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बुढ़ापे में शादी जरूरत सहारे की

उस समय सलोनी जायसवाल की उम्र करीब 45 साल थी. उन के पति की मृत्यु हो गई. उन्नाव की रहने वाली सलोनी के कोई संतान नहीं थी. पति के न रहने पर घरपरिवार का उपेक्षाभाव और भी ज्यादा बढ़ गया था. सलोनी को लग रहा था जैसे पति के साथ उन की खुशियां भी खत्म हो गईं. बच्चे होते तो शायद उन का सहारा मिलता.  परिवार और समाज की नजरों में विधवा किसी अभिशाप से कम नहीं होती है. उम्र के इस दौर में जीवनसाथी का साथ छूट जाना मौत से बदतर महसूस होने लगा था.

उपेक्षा के इसी भाव से दुखी सलोनी एकाकीपन का शिकार हो गईं. परिवार के लोग उन को बीमार मान कर उन से दूर रहने लगे. ऐसे में करीब 4 साल पहले सलोनी को सहारा दिया वीनस विकास संस्थान की डा. निर्मला सक्सेना ने.  वीनस विकास संस्थान लखनऊ के जानकीपुरम इलाके में एक वृद्धाश्रम चलाता है. डा. निर्मला सक्सेना को जब सलोनी की हालत का पता चला तो वे उन को अपने साथ लखनऊ ले आईं.  वृद्धाश्रम में कुछ दिनों तक अपनी ही उम्र की महिलाओं के साथ रह कर सलोनी को कुछ अच्छा महसूस होने लगा. उन की तबीयत भी मानसिक रूप से बेहतर होने लगी और वे खुश भी रहने का प्रयास करने लगीं. धीरेधीरे समय बीतने लगा. सलोनी को एक बार फिर मजबूत सहारे की तलाश होने लगी. अपने मन की बात सलोनी ने डा. निर्मला सक्सेना से कही. शुरुआत में उन की बात को सुन कर सभी को थोड़ी हंसी आई. वृद्धाश्रम में काम करने वाले दूसरे लोगों ने तो मान लिया कि सलोनी की मानसिक हालत फिर से खराब होने लगी है. इस उम्र में कहीं कोई ऐसी बात करता है. लेकिन  डा. निर्मला सक्सेना को लगा कि सलोनी की इच्छा उचित है. वे इस प्रयास में लग गईं कि सलोनी को सदासदा के लिए अपनाने वाला कोई आगे आए.

उन की समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे 60 साल की सलोनी के लिए दूल्हा खोजा जाए. उन्होंने अपने जानने वालों और वृद्धाश्रम में काम करने वालों को दूल्हा तलाश करने में जुटा दिया. 60 साल की दुलहन के लिए दूल्हा तलाश करना सरल काम नहीं था.  वृद्धाश्रम में काम करने वाले एक व्यक्ति कोे पता चला कि हरदोई जिले में कृष्ण नारायण गुप्ता रहते हैं. उन की उम्र 62 साल की है. उन की पत्नी की मौत  3 साल पहले हो चुकी है. उन के 3 बेटे और बहू हैं. वे अपनी मिठाई की दुकान चलाते हैं. वे शादी करना चाहते हैं. हरदोई में लोग उन को कान्हा सेठ के नाम से जानते हैं. इस बात का पता चलते ही डा. निर्मला सक्सेना ने हरदोई जा कर उन से बात की. वे उन के घरपरिवार के लोगों से मिलीं. बेटेबहू से बात की. किसी को भी इस शादी से कोई परेशानी नहीं होने वाली थी.

कान्हा सेठ भी सलोनी को अपनी पत्नी बनाने के लिए उत्साहित हो गए. वे समय तय कर के एक दिन सलोनी को देखने के लिए लखनऊ आ गए. सलोनी और कान्हा सेठ ने एकदूसरे को देखा और फिर तय हो गया कि अब बची जिंदगी वे एकसाथ काटेंगे. शादी की तारीख 24 फरवरी तय हो गई. अब शादी की तैयारी करने का जिम्मा डा. निर्मला सक्सेना पर आ पड़ा था. वे अपनी टीम और कुछ सामाजिक लोगों के साथ शादी की तैयारी करने में जुट गईं. अपनी शादी की बात सुनते ही सलोनी ने कहा कि वे अपना मेकअप किसी ब्यूटीपार्लर में ही कराएंगी.

