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सिटीजंस चार्टर क्या सुनी जाएंगी जन शिकायतें?

सरकारी विभागों को जनता के प्रति जवाबदेह और पारदर्शी बनाने के लिए प्रस्तावित विधेयक सिटिजंस चार्टर व्यावहारिक तौर पर कितना कारगर होगा, कहना मुश्किल है क्योंकि अरसे से भ्रष्टाचार और कामचोरी की आदी हो चुकी लालफीताशाही को खुद पर अंकुश कभी गवारा नहीं होगा. बहरहाल, क्याक्या है सिटिजंस चार्टर में, बता रहे हैं शाहिद ए चौधरी.

हालांकि यूपीए-2 की मौैजूदा सरकार ने अब तक लोकपाल कानून नहीं बनाया है लेकिन मार्च 2013 के दूसरे सप्ताह में उस के मंत्रिमंडल ने ‘द राइट औफ सिटिजंस फौर टाइमबाउंड डिलीवरी औफ गुड्स ऐंड सर्विसेज ऐंड रिड्रैसल औफ देयर ग्रीवैंसिस बिल 2011’ को मंजूरी दे दी है. इस विधेयक के तहत नागरिकों को निश्चित अवधि के दौरान सरकार से अपने काम कराने व जन सेवाएं हासिल करने का अधिकार होगा. इस के अलावा उन की शिकायतों का भी निर्धारित समयसीमा में निवारण किया जाएगा. इसलिए इस विधेयक को अधिक पारदर्शी व जवाबदेह प्रशासन के संदर्भ में मील का पत्थर माना जा रहा है.

विशेषज्ञों का कहना है कि यह विधेयक कानून बनने के बाद न सिर्फ समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने में सक्षम रहेगा बल्कि इस के जरिए आरटीआई का असली मकसद भी पूरा हो सकता है. साथ ही, इस से सरकार का कुछ बोझ कम भी हो सकता है.

पहले आरटीआई और अब इस नए विधेयक के जरिए जो व्यवस्था विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है वह भले ही परफैक्ट न हो पाए लेकिन इन के जरिए सरकार जनसमीक्षा के लिए खुल जाती है, इसलिए उसे मजबूरन अपने विभागों को अधिक पारदर्शी व जवाबदेह बनाना होगा. साथ ही, इस प्रक्रिया से यह उम्मीद भी की जा सकती है कि जो भ्रष्टाचार आम आदमी को दैनिक जीवन में प्रभावित करता है उस पर भी किसी हद तक अंकुश लग सकेगा. बहरहाल, इस नए विधेयक की संभावित सफलता का अंदाजा लगाने से पहले यह जानना जरूरी है कि जो राज्य इस किस्म का कानून पहले से ही गठित कर चुके हैं उन में इस से जनता को क्या लाभ हासिल हो सका है. गौरतलब है कि पूर्व में दिल्ली, राजस्थान व मध्य प्रदेश में ‘जनसेवा डिलीवरी व शिकायती कानून’ बनाया जा चुका है.

प्रस्तावित कानून के जरिए नागरिकों को एक निश्चित समय अवधि के भीतर संसाधन व सेवाएं उपलब्ध कराई जाएंगी. इस के लिए प्रशासन को उन चीजों व सेवाओं की सूची (सिटिजंस चार्टर) प्रकाशित करनी होगी जिन को उपलब्ध कराने की उस की जिम्मेदारी है. साथ ही, यह भी बताना होगा कि कितने समय में उन को उपलब्ध कराया जाएगा. अगर नागरिकों को चार्टर से संबंधित कोई शिकायत होगी, जैसे किसी चीज या सेवा का समय पर न मिलना, सरकारी अधिकारी का सही तरह से काम न करना, कानून या नीति या योजना का उल्लंघन करना आदि तो वे उस के खिलाफ शिकायत भी दर्ज करा सकते हैं.

सभी जन प्राधिकरणों को जानकारी व सुविधा केंद्र स्थापित करने होंगे और नगरपालिका व पंचायत स्तर पर अधिकारी नियुक्त करने होंगे जिस से 15 दिन के भीतर शिकायत का समाधान किया जाए. शिकायत के सिलसिले में लिखित जवाब देना होगा कि उस का क्या समाधान किया जा रहा है, दोषी व्यक्ति के खिलाफ क्या कार्यवाही की जा रही है?

अगर शिकायत का निवारण 15 दिन के भीतर नहीं होता है तो एक स्पष्टीकरण विभाग के प्रमुख को भेजना होगा. विभाग प्रमुख को शिकायतकर्ता भी लिख सकता है यदि उस की समस्या का 15 दिन के भीतर संतोषजनक समाधान नहीं होता है. शिकायत का समाधान नहीं किया गया तो उसे भ्रष्टाचार माना जाएगा और भ्रष्टाचार रोकथाम कानून 1988 के तहत संबंधित कर्मचारी के खिलाफ कार्यवाही भी की जा सकती है.

एक केंद्रीय जन शिकायत निवारण आयोग और ऐसे ही आयोग राज्यों में नियुक्त किए जाएंगे. शिकायत दर्ज करने में शिकायत निवारण अधिकारी यानी जीआरओ मदद करेंगे. आयोग के समक्ष न्यायिक प्रक्रियाएं भारतीय दंड संहिता के तहत होंगी. दोषी पाए गए अधिकारियों के खिलाफ आर्थिक जुर्माना लगाया जाएगा जोकि समयसमय पर तय किए जाने वाली दर के हिसाब से होगा. जो अधिकारी या कर्मचारी दुर्भावना का दोषी पाया जाएगा उस के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही भी होगी.

हालांकि प्रस्तावित विधेयक ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस से आरटीआई की तरह ही जनता के हाथ में काफी ताकत आ जाएगी और वह सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने के बजाय सही से अपना काम करा सकेगी. लेकिन विधेयक में कुछ ऐसे प्रावधान भी हैं जिन्हें राज्य सरकारें इस आधार पर चुनौती दे सकती हैं कि वे संघीय ढांचे का उल्लंघन करते हैं.

प्रस्तावित विधेयक में कहा गया है कि केंद्रीय जन शिकायत निवारण आयोग जो भी आदेश पारित करेगा उसे राज्य आयोगों को लागू करना होगा. अगर कोई नागरिक राज्य आयोग के फैसले से संतुष्ट नहीं है तो वह 30 दिन के भीतर केंद्रीय आयोग में अपील दायर कर सकता है. इस सिलसिले में कुछ विशेषज्ञों की राय है कि दोनों आयोग स्वतंत्र होने चाहिए और अगर किसी नागरिक को राज्य आयोग के फैसले से शिकायत है तो उसे हाईकोर्ट जाना चाहिए. आवश्यकता पड़ने पर सुप्रीम कोर्ट में भी अपील की जाए.

गौरतलब है कि इसी की तरह राज्य सूचना आयोग व केंद्रीय सूचना आयोग काम करते हैं. साथ ही, इस संदर्भ में राज्यों में जो कानून बनाए गए हैं उन्हें निरस्त करने की जरूरत नहीं है, नया विधेयक अतिरिक्त कानून बन सकता है. दरअसल, राज्य आयोगों को केंद्रीय आयोग के अधीन रखने की कोई जरूरत नहीं है. इस से न सिर्फ संघीय ढांचा प्रभावित होता है बल्कि राज्य आयोगों के खिलाफ सभी अपीलें केंद्रीय आयोग में लंबित पड़ी रहेंगी. केंद्रीय आयोग का काम सिर्फ केंद्र सरकार की सेवाओं से संबंधित शिकायतों तक ही सीमित रहना चाहिए. बेहतर यही है कि जिस तरह आरटीआई में क्षेत्रीय न्यायिक क्षेत्र की व्यवस्था रखी गई है कि राज्य आयोग के खिलाफ हाईकोर्ट में जाया जाए, वैसी ही व्यवस्था प्रस्तावित विधेयक में भी शामिल की जानी चाहिए.

सरकार के जो महत्त्वपूर्ण सामाजिक कार्यक्रम हैं जैसे मनरेगा, शिक्षा का अधिकार, ग्रामीण स्वास्थ्य, पीडीएस आदि, उन का जनता को सही लाभ नहीं मिल रहा है, साथ ही उन में जबरदस्त घोटाले भी हैं. इस समस्या का समाधान प्रस्तावित विधेयक के कानून बनने से ही संभव है. गौरतलब है कि प्रस्तावित विधेयक में योजनाओं की निगरानी करने वाले व्यक्तियों को भी जवाबदेह बनाया गया है, इसलिए ऊपर के स्तर का कोई घोटालेबाज भी आसानी से बच नहीं सकता.

आरटीआई लोगों को जानकारी हासिल करने व अपनी सरकार से जवाब मांगने का अवसर प्रदान करती है. लेकिन लोग यह भी चाहते हैं कि सरकार जिम्मेदार व जवाबदेह भी हो, जो इस प्रस्तावित विधेयक से ही संभव है. ध्यान रहे कि आरटीआई के ज्यादातर सवाल आज भी शिकायतों से ही संबंधित हैं क्योंकि सरकारी विभाग अवाम की जरूरतों को पूरा करने में नाकाम रहते हैं. प्रस्तावित विधेयक के तहत शिकायतों का सीधे समाधान होगा और अगर कानून बनने के बाद इसे ईमानदारी से लागू कर दिया गया तो आरटीआई का बोझ भी काफी कम हो जाएगा.

दरअसल, अगर प्रस्तावित विधेयक कानून बन जाता है तो इस से समाज में सकारात्मक परिवर्तन आ सकता है. सब से पहली बात तो यह है कि इस के तहत एक नागरिक को मालूम होगा कि वह सरकार से किनकिन चीजों व सेवाओं की उम्मीद रख सकता है. अगर उस को वे चीजें या सेवाएं निर्धारित समय में उपलब्ध नहीं हो रही हैं तो वह शिकायत कर सकता है और उस शिकायत को भी

15 दिन में हल होना होगा. जाहिर है, इस से सरकारी कर्मचारियों को काम करना पड़ेगा और अब तक जो वे घूस के लालच में काम को टालते रहते हैं उस पर भी विराम लग सकेगा. कहने का अर्थ यह है कि प्रस्तावित विधेयक में इतना दम है कि वह भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके व जनता को सुशासन प्रदान करने में मदद कर सके. इसलिए सरकार पर दबाव डाला जाना चाहिए कि वह प्रस्तावित विधेयक को संसद के दोनों सदनों में जल्द पारित करा कर कानून बनाए.

ऐसा भी होता है

मेरे पति बाजार गए हुए थे. वहां पर एक महिला कुछ खरीद रही थी. इतने में एक भिखारी आया. वह उस महिला से बोला, ‘‘माताजी, मुझ गरीब को कुछ दे दें…’’ वह आगे कुछ और बोलता उस से पहले वह महिला गुस्से में उसे डांटते हुए बोली, ‘‘मैं तुझे माताजी दिख रही हूं.’’ वह मांगने वाला चुपचाप आगे चल दिया. घर आ कर पति ने यह बताया तो हम सब खूब हंसे.    

काशी चौहान, कोटा (राज.)

 

मेरे बेटे को एक सवाल हल करने में सफलता नहीं मिल रही थी. उस ने पापा,  जोकि प्रोफैसर हैं, से सहायता ली पर वे भी नहीं हल कर पाए. उन्होंने अपने दोचार अध्यापक मित्रों से भी पूछा पर आश्चर्य, वे सब भी असफल रहे. मेरा बेटा उस सवाल को बारबार करता रहा पर असफल रहा. आखिरकार सो गया. उस की बहन अभी पढ़ रही थी. उस ने देखा कि भाई कुछ बड़बड़ा रहा है, वह तुरंत कौपीपैंसिल ले कर जो वह बोल रहा था, लिखने लगी.

सुबह उठ कर बोली, ‘‘भाई, मैं ने तेरा सवाल हल कर लिया.’’ मुझे वह सब बता चुकी थी. मैं चुप रही पर बेटा बोला, ‘‘उत्तर तो एकदम ठीक है पर यह तेरे बस का नहीं. बता, कैसे किया?’’ वह बोली, ‘‘भाई, रात को तू ने नींद में जो बोला, मैं ने लिख लिया.’’ उस की मेहनत देख कर सब ने उस की तारीफ की.

