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कानून और अदालत

देश की अदालतों की नाक तले अन्याय और गुनाहगारों को सजा देने वाला कानून लोकतंत्र के मुख्य अधिकार स्वतंत्रता को बुरी तरह कुचल रहा है. आज किसी के लिए भी यह आसान है कि वह पुलिस थाने में सही या झूठे अपराध की प्राथमिकी दर्ज करा कर किसी को भी जेल भिजवा दे. अदालतों ने बेल नहीं, जेल का मार्ग अपना लिया है क्योंकि वादी और जनता को खुश करने का यह आसान तरीका है.

देश की अदालतें जानती हैं कि आज किसी को सजा दिलाना बहुत मुश्किल है. लंबी गवाहियों, अपीलों, अदालतों की घोंघे से भी धीमी चाल के कारण सजा दिलातेदिलाते 10-15 साल लग जाएंगे. इसलिए ज्यादातर अदालतें मुलजिम को 10-15 से 50-60 दिन तक के लिए जेल भेज कर अपना न्याय करने का थोथा दावा ठोंक देती हैं. देश की जेलों में 90 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन पर अपराध साबित नहीं हुआ और वे अपने जीवन के बहुमूल्य दिन अपराधियों के बीच बिताने को विवश हैं.

जब लालू प्रसाद यादव, जे जयललिता, सुरेश कलमाड़ी जैसे सीखचों के पीछे जाते हैं तो देश की जनता के दिल में जल रही आग शांत होती है पर यह गलत और अमानवीय है. उन्हें जेल में भेजिए पर अपराध साबित होने के बाद. अपराध नहीं किया, यह साबित करने के लिए उन्हें बाहर रहने का मौका मिलना चाहिए. जमानत एक महत्त्वपूर्ण मौलिक अधिकार होना चाहिए. पूछताछ के लिए 2-3 दिन थाने में रोकने के बाद हर जने को छोड़ा जाना चाहिए. केवल हत्या या गंभीर चोट पहुंचाने के मामले ऐसे हैं जिन में अपराधी को समाज से दूर रखने के लिए जेल में भेजने का रास्ता अपनाया जा सकता है.

अदालतें अपनी गिरती प्रतिष्ठा, ‘वहां न्याय नहीं मिलता’, को बचाने के प्रयास में व सख्त दिखने के लिए ‘जेल, बेल नहीं’ का सिद्धांत अपनाती हैं जो संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के खिलाफ है.

 

धर्म और दंगा

उत्तर प्रदेश में धार्मिक दंगों के भयंकर जानवर का फिर से सिर उठा लेना थोड़ी आश्चर्य की बात है. अखिलेश यादव की सरकार कितनी भी सुस्त हो, मुसलिमों के प्रति वह कभी भी उदासीन नहीं रही. ऐसे में दंगे इस तरह हो जाएं कि गांव के गांव जला दिए जाएं और हजारों को गांव छोड़ने पड़ें, कुछ जमा नहीं. पिछली बार इस तरह के दंगे तो नरेंद्र मोदी के शासन में वर्ष 2002 में गुजरात में हुए थे जहां प्रशासन को सुस्ती अपनाने के निर्देश दिए गए थे.

बात साफ है कि अभी भी धर्म को भुनाना आसान है और धर्म के नाम पर जान लेना भी. एक लड़की को छेड़ने का या मोटरबाइकों के भिड़ जाने का ही मामला होता तो इतनी मारकाट न होती. यहां तो पूरी तैयारी से एकदूसरे की जान लेने की कोशिश हुई है, तभी गांव खाली हुए हैं. धर्म का काम ही असल में लोगों में खाइयां पैदा करना रहा है क्योंकि धर्म की दुकान चलती ही तब है जब कुछ को दूसरों से मिलने न दिया जाए और उन दूसरों को दुश्मन करार दे दिया जाए. चाहे व्यापार में साथ काम करते हों, बस में साथ सफर करते हों, दफ्तरों में कंधे से कंधा मिला कर काम करते हों पर जहां धर्म का शामियाना टंगा नहीं, लोग एकदूसरे से अलग हो जाते हैं. धर्म का नशा कुछ शब्दों के जाम पीने से तुरंत चढ़ जाता है. दारू ठेकेदारों की तरह धर्म के ठेकेदार छोटे मामले को बढ़ानेचढ़ाने में माहिर होते हैं और यही मुजफ्फरनगर में हुआ जहां न तो गोधरा जैसा मामला था न बाबरी मसजिद जैसा.