फैशन डिजाइनर और ब्यूटीशियन रीमा श्रीवास्तव ने सलोनी का मेकअप किया और लहंगाचुनरी उपलब्ध कराई. मेकअप देख कर कोई कह नहीं सकता था कि सलोनी की उम्र 60 साल है.  24 फरवरी को सलोनी और कान्हा सेठ ने एकदूसरे को जयमाला पहना कर पतिपत्नी के रूप में कुबूल कर लिया. इस खुशी में दोनों ने सब से पहले एकदूसरे को रसगुल्ला खिलाया. शादी की खुशी में शामिल होने के लिए हेल्पेज इंडिया के डायरैक्टर ए के सिंह और उत्तर प्रदेश समाज कल्याण विभाग के लोग भी शामिल हुए. शादी के बाद कान्हा सेठ अपनी पत्नी सलोनी को ले कर अपने घर गए. वहां दोनों हंसीखुशी से अपना जीवन बिता रहे हैं.

शादी के बाद डा. निर्मला इस शादीशुदा जोडे़ से मिलने के लिए हरदोई उन के घर गईं जहां सलोनी अपने मायके जैसे वृद्धाश्रम को याद कर रही थी.  दरअसल, सभी को अपने जीवन में एक सहारे की जरूरत होती है और यह सहारा जीवनसाथी के रूप में ही हो सकता है.   

सपना साकार हुआ – अंकित कुमार सिंह

मेहनत, लगन और ईमानदारी के साथसाथ दिल में कामयाबी हासिल करने का जज्बा भी हो तो मंजिलें खुद चल कर आती हैं. इसी फलसफे पर चल कर अंकित कुमार सिंह ने सिविल सेवा परीक्षा 2012 में सफलता अर्जित की है. पेश हैं उन की कामता प्रसाद मौर्या से हुई बातचीत के मुख्य अंश.

पिछले दिनों ‘संघ लोक सेवा आयोग’ ने ‘सिविल सेवा परीक्षा 2012’ के परिणाम घोषित कर दिए. इस में सर्वोच्च स्थान पाने वालों में प्रथम स्थान केरल की सुश्री हरिथा वी कुमार, दूसरा स्थान केरल विश्वविद्यालय से एमबीबीएस कर चुके डा. वी श्रीराम और तृतीय स्थान सुश्री स्तुति चरन का रहा.  सिविल सेवा परीक्षा-2012 में अनुसूचित जाति (संखवार) के अंकित कुमार सिंह का नाम भी शामिल है. उन्होंने तृतीय प्रयास में इस परीक्षा में 686वां स्थान हासिल किया है.

आप अनुसूचित जाति से संबंध रखते हैं. आप को कैसा महसूस हो  रहा है?

मैं अनुसूचित जाति के संखवार समुदाय का पहला व्यक्ति हूं, जो आईएएस/आईपीएस बनेगा. मेरी इस सफलता पर न केवल मेरा बल्कि मेरे परिवार और समाज का सपना पूरा हुआ है. मेरा मानना है कि कोई भी चीज असंभव नहीं है. यदि मेहनत, लगन और ईमानदारी के साथ प्रयास किया जाए, तो सफलता निश्चित रूप से प्राप्त होती है.

आप ने इस परीक्षा के लिए मुख्य विषय क्याक्या चुने थे?

हालांकि मैं ने औयल टैक्नोलौजी में बीटैक किया है लेकिन आईएएस परीक्षा के लिए मैं ने भूगोल और हिंदी साहित्य को मुख्य विषय के रूप में चुना. इस में मुझे सफलता मिली. 

इस परीक्षा में सफलता हासिल करने का अनुभव किस प्रकार का रहा?