संध्या राय, गुड़गांव (हरियाणा)

 

बात 1975 की है. हम बैंकौक में थे. वहां मेरे पति भारतीय दूतावास में कार्यरत थे. एक दिन हम ने रेल द्वारा थाईलैंड की पुरानी राजधानी अयुध्या जाने का कार्यक्रम बनाया. हम ने अपनी बेटी दीपा, जो 5 वर्ष से कम आयु की थी, का टिकट नहीं लिया. टे्रन चलने पर टिकटचैकर आया व हम लोगों के टिकट देखने के बाद दीपा का टिकट मांगने लगा. मेरे पति ने इशारों व जितनी भी थाई भाषा आती थी, उसे समझाया कि दीपा की उम्र 5 वर्ष से कम है. इस पर टिकटचैकर ने थाई में कुछ कहा, जो हमें समझ नहीं आया. तब उस ने दीपा को डब्बे के आखिर में ले जा कर डब्बे से सटा कर खड़ा कर दिया व विजयी मुद्रा में इशारा कर के हमें देखने के लिए कहा.

हम ने देखा कि डब्बे की दीवार पर एक लकीर का निशान बना था व दीपा का सिर उस से लगभग 1 इंच ऊपर था. तब हमें समझ आया कि थाईलैंड में बच्चों का टिकट ऊंचाई के आधार पर लगना शुरू होता है, आयु के हिसाब से नहीं. यह हमारे लिए रोचक अनुभव था.

पूर्णिमा माथुर, जोधपुर (राज.)

किस में कितना है दम

होंडा का अमेज और मारुति सुजूकी का स्विफ्ट डिजायर मौडल कार के शौकीनों को खूब आकर्षित कर रहे हैं. आटो बाजार में ये एकदूसरे को कड़ी टक्कर दे रहे हैं. आइए, जानते हैं कि कौन सा मौडल ज्यादा बेहतर है.

वे दिन बीत गए जब डीजल, पैट्रोल से काफी सस्ता था तो फिर क्यों हम आज भी महंगी डीजल कारों की तरफ रुख करें. आज हम बात करेंगे 2 परफैक्ट शहरी सेडान कारों की जो इतनी कांपैक्ट हैं कि कहीं भी समा जाएं. दोनों बहुत कुछ एक जैसी हैं मानो जुड़वां हों.

आइए, हम आप को इन दोनों कारों की तकनीकी बारीकियों के बारे में बता दें ताकि आप निर्णय ले सकें कि इन में कौन ज्यादा बेहतर है, होंडा की अमेज या मारुति सुजूकी की स्विफ्ट डिजायर. सब से पहली बात तो यह कि ये दोनों ही हैश बैक फार्मूले पर आधारित हैं. दोनों की लंबाई 4 मीटर से कम है, जिस से इन को ऐक्साइज का बैनिफिट भी मिल जाता है. दोनों में 1.2 लिटर पैट्रोल इंजन है. अमेज को होंडा की ब्रियो के प्लेटफौर्म पर बनाया गया है और इस में 400 लिटर का बूट स्पेस है. 

जहां तक इंटीरियर की बात है तो डिजायर बेहतर है और अमेज से आगे है. डिजायर का कंट्रास्ट डैश बोर्ड यानी बैगी उस के लुक को प्रीमियम व स्पेशियस बनाता है. अगर स्पेस की बात की जाए तो अमेज के व्हीलबेस को ब्रियो से बढ़ा दिया गया है. दोनों कारों में बराबरी की टक्कर है. दोनों में इंटीग्रेटेड म्यूजिक सिस्टम है, एडजस्टेबल सीट हैं. म्यूजिक सिस्टम के सारे कंट्रोल स्टीयरिंग में दिए गए हैं. दोनों ही कारों में 5 लोगों के बैठने के लिए पर्याप्त स्पेस है. लेकिन डिजायर एकमात्र ऐसी गाड़ी है जिस में क्लाइमैट कंट्रोल की सुविधा दी गई है, साथ ही उस के डैश बोर्ड के मैटीरियल की क्वालिटी भी बैस्ट है. अमेज की गहरी फं्रट सीट और ऐक्सटैंडेड व्हीलबेस की वजह से पीछे की सीट में दी गई अतिरिक्त लैग स्पेस के चलते इस ने यहां बाजी मार ली है.

अमेज का बूट स्पेस जहां 400 लिटर का है वहीं डिजायर का 316 लिटर का है. दोनों में 1.2 लिटर व 4 सिलैंडर वाला इंजन है. पावर आउटपुट भी दोनों में समान है लेकिन ड्राइविंग सीट पर बैठ कर आप को डिफरैंस अवश्य महसूस होगा. जहां डिजायर का टर्निंगस्केल 4-8 मीटर का है वहीं अमेज का 4.7 मीटर का है. डिजायर के फ्रंट ब्रेक बैटिलेटेड हैं जबकि अमेज में डिस्क ब्रेक हैं. रियर ब्रेक दोनों में ही ड्रम हैं. जहां डिजायर के फीचर अपडेटेड हैं. डिजायर की अधिकतम स्पीड 138 किलोमीटर प्रतिघंटा है जबकि अमेज की 166 किलोमीटर प्रतिघंटा. जहां अमेज 0 से 100 किलोमीटर की रफ्तार 13.4 सैकेंड में पकड़ती है वहीं डिजायर 11.7 सैकेंड में यह रफ्तार पकड़ती है. सस्पैंशन और केबिन साउंड के हिसाब से डिजायर, अमेज से आगे है. इस का श्रेय इस के 15 इंच के बड़े व्हील को जाता है जिस की वजह से ड्राइविंग में ऐक्स्ट्रा कंफर्ट मिलता है. अगर आप शहर में स्ट्रैसफ्री ड्राइविंग चाहते हैं तो डिजायर चुनिए लेकिन अमेज को चुनना भी कम सुखद अनुभव नहीं होगा. निर्णय आप का है.    

सौजन्य : बिजनैस स्टैंडर्ड मोटरिंग

बौडी पार्ट्स से झलकती लैंग्वेज

बौडी लैंग्वेज हमारे विचारों के आदानप्रदान में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. कहते हैं कि ताश के खिलाड़ी अपनी चाल तय न कर पाने की वजह से एकदूसरे की ओर ताक लगाए बैठे रहते हैं, ताकि किसी भी तरह उन्हें अपने अगले दांव का सूत्र मिल जाए. इसी तरह से हमारे व्यक्तित्व की चाबी है बौडी लैंग्वेज, जो हमारी अंदरूनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने में काफी कारगर होती है.

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, शब्द हमारी बातचीत का सिर्फ एकतिहाई हिस्सा हैं और जब तक शब्दों के साथ चेहरे की भंगिमाएं और हावभाव शुमार न हों, बातचीत अधूरी रह जाती है. जीवन में किसी भी इंसान की वर्तमान मानसिक स्थिति जानने के लिए उस के शब्दों और शरीर के विभिन्न अंगों की गतिविधियों को सूक्ष्मता से परखना होता है. ऐसे बहुत से शारीरिक संकेत हैं जिन का अर्थ काफी सीक्रेट होता है और वे हमें सामने वाले के प्रति और ज्यादा चौकन्ना कर देते हैं.

1.    शरीर के सभी अंग किसी तरह नकारात्मक या सकारात्मक संकेत देते हैं. इस में चेहरे को सब से ज्यादा अहमियत दी जाती है. सिर का हिलाना यानी किसी चीज के लिए सहमति देना होता है या फिर धैर्य रखना. सिर ऊपर उठा कर चलना या ऊपर की ओर सधी हुई नाक घमंड का द्योतक होता है या फिर एकांतता में यकीन करने का. कांपते होंठ दिल पर गहरी चोट पहुंचने का संकेत देते हैं.

2.    चमकती हुई आंखें, डरावनी आंखें, गहरी आंखें, गुस्से से भरी आंखें, इतने सारे भावों वाली होने के कारण आंखों को मन का आईना भी कहा जाता है. बातचीत के दौरान हम एकदूसरे की आंखों में जितना देखते हैं, संबंध उतने ही मजबूत बनते हैं. बंद आंखें सीक्रेसी या आराम करने की इच्छा जताती हैं. झुकी हुई, इधरउधर निहारती हुई आंखें कुछ छिपाने की कोशिश करती हैं. घूरती हुई आंखें किसी की आक्रामक प्रवृत्ति को प्रतिबिंबित करती हैं. अधखुली और बुझी हुई सी आंखें ऊब जाने की दशा जाहिर करती हैं. बातचीत के दौरान आंखें मिला कर बात न करना दर्शाता है कि व्यक्ति असुरक्षा का शिकार है या फिर लापरवा है.

3.    भौंहें भी किसी न किसी तरह भावनाएं शेयर करती हैं. ऊंची भौंहें इंसान की परेशानी की सूचक होती हैं.

4.    बातचीत के समय हाथपांवों की गतिविधियां हमारे व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने में सहायक होती हैं. यह एक अच्छे वक्ता की पहचान है कि वह बोलते वक्त अपने हाथों और पांवों का भी इस्तेमाल करता हो.

5.    बातचीत के दौरान अपनी बांहें या टांगें क्रौस न करें, इस से आप की मुद्रा तनावग्रस्त नजर आएगी. अपने हाथ सिर के पीछे बांधना अतिरिक्त आत्मविश्वास का सूचक होता है. बातचीत के दौरान पैर हिलाना व टेबल पर उंगलियां फिराना घबराहट का सूचक होता है. हैंडशेक हलके हाथों से किया जाए तो यह कम उत्सुकता को दर्शाता है. कस कर, हाथों को दबा कर किया गया हैंडशेक व्यावसायिकता की पहचान है.

6.    मुंह के ऊपर या चेहरे पर हाथ रखना नकारात्मक बौडी लैंग्वेज का सूचक है.

7.    मुट्ठी भींचना गुस्से का सूचक होता है, वहीं मुट्ठी बंद करना डर का संकेत देता है. बातचीत के दौरान नाख्ून कुतरना और बारबार नाक को छूना सामने वाले की नर्वसनैस को दर्शाता है. 

सौंदर्य रखें बरकरार

सौंदर्य उम्र का मुहताज नहीं होता. जब कोई आप को देख कर कहता है, ‘आप की त्वचा से उम्र का पता ही नहीं चलता,’ तो यह बात सच हो जाती है. 40 प्लस के बाद यह माना जाता है कि नारी सौंदर्य अपने ढलान पर होता है लेकिन यही वक्त है जब आप अपनी खूबसूरती बरकरार रख कर जवां सौंदर्य को मात दे सकती हैं. कैसे, हम बताते हैं.

भरपूर नींद लेने के बाद सुबह उठ कर दैनिक क्रिया से निबटें. फिर थोड़ा प्राकृतिक आबोहवा का लुत्फ उठाएं. नियमित रूप से व्यायाम, सैर शरीर की मांसपेशियों को क्रियाशील बनाते हैं. जिस्म निखरता है. छरहरा शरीर उम्र भी कम दर्शाता है. लेकिन पतले होने के चक्कर में उचित खानपान, पौष्टिक आहार से परहेज न करें वरना शरीर में विटामिन, कैल्शियम, खून की कमी हो जाएगी और इन की कमी शरीर को दुर्बल बना कर आप की उम्र की रेखाओं को और बढ़ा देगी.

खाने में दूध, पनीर, दही, सूखे मेवे शामिल करें. रसभरी, संतरा, स्ट्रौबैरी, अमरूद व विटामिन ‘सी’ युक्त फल खाएं. फाइबरयुक्त दलिया, ब्राउन राइस, ब्रोकोली, सोयाबीन का भी सेवन करें. जहां तक हो सके कैफीन और सोडा पेय में कटौती करें और जंक फूड से दूर रहें. दिनभर में 10-12 गिलास पानी पीएं. इस से त्वचा डाइड्रेटैड रहेगी. चिंतामुक्त रहने की कोशिश करें. शरीर को पर्याप्त आराम देने के लिए 6-8 घंटे की नींद लें. इन सब का भी चेहरे की चमक पर असर पड़ता है.