लगा तो ऐसा है कि मानो कुछ लोग तैयार हैं कि किसी तरह दंगा कराया जाए ताकि हिंदुओं और मुसलिमों में पहले से खुदी धर्म की खाई में पैट्रोल डाल कर आग जलाई जा सके, जो दोनों तरफ के लोगों को  झुलसा दे. कफन पर राजनीति करना तो हमारे राजनीतिबाज नेतागीरी की पहली क्लास में ही सीख आते हैं. यह दंगा अब पुलिस व अर्धसैनिकों के सहारे भले ही दबा दिया गया पर यह स्थायी हल नहीं है. जब तक धर्म की दुकानों पर भीड़ रहेगी, हम बारूद के ढेरों पर बैठे रहेंगे. जरूरत धर्मों के बीच भाव पैदा करने की नहीं, धर्म की दुकानें बंद करने की है जहां कल्पना की कहानियों को ठोस सामान की तरह महंगे दामों पर बेचा जा रहा है. पर यह आसान नहीं, शायद नामुमकिन है क्योंकि धर्म के व्यापार में करोड़ों लोग लगे हैं जो रोज निरर्थक बातें कर के बेवकूफों को फंसाते हैं ताकि वे हत्या, अपराध कर धर्म का नाम रोशन रख सकें.

 

बलात्कारियों को सजा

16 दिसंबर, 2012 को एक छात्रा के साथ चलती बस में हुए निर्मम बलात्कार के दोषियों को मौत की सजा तो देनी ही चाहिए थी. उन का अपराध ही ऐसा था कि न उस पर रहम की दुहाई सुनी जा सकती है और न कम आयु के जोश का बहाना. पशुओं से भी बदतर जो बरताव उन 6 जनों ने एक अनजानी लड़की से किया वह केवल सैनिकों द्वारा शत्रुओं की औरतों से मध्ययुगों में किया जाता था. दिल्ली जैसे शहर में लोग इस तरह खूंखार हो सकते हैं, यह कल्पना भी नहीं की जा सकती. लगा ही नहीं कि ये 6 जने हजारों साल सभ्यता का पाठ सिखाने वाले समाज की देन हैं.

बलात्कार तो आम हैं और ये सैक्स की भूख का परिणाम कहे जा सकते हैं पर बलात्कार के दौरान अंगभंग करना, योनि में स्टील रौड डालना, हाथ डाल कर अंतडि़यां निकाल लेना कल्पना से भी बाहर है. सफेदपोश लोग कितने जहरीले हो सकते हैं, इस की कल्पना भी असंभव है. उन दोषियों को तो अदालत ने सजा दे दी पर उस समाज को क्या सजा दी जिस ने ऐसे खूंखार जानवर पैदा किए. आखिर किन परिवारों में इस तरह का व्यवहार सिखाया गया है? यह पाठ कौन पढ़ाता है कि बलात्कार का आनंद लो और हिंसा के जरिए उस आनंद को बढ़ाओ? हमारी शिक्षा, तथाकथित धर्म के उपदेश, सुगठित व्यवस्था आखिर किस काम की कि लड़की को अकेले देखा और 6 जने उस पर टूट पड़े.

ऐसे समाज पर धिक्कार है जो इन को अपने बीच पालता है. ये मानसिक रोगी नहीं थे, ये समाज के दिए काले रंग में ही पुते थे. कठघरे में 4 के अलावा समाज भी था. यह बात दूसरी है कि समाज ने अपना दोष इन पर मढ़ दिया और खुद को सभ्य, कानूनप्रिय साबित कर दिया.

 

प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी

नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवा कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वही किया है जो हिंदू राजाओं के साथ उन के ब्राह्मण सलाहकार किया करते थे. इतिहास में दर्ज है कि ज्यादातर राजा ब्राह्मणों की सिफारिश पर बनाए जाते थे. कुछ ही युद्धों में जीत कर या नीचे से जनता की इच्छा पर राजा बन पाते थे. नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की भी पसंद हैं, यह औपचारिकता तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने नहीं निभाने दी.

