देश की अदालतों की नाक तले अन्याय और गुनाहगारों को सजा देने वाला कानून लोकतंत्र के मुख्य अधिकार स्वतंत्रता को बुरी तरह कुचल रहा है. आज किसी के लिए भी यह आसान है कि वह पुलिस थाने में सही या झूठे अपराध की प्राथमिकी दर्ज करा कर किसी को भी जेल भिजवा दे. अदालतों ने बेल नहीं, जेल का मार्ग अपना लिया है क्योंकि वादी और जनता को खुश करने का यह आसान तरीका है.
देश की अदालतें जानती हैं कि आज किसी को सजा दिलाना बहुत मुश्किल है. लंबी गवाहियों, अपीलों, अदालतों की घोंघे से भी धीमी चाल के कारण सजा दिलातेदिलाते 10-15 साल लग जाएंगे. इसलिए ज्यादातर अदालतें मुलजिम को 10-15 से 50-60 दिन तक के लिए जेल भेज कर अपना न्याय करने का थोथा दावा ठोंक देती हैं. देश की जेलों में 90 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन पर अपराध साबित नहीं हुआ और वे अपने जीवन के बहुमूल्य दिन अपराधियों के बीच बिताने को विवश हैं.
जब लालू प्रसाद यादव, जे जयललिता, सुरेश कलमाड़ी जैसे सीखचों के पीछे जाते हैं तो देश की जनता के दिल में जल रही आग शांत होती है पर यह गलत और अमानवीय है. उन्हें जेल में भेजिए पर अपराध साबित होने के बाद. अपराध नहीं किया, यह साबित करने के लिए उन्हें बाहर रहने का मौका मिलना चाहिए. जमानत एक महत्त्वपूर्ण मौलिक अधिकार होना चाहिए. पूछताछ के लिए 2-3 दिन थाने में रोकने के बाद हर जने को छोड़ा जाना चाहिए. केवल हत्या या गंभीर चोट पहुंचाने के मामले ऐसे हैं जिन में अपराधी को समाज से दूर रखने के लिए जेल में भेजने का रास्ता अपनाया जा सकता है.