इस के अतिरिक्त मिल्क क्रीम, चंदन और हलदी जैसे प्राकृतिक फेसपैक चेहरे की रौनक बढ़ाते हैं. दूध त्वचा को आवश्यक पोषण प्रदान करता है. हलदी विरोधी बैक्टीरियल गुणों से भरपूर होती है. चंदन शीतलता प्रदान करता है. इन  सब को अपनाने से आप की त्वचा में अतिरिक्त चमक आएगी और देखने वाले कहेंगे, ‘आप की तो उम्र घटती जा रही है, आप तो फिर से जवां हो रही हैं.’

आसाराम : संत के चोले में ऐयाशी

साल 2013. साधु सुंतों और महात्माओं के देश भारत के उत्तर प्रदेश का जिला शाहजहांपुर, जो क्रांतिकारी शहीदों की जन्मभूमि, खूबसूरत कालीनों की निर्माणस्थली और चीनी मिलों की मिठास के लिए जाना जाता है, आजकल कथावाचक आसाराम द्वारा तथाकथित यौन उत्पीड़न की शिकार हुई उस नाबालिग लड़की के लिए चर्चा में है जिस के पिता आसाराम को अपना ‘भगवान’ मानते थे. शहर में चारों ओर आसाराम को ले कर हंगामा बरपा हुआ है. एक तरफ आसाराम के समर्थक शहर में प्रदर्शन कर रहे हैं तो दूसरी ओर शहर के आम लोग आसाराम का पुतला फूंक कर अपने गुस्से का इजहार कर रहे हैं. 

पीडि़त परिवार को आसाराम के समर्थकों द्वारा धमकियां मिल रही हैं. युवती के घर को पुलिस सुरक्षा मुहैया करवा दी गई है. घर के मुख्य गेट पर 2 कौंस्टेबलों को और घर के भीतर 1 दारोगा व 2 महिला कौंस्टेबलों को तैनात किया गया है जो चौबीसों घंटे उन के घर पर मौजूद रहते हैं. मीडियाकर्मियों का उन के घर आनाजाना लगा हुआ है. कुछ दिन पहले एक महिला ने पत्रकार के भेष में कई दिनों तक उन के घर में प्रवेश करने का प्रयास किया लेकिन पुलिस ने उसे भीतर नहीं जाने दिया. इसी कारण मीडियाकर्मियों को काफी छानबीन के बाद ही घर के भीतर जाने की इजाजत दी जा रही थी. जब हम पीडि़ता के घर उस के पिता से मिलने पहुंचे तो हमें मुख्य गेट पर बैठे 2 कौंस्टेबलों ने रोक लिया. उन में से 1 क ौंस्टेबल हमारा प्रैस कार्ड ले कर भीतर मौजूद दारोगा के पास गया. कुछ समय बाद आ कर उस ने हमें इंतजार करने को कहा.

सुबह के 11 बज चुके थे और धूप तेज होती जा रही थी. हम घर के बाहर बैठे रहे. 20 मिनट के बाद भीतर से दारोगा साहब ने हमें ऊपर बैठाने का संदेश कौंस्टेबल के जरिए भेजा. हम घर की पहली मंजिल पर पहुंचे. दारोगा ने बताया कि किशोरी के पिता पूजापाठ कर रहे हैं, कुछ समय लगेगा. हम बरामदे में पड़े नए डिजाइन की लकड़ी की कुरसी पर बैठ गए.

पिता की नादानी

मुख्य सड़क पर स्थित पीडि़त किशोरी के घर का यह वह हिस्सा था जिस में पीडि़ता के पिता ने आसाराम व उन के साधकों के लिए हर तरह की सुखसुविधाओं से भरपूर कमरे बनवाए थे. एसी लगवा कर और बढि़या रंगरोगन करवा कर एक कमरे में एक बैड और अच्छा फर्नीचर डलवाया था. इसी कमरे में अकसर सत्संग किया जाता था और साधक आ कर ठहरते थे.

ग्राउंड फ्लोर पर पीडि़ता के पिता व 21 वर्षीय भाई ट्रांसपोर्ट का कारोबार करते हैं. इसी फ्लोर से साथ वाले मकान में एक खिड़कीनुमा दरवाजा निकाला गया है. दोनों घरों में भीतर से ही आवाजाही के लिए शायद इस दरवाजे को खोला गया था हमें दारोगा ने उस कमरे में इंतजार करने को बैठा दिया जहां आसाराम का बेटा नारायण साईं एक बार आ कर रुका था और वहीं पड़े बैड पर सोया था. उन के इस घर में आसाराम के चरण भी पड़ चुके हैं. कुछ देर बाद पीडि़ता के पिता उसी दरवाजे से होते हुए कमरे में आ कर बैठ गए.

कभी आसाराम को अपना भगवान मानने वाले इस शख्स क ो आज आसाराम के नाम से ही घृणा है. वे अपनी बेटी के इस गुनाहगार को सख्त से सख्त सजा दिलाना चाहते हैं. युवती के पिता एक साधारण जाट परिवार से हैं जिन का कद लगभग 6 फुट के आसपास होगा. बातचीत के दौरान उन की आवाज में रुदन था. रुदन एक तरफ विश्वास के चकनाचूर हो जाने का तो दूसरी तरफ उन की नादानी की सजा बेटी को भुगतने का. वे कहते हैंकि मीडिया ने उन्हें काफी सहयोग दिया है. इस के लिए वे उस के आभारी हैं. उन के द्वारा सुनाई गई आपबीती को बयां करने से पहले हम पाठकों को उस घटना के बारे में बता रहे हैं जिस के आरोप में आसाराम सलाखों के पीछे हैं.

गत 16 दिसंबर को दिल्ली में चलती बस में एक युवती के साथ हुई सामूहिक दुष्कर्म की घटना पर आसाराम ने जब पीडि़ता को भी बराबर का जिम्मेदार ठहराते हुए बलात्कारियों का बचाव किया और कहा कि गलती एक तरफ से नहीं होती, तभी आसाराम की बलात्कारी सोच दुनिया के सामने उजागर हो गई थी.

अपने उक्त बयान के लगभग 8 महीने बाद अब आसाराम अपने एक साधक की 17 वर्षीय बेटी का यौन उत्पीड़न किए जाने के आरोप में खुद सलाखों के पीछे हैं. वैसे अपनी साधिकाओं व अपने पास आने वाली महिलाओं के साथ उन के अवैध संबंधों का खुलासा समयसमय पर होता रहा है लेकिन ऐसे किसी मामले में जेल की हवा वे पहली बार खा रहे हैं.

पीडि़त किशोरी के पिता 10-12 वर्षों से आसाराम बापू के साधक थे. आसाराम की सलाह पर ही उन्होेंने 5-6 वर्ष पूर्व अपनी बेटी का दाखिला आसाराम के मध्य प्रदेश में छिंदवाड़ा स्थित गुरुकुल में 7वीं कक्षा में करवाया था. वर्तमान में वह 12वीं कक्षा की छात्रा थी.

महंगी भक्ति

मामला बीते अगस्त माह में शुरू होता है जब युवती के पिता को छिंदवाड़ा गुरुकुल से फोन द्वारा सूचित किया गया कि उन की बेटी की तबीयत खराब है. गुरुकुल से सूचना पा कर किशोरी के मातापिता तुरंत छिंदवाड़ा आश्रम के लिए रवाना हो गए. वहां उन्हें बताया गया कि फिलहाल उन की बेटी की तबीयत में सुधार है लेकिन, तबीयत पूरी तरह ठीक करने के लिए झाड़फूंक व अनुष्ठान किए जाने की जरूरत है. किशोरी के पिता से कहा गया कि यह अनुष्ठान खुद आसाराम बापू द्वारा किया जाएगा. उन्हें बताया गया कि आसाराम राजस्थान में जोधपुर के पास मणाई गांव में अपने एक शिष्य के आश्रम में ठहरे हुए हैं.

किशोरी के पिता अपनी बेटी को ले कर उक्त आश्रम में पहुंचे. वहां आसाराम ने उन से कहा कि रातभर की पूजा और अनुष्ठान होने पर आप की बेटी हमेशा के लिए ठीक हो जाएगी. अनुष्ठान की तैयारी की गई. आसाराम किशोरी को कमरे में ले गए. फिर वहां से वे उसे एक गुप्त दरवाजे से एक अन्य कमरे में ले गए, जहां आसाराम व उन के 3 शिष्यों ने मिल कर किशोरी के साथ कई घंटे तक यौन उत्पीड़न का नंगा नाच किया.

व्यथा वर्णन

पीडि़त किशोरी के पिता ने आसाराम के प्रति अपनी भक्ति से ले कर उन के राक्षसी रूप के खुलासे तक की पूरी कहानी बयां की. पेश है उन्हीं की जबानी यह कहानी :

मैं ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि आसाराम का साधक बन कर उन की भक्ति करना मुझे इतना महंगा पड़ने वाला है. इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि वही व्यक्ति मेरी बेटी को अपनी हवस क ा शिकार बना लेगा जिस की तसवीर के सामने बैठ कर मैं घंटों माला जपता था. पूरेपूरे दिन भूखेप्यासे रह कर उन की साधना करता था.

आसाराम के 60-70 हजार पूर्णव्रतधारी साधकों में मैं भी एक था. ये साधक पूर्णिमा के दिन आसाराम के दर्शन के बिना अन्नजल ग्रहण नहीं क रते हैं. मैं ने जिस दिन से दीक्षा ली थी उसी दिन से यह व्रत ले लिया था. यह व्रत मैं हर माह रखता था और सर्दीगरमीबरसात हर मौसम में, जहां भी आसाराम होते थे वहां जाता था, उन के दर्शन करने के बाद ही अन्नजल ग्रहण करता था. मेरे इस अंधविश्वास के कारण आज मेरे बच्चों की पढ़ाईलिखाई सब बंद है. उन का 1 साल बरबाद हो गया है. हर पल डर के वातावरण में गुजरता है.

किस तरह वे आसाराम के संपर्क में आए और अपना सबकुछ उन पर न्योछावर करने को आतुर रहने लगे, इस बारे में वे यों बताते हैं :

साल 2001 के जनवरी महीने में आसाराम का बरेली में सत्संग था. उस से पहले मेरा भतीजा रोहतक गया था जहां से वह ‘ऋषि प्रसाद’ नामक पत्रिका ले आया जो आसाराम द्वारा प्रकाशित की जाती है. मैं ने पत्रिका पढ़ी तो मुझे बहुत अच्छी लगी. मुझे लगा कि ये बाबा तो बहुत बढि़या बातें बताते हैं, इन से मिलना चाहिए, इन का सत्संग सुनना चाहिए.  इत्तफाक से 2-3 महीने बाद शहर में जगहजगह लगे पोस्टरों के माध्यम से इन के बरेली आगमन की खबर हमें लगी.

इन का सत्संग सुनने हम बरेली चले गए. वहां हमें इन की बातें बहुत पसंद आईं जिस में उन्होंने बताया कि गुरु के बिना गति नहीं है. बगैर गुरु के मुक्ति नहीं होती, बगैर गुरु के भगवान से मिलन नहीं हो सकता. इन की बातों से प्रभावित हो कर हम ने इन्हें गुरु बनाने का मन बना लिया और साल 2002 में इन से दीक्षा ले ली.

दीक्षा ले कर उन्हें अपना गुरु बनाने की इच्छा जताने वालों को बता दिया जाता है कि फलां दिन फलां समय पर गुरुदीक्षा दी जाएगी. लोग निर्धारित दिन व समय पर पंडाल में इकट्ठे हो कर बैठ जाते हैं. इस  के बाद आसाराम अपना दीक्षा कार्यक्रम शुरू करते हैं. जिस में वे कहते हैं कि यहां बैठे जितने लोगों के इष्टदेव शिव, भगवान हैं वे हाथ खड़ा कर लें. जो लोग हाथ खड़ा कर लेते हैं वे उन्हें ‘ओम् नम: शिवाय’ का मंत्र दे देते हैं. जो लोग कृष्ण को मानते हैं उन्हें ‘कृष्णाय नम:’ का मंत्र जाप करने को कहते हैं. इसी तरह राम को मानने वालों को ‘ओम् रामाय नम:’ का मंत्र देते हैं. जितनी भी मालाएं ये जपने को बताते हैं उतनी मालाएं साधक को जपनी होती हैं. यही मंत्र दीक्षा होती है. जिस समय मैं ने दीक्षा ली थी उस समय भी

3 से 4 हजार लोग दीक्षा लेने के लिए बैठे थे. आसाराम कहते हैं, ‘जो उन से दीक्षा लेने आएगा वह दानदक्षिणा कुछ भी ले कर नहीं आएगा.’ उन की इस बात से लोग बहुत ही प्रभावित होते हैं. लेकिन अपरोक्ष रूप से दक्षिणा उसी दिन से शुरू हो जाती है जिस दिन से व्यक्ति इन का साधक बनता है.

