उत्तर प्रदेश में धार्मिक दंगों के भयंकर जानवर का फिर से सिर उठा लेना थोड़ी आश्चर्य की बात है. अखिलेश यादव की सरकार कितनी भी सुस्त हो, मुसलिमों के प्रति वह कभी भी उदासीन नहीं रही. ऐसे में दंगे इस तरह हो जाएं कि गांव के गांव जला दिए जाएं और हजारों को गांव छोड़ने पड़ें, कुछ जमा नहीं. पिछली बार इस तरह के दंगे तो नरेंद्र मोदी के शासन में वर्ष 2002 में गुजरात में हुए थे जहां प्रशासन को सुस्ती अपनाने के निर्देश दिए गए थे.

बात साफ है कि अभी भी धर्म को भुनाना आसान है और धर्म के नाम पर जान लेना भी. एक लड़की को छेड़ने का या मोटरबाइकों के भिड़ जाने का ही मामला होता तो इतनी मारकाट न होती. यहां तो पूरी तैयारी से एकदूसरे की जान लेने की कोशिश हुई है, तभी गांव खाली हुए हैं. धर्म का काम ही असल में लोगों में खाइयां पैदा करना रहा है क्योंकि धर्म की दुकान चलती ही तब है जब कुछ को दूसरों से मिलने न दिया जाए और उन दूसरों को दुश्मन करार दे दिया जाए. चाहे व्यापार में साथ काम करते हों, बस में साथ सफर करते हों, दफ्तरों में कंधे से कंधा मिला कर काम करते हों पर जहां धर्म का शामियाना टंगा नहीं, लोग एकदूसरे से अलग हो जाते हैं. धर्म का नशा कुछ शब्दों के जाम पीने से तुरंत चढ़ जाता है. दारू ठेकेदारों की तरह धर्म के ठेकेदार छोटे मामले को बढ़ानेचढ़ाने में माहिर होते हैं और यही मुजफ्फरनगर में हुआ जहां न तो गोधरा जैसा मामला था न बाबरी मसजिद जैसा.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...