मैं ने अपनी आईएएस की परीक्षा की तैयारी और सफलता हासिल करने के बाद पाया कि क्या नहीं पढ़ना चाहिए इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए. प्रश्नावली में विज्ञान, इतिहास, भूगोल और सामान्य ज्ञान से जुड़े प्रश्न होते हैं. उन की तैयारी बहुत ही सावधानी के साथ की जानी चाहिए. तैयारी करते समय इस बात का विशेष ध्यान देना चाहिए कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए तैयारी की जाए. इस के लिए दैनिक समाचारपत्रपत्रिकाओं, टीवी, रेडियो आदि को ध्यान से पढ़ना और सुनना चाहिए.

काफी उम्मीदवार मुख्य परीक्षा तो पास कर लेते हैं लेकिन साक्षात्कार में असफल हो जाते हैं. आप का साक्षात्कार कैसा रहा?

मेरे साक्षात्कार बोर्ड के चेयरमैन आईएमजी खान थे. मेरा साक्षात्कार लगभग 25 मिनट तक चला. इस दौरान मुझ से मेरी पृष्ठभूमि, शिक्षा व ज्वलंत विषयों पर प्रश्न पूछे गए. मुझ से लखनऊ में स्थित बटलर पैलेस के बारे में पूछा गया, क्योंकि मैं ने हरकोर्ट बटलर टैक्नोलौजिकल इंस्टिट्यूट, कानपुर (उ.प्र.) से औयल टैक्नोलौजी में प्रथम श्रेणी में बीटैक किया था. बटलर उत्तर प्रदेश के प्रथम गवर्नर थे. इस के अलावा मुझ से इंटरव्यू में इलाहाबाद की विशेषताएं पूछी गईं. एक सदस्य ने तो यह पूछा, महाराष्ट्र मराठियों के लिए है. इस को कहां तक सही या गलत मानते हैं? दूसरे सदस्य ने पूछा कि आप आईएएस क्यों बनना चाहते हैं? इस प्रश्न का मैं ने उत्तर दिया कि इस के माध्यम से मुझे गरीब, पिछड़े इंसानों के लिए कुछ करने का बड़ा मौका मिलेगा.

आप कानपुर के रहने वाले हैं. क्या कानपुर से संबंधित कोई प्रश्न भी इंटरव्यू बोर्ड के सदस्यों ने पूछा?

हां, एक सदस्य ने मुझ से पूछा कि कानपुर सीवेज ट्रीटमैंट प्लांट किस सिद्धांत पर काम करता है? लेकिन इसे मैं सही तरह से बोर्ड को समझा नहीं सका. हां, बोर्ड के सदस्यों ने मेरा पूरा सहयोग किया. मैं ने यह महसूस किया है कि इंटरव्यू बोर्ड के समक्ष वही बोला जाए जिस की आप को सही जानकारी है, उसे ईमानदारी के साथ रखें, लेकिन किसी भी रूप में झूठी जानकारी न दें.

आप अपने और अपने परिवार के बारे में कुछ बताएं?

मेरा जन्म 19 फरवरी, 1987 को ग्राम मोहाना, कानपुर देहात, उत्तर प्रदेश के संखवार परिवार में हुआ था. पिता राज संजीवन संखवार, उत्तर प्रदेश आवास विकास परिषद में कनिष्ठ लेखा अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं और मेरी मां एक गृहिणी हैं. उन्होंने एमए तक शिक्षा हासिल की है. मेरी 2 बहनें हैं जिन में से एक एमटैक कर चुकी है और आईएएस की तैयारी कर रही है. दूसरी छोटी बहन ने अभी 12वीं की परीक्षा दी है. वह चिकित्सा के क्षेत्र में जाना चाहती है.

आप ने शिक्षा कहां से हासिल की?

मैं ने पहली से 5वीं तक की पढ़ाई सरस्वती शिशु मंदिर, रतनलाल नगर, कानपुर से की. इस के बाद कक्षा 6 से 12वीं तक की पढ़ाई चाचा नेहरू स्मारक इंटर कालेज, गोविंद नगर, कानपुर से पूरी की. मैं ने वर्ष 2009 में ‘हरकोर्ट बटलर टैक्नोलौजिकल इंस्टिट्यूट’, कानपुर से ‘औयल टैक्नोलौजी’ में प्रथम श्रेणी में बीटैक की डिगरी हासिल की. अचानक परिस्थितियां बनीं तभी मैं ने एमटैक करने के बजाय आईएएस की तैयारी करना जरूरी समझा और फिर इस के लिए कानपुर से दिल्ली आ गया.