धर्म का धंधा

साधकों को उन के साहित्य स्टाल से साधक को मंत्र दीक्षा का सामान खरीद कर लाने को कहा जाता है, जिस में माला, गोमुखी, आसन व अन्य कई पूजापाठ की सामग्री होती है. यह सामग्री कम से कम 140-150 रुपए की होती है. सत्संग में इन सामानों की दुकानें लगी होती हैं. सत्संग खत्म होने पर उठ कर चलने वाला इन दुकानों पर अवश्य रुकता  है. कहीं इन की किताबें बिकती हैं तो कहीं दवाइयां और शरबत. धूप, अगरबत्ती, चंदन, रूह अफजाह, साबुन भी लोग खरीदते चलते हैं. इस तरह आसाराम का धंधा चलता रहता है.

इस के बाद आसाराम अपना अगला वार करते हैं और बातों को घुमाफिरा कर अपने मतलब पर ले आते हैं. यह कार्य उन का पुत्र, उन का दत्तक पुत्र व उन के सेवक निभाते हैं, जो साधकों को बताते हैं कि गुरूर्ब्रह्मा, गुरूर्विष्णु, गुरूर्देव महेश्वरा; यानी भगवान विष्णु, ब्रह्मा व शिव ये तीनों ही इन गुरु में समाहित हैं इसलिए इन तीनों की अगलअलग पूजा करने के बजाय आसाराम की पूजा करो.

पूजा सामग्री के साथ इन का फोटो दिया जाता है. साधक को बताया जाता है कि तसवीर की पूजा करोगे तो सारे देवों की पूजा हो जाएगी. इसलिए लोग इन की फोटो रख कर इन की पूजा शुरू कर देते हैं. इस तरह साधक इन से जुड़ जाता है, उसे लगता है कि ये तो भगवान हैं और फिर वह पीछे मुड़ कर नहीं देखता.

इस के बाद इन के सेवक साधकों को धीरेधीरे मीडिया के खिलाफ भड़काते हैं. कहा जाता है कि प्रिंट व इलैक्ट्रौनिक मीडिया को विदेशों से पैसा मिलता है संतों को बदनाम करने के लिए. यदि संत बदनाम होंगे तो हिंदू धर्म में लोगों की आस्था कम होगी. इस प्रकार ये साधकों का ब्रेनवाश कर देते हैं. यही वजह है कि इन के आश्रमों में अनेक घटनाएं घटने के बाद भी इन के साधकों का इन पर से विश्वास जरा भी नहीं डिगा, किसी ने इन के खिलाफ हुई बातों पर जरा भी यकीन नहीं किया. यही पहला फार्मूला है.

अहमदाबाद और छिंदवाड़ा में जब इन के आश्रमों में 2 बच्चों की बलि लेने की बात आई तो हमारे मोबाइल पर मैसेज आता था कि कोई भी आदमी न्यूज चैनल नहीं देखेगा. यह संदेश हमें ‘ऋषि प्रसाद’ पत्रिका व सत्संग के माध्यम से भी दिया जाता था. केवल ‘ए2जेड’ या ‘सुदर्शन’ चैनल ही देखने का निर्देश दिया जाता है.

उन के साधक बाकी चैनलों को बंद करवा देते थे. यही कारण है उन के साधक दुनियादारी से कटे रहते हैं. वे सिर्फ इन के धार्मिक चैनल देख क र, उन की पत्रिका पढ़ कर व सत्संग सुन कर उन के पिछलग्गू बने रहते हैं. उन का दायरा वहीं तक सिमट जाता है. लोगों को मीडिया के खिलाफ करने के बाद सत्संग के माध्यम से उन के साधक पूरी तरह इस बात पर जोर देते हैं कि हमें गुरु में निष्ठा होनी चाहिए. गुरु को ब्रह्माविष्णुमहेश मान कर निष्ठा रखनी चाहिए. इसलिए हर साधक गुरु में पूरी तरह निष्ठा रखता है यह सोच कर कि यदि गुरु प्रसन्न होंगे तो भगवान प्रसन्न होंगे.

फिर कुछ दिनों बाद इन के सेवक आसाराम के साधकों के सामने दूसरा तुरुप का पत्ता फेंकते हैं. कहते हैं, खाली माला जपने या साधना करने से कुछ नहीं होगा. जब तक तुम सेवा नहीं करोगे तब तक कुछ नहीं होगा. आसाराम कहते हैं कि सिर्फ मेरी चरणभक्ति करना ही सेवा नहीं है. जो भी, तुम मेरा कार्य करोगे वह गुरु व भगवान की सेवा मानी जाएगी. तुम ‘ऋषि प्रसाद’ या ‘लोक कल्याण सेतु’ नामक पत्रिका घरघर जा कर लोगों में बांटो या ‘ऋषि दर्शन’ नामक सीडी बांट कर लोगों में गुरु की महिमा बताओ, ईश्वरीय सेवा व गुरु सेवा मानी जाएगी.

यानी पूरी तरह से साधकों को यह बता दिया जाता है कि माला भी जपनी है और गुरु सेवा भी करनी है. साधक ऐसा ही करते हैं, जैसे कहीं प्याऊ बनवा कर उन के नाम का बैनर लगवा देते हैं या कहीं भंडारे करवा कर उन के नाम का प्रचार करते हैं. भंडारे में सारा पैसा साधक का लगा होता है और बैनर पर लिखा होता है ‘संत श्री आसाराम आश्रम की ओर से भंडारा.’ साधक जीजान से इन कामों में जुटे रहते हैं. पूरे देश में जगहजगह इन के नाम पर कपड़े बंटवाते हैं. मैं ने भी 11-12 सालों तक जम कर ये सब कार्य किए.

आसाराम से दीक्षा लेने से पहले मैं वैष्णो देवी को मानता था. हर साल उन की यात्रा पर जाता था, परिवार के साथ. मेरा पूरा परिवार आसाराम का भक्त था. मैं ने अपने बड़े बेटे को भी दीक्षा दिलवा दी थी. ऐसा मैं ने इसलिए किया क्योंकि आसाराम द्वारा सदा इस बात के लिए प्रेरित किया जाता है कि जो बगैर मंत्र दीक्षा के  मर जाएगा उसे 84 लाख पाप योनियों में भटकना पड़ेगा. इसलिए मैं ने सोचा कि हमारे पूरे खानदान को मंत्र दीक्षा मिल जाए ताकि वे 84 लाख पाप योनियों में जाने से बच जाएं.

जहां तक बेटी और छोटे बेटे को उन के गुरुकुल में दाखिला दिलाने का सवाल है तो खुद आसाराम ने ही सत्संग में कहा था कि इन स्थानों पर मेरे गुरुकुल हैं. जिन के बच्चे मेरे इन आश्रमों में पढ़ेंगे वे बड़े हो कर बहुत होनहार बनेंगे. कोई बड़ा अधिकारी बनेगा, कोई बड़ा मंत्री बनेगा. इस प्रकार उन्होंने प्रेरित किया और हम ने 6-7 साल पहले अपनी बेटी का दाखिला इन केछिंदवाड़ा आश्रम में 7वीं कक्षा में करवा दिया और छोटे बेटे का तीसरी कक्षा में दाखिला करवाया. ये भरपूर खर्चा लेते थे. 1 लाख रुपए तो मैं ने ऐडवांस में जमा करवाया था. बाकी 1 बच्चे का सालाना 60-70 हजार रुपए का खर्च आता था. लेकिन हम ने उस पर कभी ध्यान नहीं दिया यह सोच कर कि यह भी एक प्रकार से दान हो रहा है.

गुरुकुल में बच्चों का एक पीरियड गुरु में निष्ठा और ध्यान का होता था. हम हर माह अपनी बेटी से बात करते थे. हर दीवाली पर उसे घर ले आते थे. हमारे क्षेत्र के 10-12 बच्चे वहां पढ़ते थे. अब सब ने अपने बच्चों को उन के आश्रम से निकाल लिया है. केवल एक लड़की बची है जो मेरी बेटी के साथ पढ़ती थी जिसे उस के पिता अगले साल निकालने वाले हैं. अब इस क्षेत्र में उन अधिकांश लोगों ने आसाराम की तसवीरों को नष्ट कर दिया है जिन्हें सामने रख कर वे पूजापाठ किया करते थे.

घिनौनी साजिश

मेरी बेटी की तबीयत खराब होने की सूचना मुझे छिंदवाड़ा आश्रम की वार्डन शिल्पी द्वारा फोन पर दी गई जिस ने मुझ से कहा कि आप तुरंत चल पड़ो, आप की बेटी सीरियस है. मैं ने उन से कहा कि आप अच्छे डाक्टर से इस का इलाज करवाएं, मैं वहां आ कर सारा पैसा दे दूंगा. इस पर उस ने कहा कि शायद सीटी स्कैन करवाने के लिए नागपुर ले जाना पड़े. मैं ने उन से कहा कि आप ले जाओ और अच्छे से ट्रीटमैंट करवाओ, हम आ रहे हैं. बेटी से बात हुई तो उस ने कहा कि पापा, ये लोग कह रहे हैं कि अपने मम्मीपापा को बुला लो.

यह सब मेरी बेटी को आसाराम के पास भेजने का एक बहाना मात्र था. खैर, मैं अपनी पत्नी के साथ छिंदवाड़ा के लिए अपनी कार से निकल पड़ा. वहां पहुंच कर हम अपनी बेटी से मिले और उसे जोधपुर आश्रम ले जाने के लिए निकले लेकिन पत्नी की तबीयत खराब हो जाने की वजह से हम वहां से घर आ गए. फिर कुछ दिन बाद हम जोधपुर आश्रम के लिए रवाना हुए. वहां मुझे और मेरी पत्नी को आसाराम की कुटिया के निकट बने मकान में ठहराया गया और रात में अनुष्ठान करने के बहाने उन्होंने मेरी बच्ची के साथ इस घिनौनी करतूत को अंजाम दिया.

दरअसल, मैं अपने बच्चों को गुरुकुल में पढ़ने के लिए नहीं भेजना चाहता था लेकिन पत्नी की जिद थी कि बच्चों का बापू के आश्रम में ही दाखिला करवाओ. मैं मना करता रहा कि बच्चे हमारे साथ ही ठीक हैं. पत्नी मुझ से ज्यादा उन की साधक थी. मैं ने पत्नी की खुशी की खातिर वहां बच्चों का दाखिला करवा दिया. वरना यहां एक से एक बढि़या स्कूल मौजूद हैं. अब पत्नी पछताती है.

जिस दिन उक्त घटना घटी उस दिन भी मैं पत्नी से कहता रहा कि चलो, बेटी को निकालो अंदर से. लेकिन वह बोली कि नहीं, बेटी का मंत्र अधूरा रह जाएगा, अनुष्ठान अधूरा रह जाएगा. जब तथाकथित अनुष्ठान पूरा हो गया तो जोधपुर से सुबह उन्होंने हमें स्टेशन पर छुड़वा दिया था.

सुबह जब मैं ने बेटी के सिर पर हाथ रख कर पूछने का प्रयास किया कि बापू का आचरण कैसा है तो उस की आंखों में आंसू आ गए थे. तभी मुझे कुछ गलत होने का एहसास हो गया था. उस ने बस इतना कहा था कि जल्दी घर चलो यहां से. मैं ने अपनी पत्नी से कहा कि बेटी से पूछो कि क्या हुआ है. लेकिन उस समय बेटी ने इस डर से कि उस के मातापिता को आसाराम भस्म न कर दे, वह चुप रही.

