबू

सरकार का काम स्कूल व अस्पताल बनवाना है न कि मंदिरों का निर्माण और मजारों पर चादर चढ़ाना. बावजूद इस के भाजपा को राम नाम की माला जपने वाली पार्टी कहने वाले नीतीश कुमार खुद सियासत में धर्म का तड़का लगा कर बिहार में दुनिया का सब से विशाल मंदिर बनवाने पर आमादा हैं. सियासत में धर्म का रंग चढ़ाए इन राजनीतिक हस्तियों की असल मंशा क्या है, इस पर रोशनी डाल रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.
‘देदे राम दिला दे राम, पीएम की कुरसी पर बैठा दे राम…’ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आजकल अपने भाषणों में इस जुमले का इस्तेमाल जरूर करते हैं. राम के नाम पर राजनीति करने वाली भाजपा पर जम कर तीर चलाते हैं. जनता की तालियां लूटते हैं. भाजपा को राम नाम की माला जपने वाली पार्टी करार देने में लगे नीतीश बिहार में दुनिया का सब से बड़ा मंदिर बनाने को हरी झंडी दिखा चुके हैं. भाजपा के राममंदिर की राजनीति का करारा जवाब देने के लिए नीतीश ने इस हिंदू मंदिर को बनवाने का काम चालू भी करवा दिया है.
कभी खुद को पूजापाठ से दूर रखने का दावा करने वाले नीतीश कुमार मंदिरों और मसजिदों में घूमघूम कर खुद को धार्मिक दिखाने के चक्कर में लगे हुए हैं. कभी मंदिर में जा कर पूजा कर रहे हैं तो कभी मजारों पर जा कर चादर चढ़ा रहे हैं. कभी लालू यादव के पाखंड की खिल्ली उड़ाने वाले नीतीश अब खुद ही पोंगापंथ के दलदल में धंसते जा रहे हैं.
भाजपा की मंदिर की राजनीति के काट के लिए नीतीश ने बिहार के वैशाली जिले के मुख्यालय हाजीपुर के केसरिया इलाके में दुनिया का सब से बड़ा और ऊंचा मंदिर बनाने की कवायद शुरू करवाई है. हाजीपुर-बिदुपुर रोड पर 15 एकड़
जमीन में बनने वाला यह रामायण मंदिर 222 फुट ऊंचा होगा. मंदिर बनवाने के लिए 5 मार्च, 2012 को भूमिपूजन किया गया था. मंदिर को बनाने में करीब 200 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है. यह मंदिर कंबोडिया के अंकरोवाट मंदिर की नकल होगा.
बिहार राज्य अति पिछड़ा महासंघ के संयोजक किशोरी दास कहते हैं कि नीतीश कुमार, भाजपा और तमाम राजनीतिक दल मंदिर और मसजिद बनाने में जितनी रकम खर्च करते हैं उतनी रकम से गरीबों की कई योजनाएं जमीन पर उतारी जा सकती हैं. सरकार का काम है अस्पताल और स्कूल आदि बनवाना, न कि मंदिर बनवाना और मजार पर चादर चढ़ाना. अगर इस के पीछे वोटबैंक बनाना ही वजह है तो गरीबों और पिछड़ों के लिए बनाई गई योजनाओं को ही सही तरीके से लागू कर दिया जाए तो देश के गरीब और पिछड़े उन के परमानैंट वोटर बन जाएंगे.
मजार पर चादर
पिछले जनवरी महीने में कड़ाके की ठंड के बीच जब बिहार के गरीब ठंड से ठिठुर रहे थे तो नीतीश कुमार उन्हें ठंड से बचने के लिए चादरकंबल आदि देने के बजाय मजार पर चादर चढ़ाने में मशगूल रहे. नीतीश कुमार के साथ राजद सुप्रीमो लालू यादव भी मजार पर चादर चढ़ा कर मुसलिमों को रिझाने की सियासत में लगे रहे.
14 जनवरी को मुसलमानों के पर्व और 31 जनवरी को उर्स के मौके पर हाड़ कंपाती ठंड के बीच दोनों नेताओं में मजार पर चादर चढ़ाने की होड़ लगी रही. पटना से सटे फुलवारीशरीफ प्रखंड के मजार पर दोनों नेताओं ने चादर चढ़ाई. मुसलिम नेता आसिफ आलम कहते हैं कि मजार पर चादर चढ़ाने से मुसलमान अब खुश नहीं होने वाला, पढ़ालिखा मुसलमान समझ गया है कि सभी सियासी दल उन का दोहन करते रहे हैं और मुसलमानों का हमदर्द बनने की नौटंकी करते रहे हैं.
22 जुलाई, 2009 को सूर्यग्रहण के दौरान नीतीश और लालू के बीच चली जबानी जंग को बिहार के लोग तो आज तक नहीं भूल सके हैं. पटना से 40 किलोमीटर दूर तरेगना के आर्यभट्ट साइंस सैंटर में सूर्यग्रहण के दौरान नीतीश कुमार ने सूर्यग्रहण का नजारा लेते हुए चाय और बिस्कुट खाए थे तो लालू यादव ने कहा था कि सूर्यग्रहण के समय कुछ भी खानेपीने से पाप लगता है.
नीतीश की इस हरकत की वजह से ही बिहार भयानक सूखे की चपेट में आया. उस साल कम बारिश होने की वजह से बिहार के 38 में से 33 जिलों में सूखा पड़ा था. तब नीतीश ने लालू के अंधविश्वास का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि सूर्यग्रहण धर्म की चीज नहीं, बल्कि यह विज्ञान से जुड़ा मसला है. लालू के ऐसी कट्टरपंथी बातों की वजह से ही बिहार की हंसी उड़ाई जाती है. आज वही नीतीश पाखंड और आडंबरों से पूरी तरह घिरे दिखाई दे
रहे हैं.
नेताओं की मंदिर, मसजिद, मजार, चर्च आदि जगहों पर जा कर सिर झुकाने, पूजापाठ करने और दानदक्षिणा देने की पोंगापंथी प्रवृत्ति कोई नई बात नहीं है. उन्हें यह लगता है कि जनता की समस्याओं को हल करने के बजाय पूजापाठ से ही वोटबैंक मजबूत हो जाएगा. चुनाव का मौसम आने पर हर दल के नेता ऐसी ऊलजलूल हरकतों में लग जाते हैं. सभी नेताओं को अपने काम और जनता से ज्यादा भरोसा पत्थर की मूर्तियों और मजारों पर है.
पाखंड पर भरोसा
कोई मंदिरमसजिद में सिर झुकाता फिर रहा है तो किसी ने पंडितों को अपना हाथ दिखला कर ऐसी अंगूठी पहन ली है कि मानो चुनाव में जीत पक्की हो गई हो. बाबाओं के चक्कर में नेता दिल्ली, राजस्थान, बनारस, हरिद्वार, देवघर तक के चक्कर काट आए हैं. इतना ही नहीं, अकसर मांसमदिरा का लुत्फ लेने वाले नेता चुनावी मौसम में पूरी तरह से शाकाहारी भी हो गए हैं.
नीतीश शिवलिंग पर दूध चढ़ा रहे हैं तो लालू यादव हर साल छठ पूजा पर गंगा नदी में नारियल, फूल व पैसा बहाते रहे हैं. लालू गोपालगंज के थाबे मंदिर अकसर जाया करते हैं. लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान भी दरगाहों पर चादर चढ़ा कर अपनी पार्टी को जीत दिलाने के टोटके में लगे हुए हैं, हालांकि वे राम नाम जपने वाली भाजपा की उंगली पकड़ चुके हैं.
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