आईएएस अधिकारी बनने की प्रेरणा आप को किस से मिली?

बचपन में मेरे पिताजी का सपना था कि वे आईएएस बनें, लेकिन परिस्थितियां अनुकूल न होने के कारण वे इस में सफल नहीं हो सके. परिवार के भरणपोषण के लिए मात्र डेढ़ बीघा जमीन से गुजारा होना असंभव था. इसलिए पढ़ाई ही एकमात्र सहारा थी, जिस से परिवार का भरणपोषण संभव हो सकता था. वे चाहते थे कि उन के बच्चे इस दिशा में आगे बढ़ें. इसीलिए उन्होंने हम सभी भाईबहनों को बेहतर शिक्षा दिलाई. उन की इच्छा थी कि उन का बेटा वह अधूरा कार्य जरूर पूरा करे जिसे वे नहीं कर सके. इसलिए मैं ने आईएएस की तैयारी के लिए मन बनाया.

दलितों के समक्ष कौन सी समस्या नजर आती है?

पहले अनुसूचित जाति में शिक्षा का बहुत अभाव था. लोग जातीय भेदभाव के चलते पढ़ नहीं पाते थे. लेकिन बाबा साहेब डा. भीमराव अंबेडकर के ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो’ के नारे से निश्चित रूप से दलित समाज में बदलाव आया है. जिन के पास साधन है उन्होंने बेहतर शिक्षा हासिल की है और कर रहे हैं. लेकिन फिर भी इस दिशा में बहुत कुछ करना बाकी है. मैं अपने सेवाकाल के दौरान जितना संभव हो सकेगा, इस समाज के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक विकास की दिशा में सहयोग करने का सार्थक प्रयास करूंगा.

आज के दौर में अधिकांश बच्चे और युवा मोबाइल, मीडिया और मनी के चलते भटकाव की स्थिति में हैं, क्या आप इस से सहमत हैं?

यह सही है कि यह दौर मीडिया, मोबाइल और मनी के चलते भटकाव पैदा करने वाला है लेकिन यदि मातापिता के संस्कार ठीक हैं और बच्चों का लालनपालन उन की देखरेख में बेहतर तरीके से होता है, तो बच्चे या युवा इस दौर में भी बेहतर कर सकते हैं. मातापिता को चाहिए कि वे बच्चों के साथ ज्यादा समय दें, क्या चीज गलत है और क्या सही, इस बात का एहसास कराएं. युवा वर्ग को चाहिए कि वह दुनिया की चकाचौंध में फंस कर दूसरों की देखादेखी न करे. जितना और जैसा है, उसी में अपनेआप को ढालते हुए अपने शौक पूरे करे.

धर्म के रहनुमाओं का पाखंडी तमाशा

पुरी की जगन्नाथ रथयात्रा धार्मिक आडंबर और अंधविश्वास का ऐसा भव्य आयोजन है जो वनसंपदा और जनता की मेहनत की कमाई से फलताफूलता है. देश की आर्थिक संपदा को बरबाद करते इस पाखंड को धर्म के ठेकेदारों ने धर्मभीरुओं को पापपुण्य और मोक्ष का लालच दे कर किस तरह राष्ट्रीय व धार्मिक आयोजन में तबदील कर दिया है, बता रहे हैं सुरेश प्रसाद.

भारत अंधविश्वासों का देश है. ये अंधविश्वास यहां के पर्वत्योहारों में झलकते हैं. ऐसे उत्सवों में से एक है ओडिशा के पुरी की विश्वप्रसिद्ध जगन्नाथ रथयात्रा. आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को हर वर्ष जगन्नाथ रथयात्रा का आयोजन किया जाता है. रथयात्रा का दर्शन करने के लिए देशविदेश से लाखों लोग आते हैं और यहां के अंधविश्वास में विभोर हो जाते हैं. इस रथयात्रा में लाखों लोग बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. इस बार यह रथयात्रा 10 जुलाई से 18 जुलाई तक चली.