जब घर आ कर वह थोड़ी नौर्मल हो गई तो अगले दिन उस ने सारी घटना बताई. सब सुन कर मुझे बहुत गुस्सा आया और मैं आसाराम से मिल कर उस से बात करना चाहता था. मैं पत्नी और बेटी को ले कर दिल्ली के लिए रवाना हो गया जहां 19-20 अगस्त को रामलीला मैदान में आसाराम का सत्संग हो रहा था. हम 19 अगस्त को दोपहर बाद दिल्ली पहुंच गए थे. हमारे अंदर आसाराम की इस करतूत को ले कर गुस्सा भरा हुआ था, लेकिन हमें मालूम था कि यहां इतनी भीड़ है, कुछ कहने पर आसाराम के समर्थक हमें मार डालेंगे. हम ने सोचा कि हम धरने पर बैठेंगे या कानूनी कार्यवाही करेंगे.

यह सोच कर हम कमला मार्केट थाने में आसाराम के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाने पहुंचे. वहां पुलिस ने रिपोर्ट लिखने में काफी नानुकुर की. कहा कि जोधपुर जा कर लिखवाओ. हम ने कहा कि अगर आप ने रिपोर्ट नहीं लिखी तो हम धरने पर बैठ जाएंगे, तब जा कर उन्होंने हमारी रिपोर्ट लिखी. इस के बाद आसाराम के समर्थकों द्वारा हमें खूब डरानेधमकाने की कोशिशें की गईं. आज मुझे पछतावा इस बात का है कि मैं ने अपना सबकुछ आसाराम पर न्योछावर कर दिया. अपने घर के एक हिस्से को पूरी तरह से उन के सत्संग व उन के रहने के लिए तैयार करवा दिया. उन का बेटा एक बार यहां इसी कमरे में सोया था जिस कमरे में आप बैठी हैं. उस के बाद उस का दत्तक पुत्र भी यहीं पर आ कर रुका था.

ढाईतीन साल पहले जब मैं ने यहां सत्संग करवाया था तब आसाराम भी मेरे घर आए थे. मैं ने अपने घर में उन की चरणफिराई करवाई थी. किसी के घर में चरणफिराई के वे कम से कम 51 हजार या 1 लाख रुपए लेते हैं. इसे ही चरणफिराई कहा जाता  है. हम ने हमेशा अपने सामर्थ्य से अधिक उन्हें देने का प्रयास किया.

मैं ने 10-11 साल उन की सेवा में लगाए. हर रोज 4 घंटे पूजा करता था, 2 घंटे उन का साहित्य बांटता था. हजारों साहित्य बांटे मैं ने. जो पैसा घरगृहस्थी में खर्च करना चाहिए था वह सब उन की सेवा में लगा दिया. यह सोच कर कि भगवान प्रसन्न हो जाएंगे और हमें संसार से मुक्ति मिल जाएगी.

यहां हम ने उन के नाम पर आश्रम का निर्माण करवाया, जिस में लगभग 30-32 लाख रुपए का खर्च आया था. हम सब ने मिल कर आश्रम के लिए जमीन खरीदी. जिस की जितनी श्रद्धा थी उस ने उतना चंदा दिया, बाकी सारा पैसा मैं ने अपने पास से लगाया. ऐसा ही सत्संग में होता, जितना लोगों ने दे दिया वह दे दिया, बाकी मैं अपने पास से खर्च कर देता था. हर साल संकीर्तन यात्रा करवाते थे जिस में लाख से सवा लाख रुपए का खर्च आता था. उस में हम हजारों रुपया पानी की तरह बहाते थे.

धर्म के चोले में छिपे पाखंडी

मैं और मेरी पत्नी दोनों ही 10वीं क्लास पास हैं. मेरा जन्मस्थान हरियाणा है और मेरी पत्नी रोहतक की है. 30 साल पहले मैं यहां आ बसा था. मैं ने दिल्ली से अपने कारोबार की शुरुआत की. फिर पानीपत, गाजियाबाद में कारोबार किया और फिर यहां शाहजहांपुर में आ बसा. जब काम ठीकठाक चलने लगा तो मैं ने सोचा कि अब थोड़ी भगवान की भक्ति की जाए.

पीडि़त किशोरी के पिता के मुंह से बयां यह दास्तां धर्म के चोले में छिपे किसी पाखंडी के पापों की कोई पहली या आखिरी कहानी का खुलासा नहीं है लेकिन नई बात यह है कि आस्था के नाम पर इन पाखंडी साधुसंतों पर किस तरह लोग अपना सबकुछ न्योछावर कर देते हैं और खुद पर सबकुछ न्योछावर करने देने वाले ये संत अपने भक्त की बेटी को भी अपनी हवस का शिकार बनाने से बाज नहीं आते, यह रोंगटे खड़े कर देने वाली है.

पीडि़ता के पिता के मुंह से कही गई इस कहानी के बाद यह साफ हो जाता है कि धर्म की दुकानें किस तरह चलाई जाती हैं. लोगों को किस तरह पागल बना कर उन्हें लूटापीटा जाता है. धर्म और आस्था के नाम पर हमेशा से लोगों, विशेषकर औरतों का शारीरिक और मानसिक शोषण किया गया है. लोगों को पापपुण्य का भय दिखा कर कंगाल किया गया है.

पिछले एक दशक में भगवा चोलों में छिपे पाखंडी लोगों की ऐयाशियों का जिस तरह परदाफाश हुआ है उस ने भगवाधारियों के माथे पर चिंता और भय की मिलीजुली लकीरों को जरूर उकेर दिया है. चाहे वह स्वामी नित्यानंद हो, जो खुद को कृष्ण बताता था और उस के प्रवचनों से मोहित हो कर महिलाएं उस के आश्रमों में चली आती थीं और नित्यानंद उन्हें बहलाफुसला कर धीरेधीरे अपने बैडरूम तक ले जाता था. इसी तरह पाखंडी स्वामी भीमानंद की पाप की नगरी भी लुट गई जब धर्म की दुकान की आड़ में उस के सैक्स रैकेट का परदाफाश हुआ.

हैरानी यह है कि इन पाखंडी लोगों के असली चेहरे सामने आ जाने के बावजूद हम जागने को तैयार नहीं हैं. धर्मगुरुओं के  आह्वान पर अपने परिवारों सहित दुर्गम धार्मिक यात्राओं पर असमय मरने को रवाना हो जाते हैं, कथावाचकों की चिकनीचुपड़ी बातों में आ कर उन के नाम की माला जपते हैं, अपना सारा कामकाज छोड़ कर सत्संगों में अपना समय बरबाद करते हैं.

आज सब पानी पीपी कर आसाराम को कोस रहे हैं, लेकिन क्या यह सच नहीं है कि आसाराम को भगवान बनाने वाले या उसे मनमानी करने का लाइसैंस देने वाले हम खुद ही हैं. इस के बाद हम किस बात का रोना रोते हैं जब हम अंधे हो कर साधुसंतों की चकाचौंध और आवरण से प्रभावित हो कर उन पर अपना सबकुछ लुटाने को तैयार हो जाते हैं. 

हैरानी तब होती है जब आसाराम पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगने के बाद उस के समर्थक सड़कों पर उतर कर आसाराम का बचाव करते नजर आते हैं और इन में अधिकांश महिलाएं थीं जो मीडिया से भी हाथापाई करती दिखती हैं. महिलाएं ऐसे हैवान के साथ खड़ी दिखीं जिस ने तथाकथित रूप से अपनी पोती की उम्र की लड़की को भी अपनी हवस का शिकार बनाने से परहेज नहीं किया. आसाराम पर जमीनों पर अवैध रूप से कब्जा कर के आश्रमों का निर्माण किए जाने, लोगों को डरानेधमकाने आदि के आरोप आएदिन लगते रहते हैं. 

शाहजहांपुर के निकट स्थित रुद्रपुर गांव में जब 3 साल पहले आसाराम ने आलीशान आश्रम का निर्माण किया और उस में सफेदपोश लोगों को बड़ीबड़ी गाडि़यों में आतेजाते देखा तो गांव के लोग काफी प्रभावित हुए. कुछ लोगों ने आसाराम के  इस भव्य आश्रम और तामझाम से प्रभावित हो कर उन से दीक्षा लेने का फैसला किया. गांव के ही एक  व्यक्ति का कहना है कि हमारे गांव में कई परिवार ऐसे हैं जो आसाराम के भक्त हैं. गांव के वे परिवार जो आसाराम के साधक बन गए, गरीब और छोटी जाति के हैं. आसाराम से दीक्षा लेना और उन के आलीशान आश्रमों में बैठ कर सत्संग सुनना उन के लिए किसी वरदान से कम नहीं. इन सफेदपोश लोगों के बीच बैठने की लालसा और आलीशान आश्रमों में बेरोकटोक प्रवेश पाने की इच्छा के चलते गांव के लोग आसाराम के निकट आते चले गए. 

दरअसल, अधिकांश लोग, जिन्हें आज भी मंदिरों में प्रवेश वर्जित है, उच्च जातियों के लोगों के बीच बैठने की इजाजत नहीं, सत्संगों और धर्मगुरुओं की शरण में जा कर उन के बीच जगह बनाने या अपनी गिनती करवाने की होड़ में लगे रहते हैं. हमारे यहां आज भी कई ऐसी जातियां हैं जिन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता है.

ऐसी जातियों के लोग इन सत्संगों, प्रवचनों व अन्य धार्मिक आयोजनों में दानदक्षिणा दे कर खुद को उन जातियों के करीब लाने की कोशिश करते हैं जो उन्हें आज भी हिकारत की नजर से देखती हैं. जबकि यहां भी उन के साथ जम कर भेदभाव होता है क्योंकि अधिक दानदक्षिणा देने वाले को यहां भी अधिक तवज्जुह दी जाती है. बड़ी जातियों के लोग आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत ज्यादा मजबूत होते हैं और उन के द्वारा दान की गई रकम भी ज्यादा होती है. महिलाएं इन में इसलिए बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यह पुण्य कमाने का सुनहरा मौका है.       

दंगों में दरक गए सामाजिक रिश्ते

सांप्रदायिक दंगों से दागदार होते देश के दामन में मुजफ्फरनगर के दंगों ने एक और दाग लगा दिया है. इस दौरान राज्य सरकार के ढीले रवैए के कारण स्थानीय प्रशासन भी निरंकुश सा दिखा. लिहाजा, दो गुटों के बीच शुरू हुए मामूली विवाद की चिंगारी सांप्रदायिक दंगों के शोले में तबदील हो गई. उस पर भी अब सियासी दल वोट की मारामारी में जुटे हैं. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में वक्त के मरहम से दंगों के ये घाव भले ही भर जाएं लेकिन हिंदू और मुसलिम समुदायों के बीच संदेह, अविश्वास की जो गहरी खाई पैदा हुई है उसे भरने में काफी वक्त लगेगा. पढि़ए शैलेंद्र सिंह की रिपोर्ट.

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के कवाल गांव में 27 अगस्त को प्रिया (बदला नाम) नामक लड़की से छेड़छाड़ के बाद दंगा भड़क गया. छेड़छाड़ की छोटी सी घटना को ले कर शाहनवाज की हत्या कर भाग रहे सचिन और गौरव को भी मार डाला गया. सदियों से एकदूसरे के साथ रहते आए 2 मजहबों के लोगों में एकदूसरे की जान लेने की होड़ लग गई. लोग गांव छोड़ कर भागने लगे. घटना के 12 दिन बाद भी गांव में सन्नाटा पसरा था. गांव के बाहर पुलिस के जवान रखवाली कर रहे थे. 

अलमासपुर, कुटबा, लिसाढ़, लांक, बहावड़ी, जौली, खालापार और नंगला मंदौड़ आदि गांवों का भी यही हाल था. 7 सितंबर की शाम मुजफ्फरनगर शहर में दंगा भड़कने के बाद रात गुजरतेगुजरते दंगों की आग गांव तक पहुंच गई. बस्तियां जलने लगीं. दंगों में मारे गए ज्यादातर लोग गांव के ही थे. दूसरे दिन सेना के आने के बाद शहर में रहने वाले लोगों को कुछ राहत महसूस होने लगी थी पर गांव के लोग शाम होते ही घरों में छिपते जा रहे थे. अलमासपुर के रहने वाले शफीक भाई कहते हैं, ‘‘7 सितंबर की सुबह तो बहुत अच्छी थी पर शाम ढलतेढलते गोलियों की आवाजों से पूरा इलाका दहल गया. डर के मारे सब अपनेअपने घरों में दुबक गए थे. ऐसा लग रहा था कि हम अपने गांव में नहीं, किसी दुश्मन के बीच फंस गए हों.’’