नरेंद्र मोदी ने अब तक केंद्र में काम नहीं किया. वे राज्य के मुख्यमंत्री चाहे हों पर वहां उन्होंने कोई क्रांतिकारी काम नहीं किया. उन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भरोसा है तो इसलिए कि उन्होंने वर्ष 2002 में दिखा दिया था कि वे कैसे हिंदुओं का नाजायज पक्ष ले सकते हैं और राजनीतिक व कानूनी वार झेल सकते हैं. भारतीय जनता पार्टी के बहुत से समर्थकों को नरेंद्र मोदी अपने मुसलिम विरोध के कारण बेहद पसंद हैं. भारतीय जनता पार्टी के सभी केंद्रीय नेता सम झते हैं कि 20 प्रतिशत जनता से वैरभाव ले कर देश नहीं चलाया जा सकता. हिटलर भी यहूदियों का भारी नरसंहार कर के अपने को और जरमनी को पूर्ण विध्वंस से नहीं बचा सका था.

लालकृष्ण आडवाणी ने इस बार बेहद दम दिखाया है. उन्हें एहसास हो गया है कि विघटन की राजनीति देश को डुबो देगी. भारतीय जनता पार्टी के अंधभक्तों की मांग को लगातार अनदेखा कर उन्होंने एक तरह से राममंदिर, रथ यात्रा व बाबरी मसजिद को तुड़वाने के लिए अपने ऊपर लगे कलंकों को थोड़ा फीका किया है. भारतीय जनता पार्टी का हाल शिवाजी के बाद के सालों में मराठा राजाओं जैसा हो जाए तो कोई हैरानी नहीं जो पेशवाओं के कारण बुरी तरह हारे थे. महाराष्ट्र गंगाजमुनी हिंदू संस्कृति का क्षेत्र तो नहीं पर संस्कृतीकरण के लालच में मराठी नवब्राह्मण अपना पुराना नाटक दोहराने से बाज नहीं आते दिखते.

 

आपके पत्र

सरित प्रवाह, अगस्त (द्वितीय) 2013

आप की संपादकीय टिप्पणी ‘तेलंगाना और कांगे्रस’ पढ़ी. आप ने तेलंगाना राज्य बनाने के निर्णय को सही ठहराया है. आप के विचारों का स्वागत करते हुए पश्चिम बंगाल के पहाड़ी इलाके और तराई डुवर्स के गोरखा बहुल क्षेत्रों को ले कर एक पुराने आंदोलन का जिक्र करना चाहता हूं. गोरखालैंड के मुद्दे को ले कर संसद में हंगामा हुआ जब दार्जिलिंग के सांसद व वरिष्ठ भाजपा नेता जसवंत सिंह ने गोरखालैंड के आंदोलन का जिक्र करते हुए राजनीतिक समाधान निकालने का अनुरोध किया लेकिन तृणमूल कांगे्रस के सांसद संदीप बंधोपाध्याय, सौगत राय और कल्याण बनर्जी ने असंसदीय भाषा में गोरखालैंड का घोर विरोध किया, जैसा पहले से बंगाल के अन्य दल माकपा, भाकपा, कांग्रेस करते आ रहे हैं.

गोरखालैंड के लिए जिस भूभाग को ले कर आंदोलन किया जा रहा है, उस का उन्हें ऐतिहासिक सत्य मालूम नहीं है. सुगौली संधि, तितलिया संधि और सिंचूला संधि के तथ्यों का ज्ञान नहीं है. इतना ही नहीं, उन्हें 1986 में तत्कालीन वाम मोरचा सरकार द्वारा प्रकाशित श्वेतपत्र में लिखित सत्य भी स्वीकार्य नहीं है. दरअसल, दार्जिलिंग की भूमि सिक्किम के राजा ने 1835 में ब्रिटिश सरकार को दी थी. तब इस इलाके में रहने वाले कौन थे? इस का जवाब है कि गोरखा ही थे.

अफसोस तो इस बात का भी है कि गोरखाओं का खुल कर विरोध करने वाले भद्र लोगों को यह भी जानकारी नहीं है कि देश के स्वतंत्र होने के बाद डा. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में बनी संविधान सभा के सदस्यों में कलिंपोंग (दार्जिलिंग) के बैरिस्टर अरि बहादुर गरुड़ भी थे. आज के राजनेता देश के स्वतंत्रता संग्राम में जीवन बलिदान करने वाले सुभाषचंद्र बोस के सहयोगी गोरखाओं के त्याग का इतिहास जानना ही नहीं चाहते. तेलंगाना राज्य गठन करने का फैसला जब कांगे्रस वर्किंग कमेटी ने लिया तो एक शताब्दी पुराने गोरखालैंड राज्य की मांग के लिए किए जा रहे आंदोलन को ऊर्जा मिली है. गोरखालैंड के नाम से राज्य बनाना ही होगा वरना आंदोलन रुकने वाला नहीं.

बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जिलिंग (प.बं.)

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आप की टिप्पणी ‘मैडिकल शिक्षा, सरकार और अदालत’ सचाई से रूबरू कराती है. इस में यह दर्शाया गया है कि व्यावसायिक मैडिकल शिक्षा पर जोर देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में मैडिकल काउंसिल औफ इंडिया द्वारा आदेशित कौमन मैडिकल एंट्रैंस टैस्ट के नियम को असंवैधानिक करार दे दिया है. इस से लगभग 300 कालेज खुश होंगे जो निजी सैक्टर के हैं. कौमन टैस्ट के कारण वे अपनी मनमरजी के अनुसार छात्रों को मैडिकल कालेजों में प्रवेश नहीं दे पा रहे थे.

छात्रों को अब अलगअलग संस्थानों में प्रवेश पाने के लिए अलगअलग टैस्टों में बैठना पड़ेगा और वे देशभर में मारेमारे फिरेंगे. दरअसल, सस्ते होने के चलते सरकारी संस्थानों में प्रवेश के लिए लंबी लाइनें लगने लगीं और लाखों की रिश्वतें लीदी जाने लगीं. इन के पर्याय के रूप में प्राइवेट मैडिकल कालेज खुले और थोड़ीबहुत आनाकानी के बाद सरकार ने उन्हें स्वीकार कर लिया. यह अच्छा था क्योंकि सरकार के वश में और कालेज खोलना संभव न था. देश को चिकित्सा कालेजों की बहुत जरूरत है और गांवगांव में चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो सके, इस के लिए हर तरह के चिकित्सक चाहिए ही. इस मामले में ज्यादा ढीलढाल आगे चल कर महंगी साबित होगी.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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‘मैडिकल शिक्षा, सरकार और अदालत’ शीर्षक से प्रकाशित आप का संपादकीय पढ़ा. आप के विचार अच्छे हैं. सरिता के माध्यम से मैं कुछ अपने विचार पेश करना चाहता हूं. प्राइवेट मैडिकल कालेजों में पढ़ाई के अलावा सबकुछ होता है. इसी वजह से उन का स्तर सरकारी मैडिकल कालेजों से नीचे है. इस के प्रमुख कारण ये हैं :

दाखिला मेरिट के आधार पर नहीं, बल्कि पैसों के बल पर होता है. अधिकांश प्राइवेट मैडिकल कालेजों में फुलटाइम टीचिंग फैकल्टी नहीं है. वे  वर्ल्डक्लास सुविधा का दावा करते हैं लेकिन अफसोस कि वर्ल्डक्लास शिक्षा देने में असमर्थ हैं. छात्र कालेज आते ही नहीं. यदि आते हैं तो सुविधाओं का लाभ लेने के लिए आते हैं. कान में इअरफोन लगा कर गाने सुनते हैं. लेकिन क्लास नहीं अटैंड करते. तो फिर इस वर्ल्डक्लास सुविधा का क्या मतलब है?

अधिकांश छात्र कालेज नहीं आते. लेकिन कोई भी छात्र उपस्थिति के आधार पर परीक्षा में बैठने से वंचित नहीं किया जाता, बल्कि पेनल्टी ले कर उसे परीक्षा में बैठने दिया जाता है, जोकि गलत है. प्रबंधन छात्रों की पढ़ाई पर ध्यान देने के बजाय उन्हें पास करवाने में व उन्हें प्रायोजिक परीक्षा में अच्छे नंबर दिलवाने में दिलचस्पी लेते हैं, जोकि उन की मजबूरी है. यदि छात्र फेल होते हैं तो पेरैंट्स का दबाव आता है, जिन्होंने लाखों रुपए दे कर अपने बच्चों का दाखिला करवाया है. प्रबंधन भी चाहता है कि हर छात्र अच्छे नंबर से पास हो, ताकि अगले सत्र में प्रवेश लेने ज्यादा से ज्यादा छात्र आएं. प्राइवेट मैडिकल कालेज पैसा कमाने के केंद्र बने हुए हैं. उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं कि वे छात्रों को क्या दे रहे हैं. पैसे के बल पर प्राइवेट मैडिकल कालेज सबकुछ मैनेज कर लेते हैं. पेरैंट्स सोचते हैं कि ज्यादा पैसे दे कर प्राइवेट कालेजों में उन के बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं तो यह उन का भ्रम है.

