सरित प्रवाह, अगस्त (द्वितीय) 2013

आप की संपादकीय टिप्पणी ‘तेलंगाना और कांगे्रस’ पढ़ी. आप ने तेलंगाना राज्य बनाने के निर्णय को सही ठहराया है. आप के विचारों का स्वागत करते हुए पश्चिम बंगाल के पहाड़ी इलाके और तराई डुवर्स के गोरखा बहुल क्षेत्रों को ले कर एक पुराने आंदोलन का जिक्र करना चाहता हूं. गोरखालैंड के मुद्दे को ले कर संसद में हंगामा हुआ जब दार्जिलिंग के सांसद व वरिष्ठ भाजपा नेता जसवंत सिंह ने गोरखालैंड के आंदोलन का जिक्र करते हुए राजनीतिक समाधान निकालने का अनुरोध किया लेकिन तृणमूल कांगे्रस के सांसद संदीप बंधोपाध्याय, सौगत राय और कल्याण बनर्जी ने असंसदीय भाषा में गोरखालैंड का घोर विरोध किया, जैसा पहले से बंगाल के अन्य दल माकपा, भाकपा, कांग्रेस करते आ रहे हैं.

गोरखालैंड के लिए जिस भूभाग को ले कर आंदोलन किया जा रहा है, उस का उन्हें ऐतिहासिक सत्य मालूम नहीं है. सुगौली संधि, तितलिया संधि और सिंचूला संधि के तथ्यों का ज्ञान नहीं है. इतना ही नहीं, उन्हें 1986 में तत्कालीन वाम मोरचा सरकार द्वारा प्रकाशित श्वेतपत्र में लिखित सत्य भी स्वीकार्य नहीं है. दरअसल, दार्जिलिंग की भूमि सिक्किम के राजा ने 1835 में ब्रिटिश सरकार को दी थी. तब इस इलाके में रहने वाले कौन थे? इस का जवाब है कि गोरखा ही थे.

अफसोस तो इस बात का भी है कि गोरखाओं का खुल कर विरोध करने वाले भद्र लोगों को यह भी जानकारी नहीं है कि देश के स्वतंत्र होने के बाद डा. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में बनी संविधान सभा के सदस्यों में कलिंपोंग (दार्जिलिंग) के बैरिस्टर अरि बहादुर गरुड़ भी थे. आज के राजनेता देश के स्वतंत्रता संग्राम में जीवन बलिदान करने वाले सुभाषचंद्र बोस के सहयोगी गोरखाओं के त्याग का इतिहास जानना ही नहीं चाहते. तेलंगाना राज्य गठन करने का फैसला जब कांगे्रस वर्किंग कमेटी ने लिया तो एक शताब्दी पुराने गोरखालैंड राज्य की मांग के लिए किए जा रहे आंदोलन को ऊर्जा मिली है. गोरखालैंड के नाम से राज्य बनाना ही होगा वरना आंदोलन रुकने वाला नहीं.

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