दंगों का डर छंटने के बाद अब लोग घरों में वापस तो आ गए हैं पर सवाल उठता है कि क्या ये लोग एकदूसरे के प्रति पहले जैसा भरोसा कर पाएंगे? पूछने पर भले ही ये लोग ऊपरी मन से ‘हां’ में जवाब दे रहे हों पर जिस हिचक से वे ‘हां’ कहते हैं उस से समझ में आ जाता है कि पहले जैसा भरोसा करना इतना आसान नहीं है.

मुश्किलों में फंसी जिंदगी 

दंगों की दहशत से गांव के गांव खाली हो गए. अपना घरगांव छोड़ कर लोगों को घरों में ताला लगा कर दूसरे शहर में रिश्तेदारों के घरों को अपना ठिकाना बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा. 

दंगों के बाद पुलिस का कहर कम नहीं होता. ऐसे में सामान्य जिंदगी भी मुश्किल नजर आने लगती है. मुजफ्फरनगर चुंगी नंबर 2 पर रहने वाले रोहतास की पत्नी मुनेश गर्भवती थी. उस को बच्चा होने वाला था. दंगे के चलते एंबुलैंस नहीं मिल सकी. ऐसे में मुनेश को घर में ही बच्चा हो गया. इस के बाद उस की तबीयत बिगड़ गई. पति को कोई रास्ता नहीं सूझा तो वह माल ढोने वाली गाड़ी से पत्नी को अस्पताल ले जाने लगा. घर से कुछ दूर जाने पर मुनेश ने दम तोड़ दिया.   

मोहब्बत का जिला

मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश का सब से ज्यादा प्रतिव्यक्ति आय वाला जिला है. करीब 41 लाख आबादी वाला यह जिला 4008 वर्ग किलोमीटर में बसा है. 6 तहसील और 14 विकासखंडों वाले इस जिले में पूरे देश के गेहूं उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा पैदा होता है. गेहूं के साथ गन्ने और आलू की भी सब से अधिक पैदावार यहीं होती है. खेतीकिसानी से जुड़ा होने के बाद भी यहां की करीब 85 फीसदी आबादी पढ़नालिखना जानती है.  मुजफ्फरनगर के दक्षिण में मेरठ, उत्तर में सहारनपुर, पश्चिम में हरियाणा का करनाल और पूर्व में गंगा नदी है. इस शहर का इतिहास हड़प्पा की सभ्यता से जुड़ा मिलता है. इस से जुडे़ जिलों में रुड़की, सहारनपुर, मेरठ और बागपत हैं. पूरेकाजी और शिवचौक यहां के बड़े बाजार हैं.

यहां हिंदू और मुसलिम मिलीजुली आबादी है. यहां रहने वाले मुसलिम भी मूलाजाट कहे जाते हैं. मूलाजाट के पूर्वज काफी समय पहले हिंदू ही थे. मुसलिम धर्म स्वीकार करने के कारण वे मुसलिम बिरादरी में शामिल हो गए थे. इस के बाद भी यहां हिंदू और मुसलिम मिलजुल कर अपने तीजत्योहार मनाते थे. खेती करने के कारण यहां का एक बड़ा तबका आर्थिक रूप से बेहद संपन्न है. दूसरा गरीब तबका इन के खेतों में काम कर के अपनी गुजरबसर करता है. ऐसे में यहां पर जातीय भेदभाव कम देखा जाता है. यह बात जरूर है कि आर्थिक रूप से यहां एकदूसरे के बीच गहरी खाई है. इस के बाद भी लोग एकदूसरे को अपना पूरक मान कर काम करते हैं.

मुजफ्फरनगर और शामली में सांप्रदायिक दंगों में 36 से ज्यादा लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. 50 से अधिक लोग घायल हुए. अब यहां वोटों की फसल काटने के लिए राजनीतिक दलों में होड़ लग गई है. वैसे देखा जाए तो इस जिले में दंगों की फसल तैयार करने में राजनीतिक दलों ने बहुत मेहनत की है. महीनों की तैयारी का ही नतीजा है कि अब दंगों के खेत में वोटों की फसल लहलहाने लगी है.

तनाव और अफवाह

सांप्रदायिक तनाव के मद्देनजर वोट की फसल काटने वालों ने किसी सफल किसान की तरह दंगों का खेत तैयार किया. कहीं कोई कमी न रह जाए इस के लिए तनाव के उपजाऊ बीज और अफवाहों की उम्दा खाद का इस्तेमाल किया गया. मुजफ्फरनगर और इस के आसपास के इलाके खाप पंचायतों के लिए भी मशहूर हैं. औनर किलिंग को ले कर यह इलाका चर्चा में रहा है. यहां पर हिंदू और मुसलिम दोनों ही बिरादरियों में खाप पंचायतों का पूरा दखल सामान्य जीवन में बना रहता है. ये पंचायतें किसी भी तरह का आदेश या फतवा जारी करने को आजाद होती हैं.

सहारनपुर में महिला अधिकार और मानवाधिकार को ले कर आंदोलन करने वाली ‘अस्तित्व’ संगठन की रेहाना कहती हैं, ‘‘जब बात महिला अधिकारों की आती है तो हिंदू और मुसलिम दोनों ही बिरादरियों की खाप पंचायतें एक स्वर में महिला आजादी के खिलाफ बोलती हैं. जब अपना कोई छिपा मकसद हल करना होता है तो ये दोनों पंचायतें अलग राह पर चल देती हैं.’’

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छेड़छाड़, बलात्कार, लड़कियों पर तेजाब डालने की घटनाएं पहले भी घटती रही हैं. लेकिन कवाल गांव की छेड़छाड़ की घटना को हवा देने के लिए पहले तनाव फैलाया गया. इस के बाद अफवाहों की खाद डाली गई, जिस से दंगे की फसल जल्द लहलहाने लगे. अफवाहों को हवा देने के लिए साल 2010 के एक वीडियो क्लिप का सहारा लिया गया. मूलरूप से यह क्लिप पाकिस्तान के सियालकोट इलाके में बनी थी. इस वीडियो क्लिप में 11वीं में पढ़ने वाले 2 युवकों के हाथपैर बांध कर उन को जिंदा पीटपीट कर मारते दिखाया गया था. मूल क्लिप में पाकिस्तान के सिपाही भी उस में दिखाई देते हैं.

मुजफ्फरनगर में तनाव फैलाने के लिए इस क्लिप को एडिट कर पाकिस्तान के सिपाहियों को गायब कर दिया गया. अब इस वीडियो में मारे जा रहे युवकों को ही दिखाया जा रहा था. इन के हाथपैर रस्सी से बंधे थे. इन को पीटपीट कर मारा जा रहा था. पहले एक युवक मर जाता है फिर दूसरे को मारा जाता है. तनाव फैलाने वालों ने इस वीडियो क्लिप को मुजफ्फरनगर के कवाल गांव में हुए दोहरे हत्याकांड से जोड़ दिया. सब से पहले  इसे यू ट्यूब और फेसबुक पर अपलोड किया गया. इसे करीब 2 हजार लोगों ने देखा और 200 लोेगों ने इस पर अपने कमैंट दिए थे.

उत्तर प्रदेश के एडीजी, लौ ऐंड और्डर, अरुण कुमार कहते हैं, ‘‘पुलिस को जैसे ही इस वीडियो का पता चला, उसे ब्लौक कर दिया गया.’’ तनाव फैलाने वाले पुलिस से तेज निकले, उन लोगों ने इस को मोबाइल पर लोड कर एकदूसरे को दिखाना शुरू किया. इस की सीडी बना कर गांवगांव में फैलाने का काम किया गया.

चूक गया प्रशासन

युवकों की हत्या वाली यह सीडी पूरे इलाके में अपना रंग दिखाने लगी थी. आसपास के गांवों तक में तनाव फैलने लगा था. दोनों वर्गों की तरफ से जातीय पंचायतों का दौर भी चल पड़ा. यह वह समय था जब उत्तर प्रदेश के अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद और समाजवादी पार्टी चौरासी कोस की अयोध्या की परिक्रमा यात्रा को ले कर आमनेसामने थे. विश्व हिंदू परिषद और उस से जुडे़ दूसरे संगठनों के लोग जिलेजिले गिरफ्तारी दे रहे थे. अखिलेश सरकार को मुजफ्फरनगर के तनाव और दंगों का पता था पर वह चुप रही. 8 सितंबर को ‘बहूबेटी बचाओ’ नाम से एक बड़ी पंचायत नंगला मंदौड़ मैदान में आयोजित की गई. शहर में धारा 170 लागू होने के बाद भी यह पंचायत हो जाती है.

यहां से वापस होती इस भीड़ की झड़प दूसरे वर्ग के लोगों से हो जाती है. वाजिमपुर गांव के रहने वाले शोऐब की मौत हो जाती है. इस के बाद तो हिंसा का भयानक तांडव फैल जाता है. दंगे में पत्रकार राजेश वर्मा सहित 36 लोगों की हत्या हो गई. ‘बहूबेटी बचाओ’ पंचायत करने और वहां भड़काऊ भाषण देने के आरोप में भारतीय जनता पार्टी विधानमंडल दल के नेता और कैरना के विधायक हुकुम सिंह, भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत, राकेश टिकैत, भाजपा विधायक ठाकुर संगीत सोम, विधायक सुरेश राणा, विधायक कुंवर भारतेंदु, पूर्व सांसद सोहनवीर सिंह, कांग्रेस के पूर्व सांसद हरेंद्र मलिक, पूर्व मंत्री स्वामी ओमवेश, भाजपा के प्रदेश मंत्री अशोक कटारिया, लोकदल के जिलाध्यक्ष अजित राठी और दूसरे करीब 40 लोगों पर मुकदमा दर्ज किया गया. भाजपा नेता मानते हैं कि मुजफ्फरनगर दंगों में उन की पार्टी के नेताओं को फंसाया जा रहा है.

मोदी फैक्टर से हुआ उन्माद

मुजफ्फरनगर में समाजसेवा से जुड़ी एक महिला कहती है, ‘‘भाजपा ने मोदी की अगुआई में लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के लिए जो रोडमैप तैयार किया है, यह उस पटकथा का एक सीन भर है. जब चौरासी कोसी परिक्रमा को ले कर अयोध्या में शांति बनी रही तो मुजफ्फरनगर में तनाव भड़का दिया गया. इस दंगे में गुजरात के दंगे की छवि दिखाई देती है. गांव में रहने वाले रजाई भरने वाले गरीब परिवारों को निशाना बनाया गया. गांव छोड़ कर मारुति कार से भाग रहे लोगों को मारा गया.’’ 

जहां एक ओर मुजफ्फरनगर दंगों को ले कर भाजपा नेताओं पर मुकदमे कायम हो रहे थे वहीं दूसरी ओर दिल्ली में भाजपा नेता नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की माथापच्ची कर रहे थे. समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव मुजफ्फरनगर के दंगे को दंगा नहीं जातीय संघर्ष मानते हैं. कांग्रेस महासचिव और उत्तर प्रदेश के प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री कहते हैं, ‘‘भाजपा ने सत्ता की खातिर गुजरात में कई जगह दंगे कराए थे. उत्तर प्रदेश में भी उस ने यही फौर्मूला अपनाया है.’’ 

इतिहास में झांक कर देखें तो पता चलता है कि 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा गिराने के समय वहां मौजूद रहे तमाम भाजपा नेताओं पर मुकदमा चल रहा है. 22 साल बीत जाने के बाद भी उस घटना का फैसला नहीं आ सका है. ऐसे में दूसरे नेताओं का साहस बढ़ता है. दंगों की जांच कर अगर दोषियों के खिलाफ जल्द से जल्द फैसला सुनाया जाने लगे तो ऐसे कृत्यों को रोका जा सकता है.      

नरेंद्र मोदी- विवादों के घेरे में भाजपा के ‘प्रधानमंत्री’

भाजपा की आंतरिक कलह और रूठनेमनाने के नाटकीय सिलसिले के बाद आखिरकार नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर सामने आ ही गया. लेकिन मोदी के पीएम पद के सपने की राह इतनी भी आसान नहीं है. गुजरात दंगों का कलंक, फर्जी मुठभेड़ जैसे मामलों में उन की संदिग्धता और हिंदुत्व की कट्टर छवि उन के इस अरमान पर पानी फेरने के लिए काफी हैं. पढि़ए जगदीश पंवार का लेख.