शशिकांत, जबलपुर (म.प्र.)

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‘हिंदू राष्ट्रवादी मोदी’ संपादकीय में आप के विचार पढ़े, जो नरेंद्र मोदी यानी नमो के प्रति आप की एलर्जेटिक सोच को उजागर करते लगे. यों भी यह शायद हमारे देश की ही महानता है कि जो अपने राष्ट्र के प्रति जितना ज्यादा देशभक्त या राष्ट्रवादी है, वही देश का सब से बड़ा देशद्रोही या शत्रु कहलाता है. वरना आप जैसे बुद्धिजीवी तत्त्व यह नहीं कहते कि ‘किसी के मात्र हिंदू राष्ट्रवादी कहलाने या पुकारे जाने के कारण ही देश में मुसलिम राष्ट्रीयता का जन्म हुआ, जिस के परिणामस्वरूप ही देश का विभाजन हुआ.’ जबकि विभाजन के लिए वास्तव में वह कुंठित सोच, जिस के तहत आज भी किसी समुदाय विशेष के लोग स्वयं को भारतीय कहलाने में गर्व अनुभव न करते हों, जिम्मेदार हैं.

वैसे भी हाल ही के एक सर्वेक्षण में देश के युवाओं ने स्वीकारा कि उन्हें ऐसा तानाशाह शासक चाहिए जो अपने डंडे के जोर से देश की सभी जरूरतों को पूरी करने की ताकत रखता हो. वहीं अगर 1975 के तानाशाह फिर से इस देश के शासक चुने जा सकते हैं तो नमो के पीएम चुने जाने में कौन सी अड़चन है? हां, हिंदू पुकारना हमारे यहां अपराध है.

टी सी डी गाडेगावलिया, करोल बाग (न. दि.)

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लेख ‘मिड डे मील मामला : स्कूलों में बंटता जहर’ हकीकत बयान करता है. बिहार के एक स्कूल में 23 बच्चों की मिड डे मील खाने से हुई मृत्यु ऐसा पहला मामला नहीं है. कई बार ऐसा हो चुका है और भ्रष्ट प्रशासन के चलते ऐसा होने की आगे भी आशंका है. सरिता में प्रकाशित चित्र ने दिल दहला दिया. पर हम हैं कि पैसों का सौदा किए जा रहे हैं. यह भूल कर कि इंसान अमीर हो या गरीब, अन्न ही खाता है. पूरी दुनिया में कोई भी इंसान पैसा खा कर जीवित नहीं रह सकता है. उसे अन्न का ग्रास करना ही पड़ेगा. और भ्रष्ट व्यवस्था के चलते कब किस के हाथ में मृत्यु का ग्रास थमा दिया जाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता.

कृष्ण मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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लेख ‘मिड डे मील’ मामला ‘स्कूलों में बंटता जहर’ पढ़ कर मन क्षुब्ध हो गया. क्या ये वही सरकारी स्कूल हैं जिन में कभी डा. राजेंद्र प्रसाद व लाल बहादुर शास्त्री सरीखे लोग पढ़ा करते थे? शिक्षकों की लापरवाही व पढ़ाई के गिरते स्तर के कारण वैसे भी लोग सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों का नामांकन करवाने से कतराते हैं, उस पर ‘मिड डे मील’ की इस हृदयविदारक दुर्घटना ने कोढ़ में खाज वाली कहावत को चरितार्थ ही किया है.

देश की सरकार योजनाएं तो खूब बनाती है परंतु उन योजनाओं का संचालन करना नहीं जानती. सरकारी कर्मचारी तो लापरवाही के लिए जाने ही जाते हैं. सरकार जानती है कि इन बच्चों के मातापिता अत्यंत निर्धन हैं और निर्धनता कमजोर का पर्याय है. तभी तो थोड़े दिन की गहमागहमी के बाद सबकुछ शांत हो जाता है और सरकारी कार्य फिर अपनी चाल से चलने लगता है. मिड डे मील के रूप में जहर बांटने से तो अच्छा होता अगर हर बच्चे को साबुत अनाज व सब्जियां ही दे दी जातीं ताकि मातापिता साफसफाई से खाना बना कर अपने बच्चों को खिलाते.