भारतीय जनता पार्टी ने तमाम विवादों और कलह के बीच नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया. मोदी के नाम पर घोषणा का वक्त आया तो लालकृष्ण आडवाणी ने अडं़गा डालने की कोशिश कर मोदी की सर्वस्वीकार्यता पर सवाल खड़ा कर दिया है. आडवाणी को मनाने की तमाम कोशिशें हुईं पर वे नहीं माने. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और पार्टी ने उन की परवा किए बिना मोदी के नाम का ऐलान कर दिया. हालांकि बाद में वह मान गए क्योंकि और कोई चारा भी न था. आडवाणी की मांग थी कि मोदी को अभी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित न किया जाए. साल के अंत तक होने वाले विधानसभा चुनावों तक फैसला टाला जाए, नहीं तो नतीजे प्रभावित होंगे. आडवाणी की यह अड़ंगेबाजी, उन की प्रधानमंत्री पद की लालसा मानी जा रही है.

प्रधानमंत्री पद की ओर बढ़ते जा रहे नरेंद्र मोदी की राह के रोड़े कम नहीं हैं. धूमकेतु से चमकता सूरज बनने की कोशिश में मोदी की चमक विवादों के सायों के चलते फीकी दिखती है. गोआ बैठक में जब मोदी के नाम की चुनाव समिति के अध्यक्ष के तौर पर घोषणा की गई तो लालकृष्ण आडवाणी कोपभवन में जा बैठे. अब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर मोदी के नाम के ऐलान का वक्त आया तो आडवाणी अड़ गए. उन्होंने पत्र लिख कर पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह की कार्यशैली पर सवाल उठाया है.

आएदिन इस तरह हो रही फजीहत से नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर चोट पड़ रही है. देश में ऐसा संदेश जा रहा है कि मोदी विपक्ष से ही नहीं, अपनों से भी चारों ओर से घिरे हुए हैं और विवादों का साया उन का पीछा नहीं छोड़ रहा. गुजरात के पुलिस अधिकारी डी जी वंजारा की चिट्ठी के बाद मोदी उस समय पस्त नजर आए जब शिक्षक दिवस पर एक बच्चे ने यह पूछ लिया कि क्या आप 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद भी हम से बात करने यहां आएंगे? मोदी ने कहा कि उन्होंने कभी प्रधानमंत्री बनने का सपना नहीं देखा. गुजरात की जनता ने उन्हें 2017 तक जनादेश दे रखा है.

मोदी ने यह भी कहा कि जो प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते हैं वे खुद को तबाह कर लेते हैं. किसी को कुछ बनने का सपना नहीं देखना चाहिए, बल्कि कुछ करने का सपना देखना चाहिए. मोदी की यह टिप्पणी अहम मानी गई क्योंकि एक दिन पहले ही वंजारा ने जेल से लिखे पत्र में मुख्यमंत्री मोदी और उन के पूर्व गृहमंत्री अमित शाह पर गंभीर आरोप लगाए थे. इसे ले कर विपक्ष ने कई सवाल उठाए. गुजरात दंगों का कलंक, फर्जी मुठभेड़ जैसे मामलों में मोदी की संदिग्धता और पार्टी के भीतर उन को ले कर मची कलह मोदी के लिए नई मुसीबत बन गई है.

अब तो भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र दामोदरदास मोदी को अपना नेता मान लिया है. चुनाव समिति के प्रमुख बनाए जाने के बाद मोदी खुद को देश के तारनहार के तौर पर पेश करने लगे थे. भजभज मंडली उन में हिंदुत्व का नया अवतार देखने लगी तो मोदी के लिए इस समय सब से ज्यादा साधुसंत, पंडेपुजारी और उन के अनुयायी उछलते दिख रहे हैं.

भजभज मंडली ने अपने चिरपरिचित पुराने ढोंगतमाशे शुरू कर दिए जो अकसर आम चुनाव आने से पहले किए जाते हैं. उस ने अयोध्या में चौरासी कोसी परिक्रमा कर के मोदी के पक्ष में हिंदुओं को एकजुट करने का प्रयास किया है. और वही भजभज मंडली धर्म संसद में मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की मांग करती है.

भाजपा समर्थकों द्वारा ऐसा प्रचारित किया जा रहा है मानो मोदी के सत्ता में आते ही चमत्कार हो जाएगा. रामराज्य आ जाएगा. देश की तमाम समस्याएं चुटकियों में खत्म हो जाएंगी. सोशल मीडिया में युवाओं को 43 वर्षीय आकर्षक राहुल गांधी के बजाय 62 वर्षीय नरेंद्र मोदी अधिक लुभा रहे हैं. पार्टी भले ही मोदी के नाम पर बंटी हुई हो, मध्य वर्ग के युवाओं का बड़ा वर्ग उन की जयजयकार कर रहा है. भाजपा के नेताओं को लग रहा है कि देश, खासतौर से युवा, मोदी की मांग कर रहा है.

यह सच है कि देश आज कई ज्वलंत समस्याओं से जूझ रहा है. घरेलू और बाहरी दोनों मोरचों पर मौजूदा संप्रग सरकार नाकाम दिख रही है. सरकार के प्रति आम जनता में काफी आक्रोश है. अर्थशास्त्रियों से भरीपूरी सरकार के बावजूद अर्थव्यवस्था लगातार गिरती जा रही है. महंगाई तूफानी गति से बढ़ रही है. खानेपीने की वस्तुओं के भाव बेलगाम हैं. प्याज थाली से दूर चला गया. पैट्रोल से ले कर अनाज, दालें, दूध, बच्चों की पढ़ाई के खर्चों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है.

इधर, रुपया डौलर के मुकाबले काफी नीचे गिरा हालांकि अब संभल रहा है. इस सरकार से लोगों को उम्मीदें थीं, लेकिन उन्हें निराश होना पड़ रहा है. व्यापारियों में निराशा है. औरतें कहीं सुरक्षित नहीं हैं. घर, बाहर और मंदिर, मसजिद, चर्च तक में. केंद्र सरकार की विफलता के खिलाफ जनता आएदिन सड़कों पर उतर रही है.

पाकिस्तानी सीमा पर आएदिन भारतीय सैनिकों का खून बह रहा है. चीन हमारी जमीन पर घुसपैठ कर रहा है पर सरकार पड़ोसी देशों को उन की बेजा हरकतों पर ललकारने के बजाय खामोश खड़ी देख रही है. हमारे सैनिकों की लाशों को देख कर देशवासियों का खून खौल रहा है पर सरकार सुस्त दिखती है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अकसर मौन ही दिखाई पड़ते हैं.

सरकार के नपुंसक रवैये ने लोगों में गुस्सा पैदा कर दिया है. ऐसे में स्वाभाविक है कि देश की जनता को ऐसे मजबूत राजनीतिक नेतृत्व की तलाश है जो इन तमाम समस्याओं से सख्ती से निबटता नजर आए.

कांग्रेस में राहुल गांधी हैं. वे युवा हैं पर देश के युवाओं पर वे अब तक कोई छाप नहीं छोड़ पाए हैं. देश की समस्याओं को ले कर राहुल का कोई स्पष्ट नजरिया नहीं है. ऐसे में स्वाभाविक है, भाजपा नरेंद्र मोदी के रूप में एक ऐसे भावी प्रधानमंत्री की छवि पेश कर रही है जो न केवल अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण कर आम आदमी को महंगाई, भ्रष्टाचार, सुरक्षा जैसी समस्याओं से राहत दिला सके, सीमा लांघने वाले पड़ोसी देशों को भी मुंहतोड़ जवाब दे सके. लेकिन, क्या नरेंद्र मोदी में वह काबिलीयत है जो वे अपने भाषणों में जगहजगह जाहिर करते घूमते हैं. मोदी ने 15 अगस्त को गुजरात के लालन में प्रधानमंत्री की तुलना में अपना जो भाषण दिया, उस का लब्बोलुआब यह था कि मनमोहन सिंह किसी मामले में कुछ करते दिखाई नहीं देते. वह चाहे महंगाई का हो या सीमाओं पर चीन और पाकिस्तान की घुसपैठ का. अपने समूचे भाषण में वे प्रधानमंत्री की आलोचना के अलावा यह नहीं बता पाए कि अगर वर्ष 2014 में वे प्रधानमंत्री बनते हैं तो क्याक्या करेंगे, कैसे करेंगे. उन्होंने अब तक देश के सामने ऐसा कोई दृष्टिकोण पेश नहीं किया जो वास्तव में देश को आगे ले जाने वाला हो.

सवाल है कि मोदी ने गुजरात राज्य में अपने 10 साल के शासन के दौरान ऐसा क्या किया जो और मुख्यमंत्रियों ने नहीं किया? मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में अशोक गहलोत, महाराष्ट्र में पृथ्वीराज चव्हाण, तमिलनाडु में जयललिता, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, ओडिशा में नवीन पटनायक. ये मुख्यमंत्री मोदी के मुकाबले किस बात में कम हैं? क्या ये लोग काम नहीं कर रहे? भले ही शिवराज सिंह चौहान अपनी मूंछ को मोदी के मुकाबले ज्यादा चमका कर न रख पाते हों पर उन के कामों की भी खूब प्रशंसा होती है. भले ही ममता बनर्जी की साड़ी के कलफ में मोदी के झक कुरतेपाजामे की तुलना में अधिक चमक न हो पर वे मोदी से कहां कम हैं. अशोक गहलोत, नवीन पटनायक भी अपनेअपने राज्यों में क्या हाथ पर हाथ धरे बैठै हैं?

हां, मोदी ने सोलर पैनल लगा कर थोड़ी बिजली पैदा कराई पर दूसरे राज्य भी अब इस काम को करा रहे हैं. राजस्थान में अशोक गहलोत एशिया का सब से बड़ा सोलर एनर्जी क्षेत्र बनाने का दावा कर रहे हैं. निवेश गुजरात में बढ़ा तो दूसरे राज्य भी पीछे नहीं हैं. लेकिन मोदी पर एक तो गुजरात दंगों का दाग और विकास के नाम पर रिलायंस, अदाणी, टाटा जैसे कुछ कौर्पोरेट घरानों की मदद करने के आरोप हैं. राज्य में गरीब, मजदूर, दलित और महिलाओं की हालत में कोई बदलाव नहीं आया. फिर ऐसा क्या है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद का सब से बड़ा और काबिल दावेदार माना जाने लगा.

दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक ऐसे मोहरे की जरूरत थी जो उस का हिंदुत्व का एजेंडा आगे बढ़ा सके. आज की तारीख में संघ की कसौटी पर नरेंद्र मोदी एकदम खरे उतरते हैं. मोदी ने अपने पिछले 10 साल के कार्यकाल में जो कुछ किया, वह कट्टर हिंदुत्व का ही वास्तविक रूप वह नागपुर का असली एजेंडा है. गोधरा घटना के बाद गुजरात में हुई हिंसा कट्टर हिंदुत्व विचारधारा का नतीजा थी. उस दौरान मोदी की जो भूमिका रही, उस से संघ गद्गद हो गया. मोदी के होते मुसलमानों का कत्लेआम हुआ, और मोदी सरकार ने बचाव व राहत के कामों में जानबूझ कर ढिलाई बरती.

मोदी ने तो अपने भाषणों में यह तक कहा था कि हम राहत कार्य चलाएं या राहत कैंपों में जो बच्चे पैदा हो रहे हैं उन को देखें. मोदी चुनावों में भी उन से पहले और बाद में मुसलमानों के खिलाफ आग उगलने का कोई मौका नहीं गंवाते थे. वे उस समय संघ के सब से प्रिय पात्र बन गए.

मोदी के उत्थान के बाद अब हिंदू संगठन पूरे जोश में दिखाई पड़ रहे हैं. लेकिन मोदी ने आज हिंदुओं के लिए क्या किया? उन्होंने नष्ट हुए केदारनाथ मंदिर को बनाने की बात कही थी पर केदारनाथ त्रासदी के बाद मोदी हैलीकौप्टर से गए पर उन्होंने कितने हिंदुओं को मलबे से बाहर निकाला? उन्हें हैलीकौप्टर से क्यों, पैदल जाना चाहिए था और जब सारे हिंदू तीर्थयात्री सुरक्षित बच निकलते तभी वापस आना चाहिए था पर वे जल्दी ही वहां से चल दिए.

क्या सिर्फ लफ्फाजी करने से देश में बदलाव लाया जा सकता है? सवाल है नरेंद्र मोदी गुजरात में लीक से हट कर ऐसा कौन सा अच्छा काम किया है जो चमत्कारिक साबित हुआ है. ऐसे में वे समूचे देश के लिए कैसे कोई चमत्कारिक काम कर सकेंगे या कोई चमत्कारिक कानून बना सकेंगे.

पिछले 300 सालों के दौरान दुनिया में कानूनों के द्वारा बहुत से सामाजिक विकास और बदलाव  हुए हैं. जो देश धर्म के गुलाम थे और जहां आज भी धार्मिक कानून हावी हैं वहां गरीबी, भुखमरी, हिंसा, अशिक्षा, अमानवीय प्रथाएं अधिक हैं. पाकिस्तान, अफगानिस्तान में आज भी अमानवीयता की हदें लांघने वाले कानून हैं.

नरेंद्र मोदी जिस तरह अपना कद राष्ट्रीय नेता या प्रधानमंत्री के बराबर मान कर चल रहे हैं, उन के गुजरात के कार्यों को देखते हुए तो नहीं लगता कि वे इस बड़े देश में कोई बहुत बड़ा सामाजिक विकास और परिवर्तन ला देंगे. मोदी ने अपने कार्यकाल में कई विधेयक पारित कराए. उन में से कुछ विधेयकों पर गौर करते हैं.

सब से पहले गोधरा घटना और फिर गुजरात दंगों के बाद वर्ष 2003 में आया गुजरात कंट्रोल औफ टेररिज्म ऐंड औरगेनाइज्ड क्राइम बिल पर देशभर में बड़ा हल्ला मचा. इस बिल पर देश को आशंका थी कि गुजरात सरकार किसी भी अल्पसंख्यक या उस के किसी वर्ग को इस कानून में फंसा सकती है. गुजरात विधानसभा द्वारा इस विधेयक को पारित करा कर राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेजा गया पर राष्ट्रपति ने इसे कुछ संशोधनों का सुझाव देते हुए लौटा दिया था. मगर राज्य सरकार ने फिर इसे ज्यों का त्यों भेज दिया. राष्ट्रपति ने इसे दोबारा लौटा दिया.

वर्ष 2005 में गुजरात विधानसभा में श्री सोमनाथ संस्कृत यूनिवर्सिटी ऐक्ट-2005 पारित हुआ था. इस कानून के तहत राज्य में संस्कृत पाठशाला, कालेज, इंस्टिट्यूट खोलने व शास्त्री, आचार्य जैसी संस्कृत डिगरियां देने का प्रावधान किया गया. इस का उद्देश्य गुरुशिष्य परंपरा को बढ़ावा देना भी है. यानी पुराने जमाने में चले जाओ और गुरुओं को दानदक्षिणा देते रहो. अध्ययन के तरीके में अनुशासन और स्वाध्याय मूलभूत तत्त्व होंगे. यह भी कि ऐसे स्कूलों की स्थापना करना जहां भाषा, संस्कृति, दर्शन, वेदवेदांग, शिक्षक, प्रशिक्षण, धर्मशास्त्र, वास्तुशास्त्र, आयुर्वेद को बढ़ावा दिया जाएगा.

इस का मतलब देश फिर 1 हजार साल पीछे चला जाएगा. केंद्र सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार पर हल्ला करने वाले मोदी गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति में रोडे़ अटकाते रहे. पिछले साल जब राज्यपाल कमला बेनीवाल द्वारा राज्य सरकार को अलग कर न्यायमूर्ति आर ए मेहता की लोकायुक्त के तौर पर नियुक्ति कर दी गई तो मोदी को खूब अखरा. मोदी सरकार का राज्यपाल के साथ झगड़ा चला. इस नियुक्ति के खिलाफ  सरकार सुप्रीम कोर्ट में गई. सुप्रीम कोर्ट ने याचिका ठुकरा दी लेकिन बाद में मोदी सरकार विधानसभा में लोकायुक्त विधेयक ले कर आई जिस में राज्यपाल और हाईकोर्ट के जज को लोकायुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया से ही अलगथलग कर दिया गया.

गुजरात स्पैशल इकोनौमिक जोन ऐक्ट-2004 के तहत भूमाफियाओं, निजी डैवलपरों को खूब प्रश्रय मिला. विधेयक के तहत डैवलपर को मान्यता दी गई. गुजरात राज्य महिला आयोग ऐक्ट-2002 बनाया गया पर सरकार ने नियुक्ति और बर्खास्तगी के सारे अधिकार खुद के पास रखे. विधेयक में लिखा है कि राज्य सरकार चेयरमैन या सदस्य को कभी भी, किसी भी समय हटा सकती है.

वहीं केंद्र सरकार ने विवाह विधि संशोधन विधेयक, खाद्य सुरक्षा कानून, भूमि अर्जन विधेयक जैसे विशेष कदम उठाए हैं. सोनिया गांधी ने इन तमाम सामाजिक कानूनों के जरिए देश के आम, गरीब, वंचित आदमी को आगे बढ़ाने की कोशिश की है. इन कानूनों का असर धीरेधीरे इन लोगों के जीवन पर पडे़गा. उन की माली, शैक्षिक दशा में सुधार होगा. उधर, मोदी के कानूनों में गरीबों, वंचितों, किसानों का भला नहीं, चंद औद्योगिक घरानों और धर्म की खाने वालों की जयजय जरूर हो रही है. हां, मोदी ने गुजरात दंगों की बदनामी के बाद राज्य में विकास पर ध्यान लगाया पर वास्तविक विकास कहां होना चाहिए, कैसा होना चाहिए, प्रधानमंत्री पद के दावेदार मोदी शायद समझ नहीं पाए.

मोदी के कानून धर्म के ध्ांधेबाजों और कौर्पोरेट को ही फायदा पहुंचाने वाले हैं. श्री सोमनाथ संस्कृत यूनिवर्सिटी से किस का कल्याण हो सकता है, सिवा धर्म की खाने वालों के. इस यूनिवर्सिटी के माध्यम से मोदी राज्य में वास्तुशास्त्री, ज्योतिषी पैदा करना चाहते हैं, जो अंधविश्वास फैलाने के अलावा और क्या योगदान दे सकते हैं? ये लोगों में भाग्य के भरोसे रहने की सीख देंगे, जिस से निकम्मापन बढे़गा.

सोलर एनर्जी पैनल स्थापित करने के लिए निजी कंपनियों को जमीनें दी गईं. ये सोलर पैनल निजी कंपनियों द्वारा ही लगाए गए और फायदा भी उन्हें ही अधिक हुआ. राज्य की विकास दर अन्य राज्यों के मुकाबले सामान्य ही है. दूसरे राज्यों से कौर्पोरेट उद्योग उठ कर गुजरात में आ रहे हैं या आप आमंत्रित कर रहे हैं तो यह अच्छी बात है पर क्या रोजगार के लिए दूसरे राज्यों से और लोग भी आ रहे हैं?

क्या मोदी गुजरात दंगों से पहले की सांप्रदायिक सौहार्द्र की स्थिति को लौटा पाएंगे? समूचे देश को चलाने के लिए सब के लिए समान अधिकार और तरक्की वाले कानूनों की जरूरत होती है. नरेंद्र मोदी कभी भी बराक ओबामा, ब्लादिमीर पुतिन की बराबरी नहीं कर सकते. न सोच में, न नीतियों के निर्माण में, न लोकतांत्रिक सुदृढ़ता के लिए उठाए जाने वाले कदमों में और न ही अंगरेजी बोलने में.

ऐसे में सब से बड़ा सवाल यह है कि क्या मोदी इस देश को साधुसंतों के आदेश पर चलाएंगे? किस तरह के कानून बनाएंगे? क्या धर्म, मनुस्मृति पर आधारित विधेयक लागू करेंगे? उन के पिछले 10 सालों के कामों और कानूनों से नहीं लगता कि वे 120 करोड़ की आबादी वाले देश और दुनिया के सब से बड़े लोकतंत्र भारत में सब को साथ ले कर चलने की योग्यता रखते हैं. कोरे भाषणों से इस देश का भला नहीं होने वाला है.

देश के सामने सब से अहम सवाल यह है कि क्या आज भारत को मध्यकालीन विचारधारा को साथ ले कर चलने वाले प्रधानमंत्री की जरूरत है या 2040-50 से आगे की सोचने वाले की?

बेकारी और बेकार

बेकारी की समस्या इस देश में विकराल नहीं दिखती क्योंकि यहां लोग 2 घंटे काम कर के भी अपने को काम पर समझते हैं और उन्हें गुजारे लायक पैसा मिल जाता है. यूरोप, अमेरिका बेकारी की मार से कराह रहे हैं. अमेरिका, जहां की केवल 7.5 प्रतिशत आबादी बेकारों के रजिस्टर में है, बेकारी राष्ट्रपति के लिए रात की नींद उड़ा देती है और हर सप्ताह वह गिनता है कि कितनी नई नौकरियां निकलीं.

दूसरी तरफ अटलांटिक पार, ग्रीस में बेकारी 60 प्रतिशत है,?स्पेन में 56, इटली में 38, हंगरी, पोलैंड, आयरलैंड, पुर्तगाल आदि में लगभग 30 प्रतिशत. इन देशों में मुख्य सड़कों पर आएदिन बड़ेबड़े धरनेप्रदर्शन होते रहते हैं. युवा सरकारों को कोसते नजर आते हैं. बेकारी से जूझना आसान नहीं होता. जब अपने पैरों पर खड़े होने का समय आए और पता चले कि कोई आप की योग्यता का इस्तेमाल करने वाला न हो तो पूरा अस्तित्व कांप उठता है. गहरा मानसिक तनाव हो जाता है. मातापिता,?भाईबहन या सरकारी दान पर भिखारियों की तरह रहना पड़ता है.

इस गम को भुलाने के लिए शराब या किसी अन्य नशे की आदत पड़ जाती है. काम वाले दोस्त साथ छोड़ जाते हैं और बेकारों का गुट बन जाता है. बेकारी की समस्या का मुख्य कारण यह है कि बहुत से युवा इस तरह पारिवारिक या सरकारी लाड़ में पलते हैं कि वे जौब मार्केट के लिए अपने को तैयार ही नहीं करते. वे कम काम वाली नौकरियां ढूंढ़ते हैं. नौकरी पाने पर नई तकनीक या विविधता अपनाने से हिचकते हैं. मेहनत करना भूल जाते हैं. अपना समय व पैसा मौजमस्ती, नाचगाने, खानेपीने में लगा डालते हैं.

हमारे देश में वही बेकार हैं जो कम से कम काम करना चाहते हैं. काम वालों को अगर निकाला जाता है तो कम वेतन पर दूसरी नौकरी मिल ही जाती है. हमारे यहां जो सरकारी नौकरी या मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत नहीं है, वह अपने को बेकार मानता है. हर जने को, चाहे वह बेकार हो या अच्छीभली पक्की नौकरी पर हो, नई तकनीक सीखने, मेहनत से काम करने, की आदत बनाए रखनी चाहिए. जो बिलकुल बेकार हैं वे अपने कपड़े धोएं, आसपास की सफाई करें, वृद्धों की सहायता करें पर खाली न बैठें. जो काम पर हैं, चाहे सरकारी नौकरी क्यों न हो, अपने को जंग न लगने दें. आगे बढ़चढ़ कर जिम्मेदारी लें. कई घंटे स्वत: काम करें. शरीर को व्यस्त रखें.

अपनी नौकरी बनाए रखनी है, दूसरों के लिए नौकरियां पैदा करनी हैं तो उत्पादकता बढ़ानी होगी. पूंजी का पूरा व सही इस्तेमाल करना होगा. नारेबाजी, धरनेप्रदर्शन कोई शौर्टकट नहीं है. डिगरी पा लेना अकेली योग्यता नहीं है. लगातार मेहनती बदन और वैसी सोच बनाना जरूरी है वरना हाथ मलोगे या हाथ पसारोगे.      

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