आरती प्रियदर्शिनी, गोरखपुर (उ.प्र.)

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समाधान से असहमत

अगस्त (प्रथम) अंक में ‘पाठकों की समस्याएं’ स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित चौथे प्रश्न के उत्तर में कंचनजी के समाधान से मैं असहमत हूं. अपनी संतान से संरक्षण पाना बुजुर्ग मातापिता का हक है, फिर चाहे वह संतान पुत्र हो या पुत्री. यहां, प्रश्नकर्ता की पत्नी बीमार, विधवा मां की इकलौती संतान है. इसलिए उन की देखभाल करना प्रश्नकर्ता की पत्नी व स्वयं प्रश्नकर्ता का नैतिक व सामाजिक उत्तरदायित्व है.

यहां, प्रश्नकर्ता पत्नी को मायके भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. प्रश्नकर्ता के अनुसार, जब वे अपनी सास की बहन के यहां पहुंचे तो उन की सास की तबीयत वाकई खराब थी. यानी पत्नी झूठे बहाने बना कर नहीं जाती बल्कि मां की बीमारी से मजबूर हो कर जाती है.

मेरे विचार से बेहतर समाधान यह होगा कि प्रश्नकर्ता अपनी पत्नी व सास को यह भरोसा दिलाने की कोशिश करें कि उन की परेशानी में वे उन के साथ हैं. हो सके तो बीमार सास को स्वस्थ होने तक या आजीवन ससम्मान अपने साथ रखें ताकि पत्नी निश्चिंत हो कर अपने घरपरिवार की तरफ ध्यान दे सके. हमेशा याद रखें कि जितने कष्ट उठा कर आप के मातापिता ने आप का पालनपोषण किया है, उतने ही कष्ट उठा कर पत्नी के मातापिता ने उस की परवरिश की है. इसलिए जो सम्मान व समर्पण आप पत्नी से अपने परिवार वालों के लिए चाहते हैं वही सम्मान व समर्पण आप को पत्नी के मातापिता को देना होगा.

पतिपत्नी का रिश्ता आपसी विश्वास व सहयोग पर आधारित होता है न कि अधिकार बोध पर. इस पूरे मामले में प्रश्नकर्ता को आत्मावलोकन करने की आवश्यकता है. यदि वे सच्चे मन से सास के प्रति अपनी जवाबदेही को समझें और निभाएं तो तनाव के बादल छंट जाएंगे व स्थितियां सामान्य हो जाएंगी.

ज्योति राकेश, बेतिया (बिहार)

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बच्चों के हक पर डाका

अगस्त (द्वितीय) अंक में ‘मिड डे मील मामला : स्कूल में बंटता जहर’ लेख पढ़ कर बड़ा दुख हुआ. देश से कुपोषण की समस्या दूर करते हुए बच्चों को शिक्षा के प्रति आकर्षित करने के लिए ‘दोपहर का भोजन’ योजना बनाई गई थी. दुखद यह है कि यह योजना एक बड़े घोटाले में तबदील होने के साथ ही बच्चों के लिए जानलेवा साबित हो रही है. पिछले दिनों बिहार के सारण जिले में 23 मासूम बच्चों की अकाल मृत्यु ने इस योजना में हो रही धांधली और लूट को सब के सामने ला दिया है.

इस योजना के लागू होते ही इस ने अपना यह सकारात्मक प्रभाव दिखा दिया कि स्कूल में बच्चों की उपस्थिति काफी बढ़ गई. लेकिन यह योजना भी देश के राजनीतिक और सामाजिक गिद्धों की नजरों से ज्यादा दिनों तक बच न सकी और आखिरकार यह भी देश के भ्रष्टतंत्र की भेंट चढ़ गई. दुनिया की इस सब से बड़ी ‘दोपहर का भोजन’ योजना के लिए केंद्र सरकार जो पैसा देती है वह बच्चों की थाली तक आतेआते काफी कम हो जाता है.

केंद्र सरकार की यह योजना बहुउद्देशीय और दूरगामी परिणाम वाली है मगर इस के क्रियान्वयन का तरीका ठीक नहीं होने के कारण गरीब बच्चों की भूख को शांत करने वाली इस योजना में हर स्तर पर लूट मची हुई है.

मुकुंद प्रकाश मिश्र, शिवहर (बिहार)

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