पुरी के जगन्नाथ मंदिर के बारे में यह धारणा है कि यहां कथित ‘भगवान’ कृष्ण, जगन्नाथ के रूप में विराजमान हैं और उन के साथ उन की बहन सुभद्रा व उन के बड़े भाई बलभद्र (बलराम) भी विराजते हैं. किंवदंती है कि एक बार सुभद्रा के आग्रह पर दोनों भाई उन्हें भ्रमण कराने के लिए द्वारका ले गए थे. उसी यात्रा की याद में हर वर्ष यह भव्य रथयात्रा निकाली जाती है. माना जाता है कि आज के दिन कथित भगवान जगन्नाथ अपनी मौसी के घर जाते हैं.

रथयात्रा के दौरान सब से आगे बलभद्र का रथ ‘तालध्वज’ चलता है. उस के पीछे सुभद्रा का रथ ‘दर्पदलम’ व सब से पीछे जगन्नाथ का रथ ‘नंदिघोष’ चलता है. हर रथ में  4 काष्ठ के अश्व व सारथी रहते हैं. अर्थात रथ में सजीव घोड़े न हो कर लकड़ी के बने घोड़ों का इस्तेमाल होता है. सारथी भी पंडेपुजारी न हो कर लकड़ी के ही होते हैं.

वनसंपदा का अपव्यय

लकड़ी से बनाए गए जगन्नाथ का रथ 35 फुट लंबा, 35 फुट चौड़ा व 45 फुट ऊंचा होता है. बलभद्र का रथ 44 फुट लंबा व 43 फुट ऊंचा होता है. जगन्नाथ के रथ में 16 पहिए, बलभद्र के रथ में 14 व सुभद्रा के रथ में 12 पहिए होते हैं. हर रथ का भार 60 टन से भी अधिक होता है. ये रथ प्रतिवर्ष नए बनाए जाते हैं. इन के निर्माण में लकड़ी का भारी अपव्यय होता है क्योंकि हर साल इन के निर्माण में टनों लकड़ी बरबाद हो जाती है. वनसंपदा की बरबादी का आलम यह है कि तीनों रथों पर जो मूर्तियां विराजमान होती हैं वे भी काष्ठनिर्मित होती हैं और इन मूर्तियों को हरेक मलमास (लीप इयर) में बदला जाता है, यानी पुरानी मूर्तियों को मंदिर परिसर में जमींदोज कर नई लकड़ी मूर्तियों का निर्माण किया जाता है.

हरेक रथ के निर्माण में लगभग 60 टन लकड़ी लगती है. मूर्तियां हर 3 साल (हिंदू कैलेंडर के मुताबिक हर 3 साल पर मलमास या लीप इयर होता है) बाद बदली जाती हैं. अगर 3 मूर्तियों का वजन सम्मिलित रूप से 60 टन मान लें तो औसतन प्रतिवर्ष 20 टन लकड़ी उस में भी लगी, यानी प्रतिवर्ष 3 रथ व मूर्ति में 200 टन लकड़ी इस्तेमाल हुई. इस तरह इस धार्मिक आयोजन में करोड़ों रुपए यों ही बरबाद होते हैं. यह कीमत सिर्फ कच्चे माल (महज लकड़ी) की ही हुई. इतनी लकडि़यां जुटाने के लिए हर वर्ष सैकड़ों पेड़ काटने पड़ते होंगे. इस तरह अकेले पुरी की रथयात्रा पर ही लगभग करोड़ों की वनसंपदा प्रतिवर्ष नष्ट हो रही है.

गौरतलब है कि पुरी की रथयात्रा के समानांतर देशभर में रथयात्राओं का आयोजन किया जाता है. सो, देशभर में वनसंपदा की क्षति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. एक ऐसे ‘बीमारू’ राज्य ओडिशा में, जहां की लगभग दोतिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही हो, प्रतिवर्ष करोड़ों की वनसंपदा नष्ट करना, वह भी धर्म व अंधविश्वास के नाम पर, बेवकूफी नहीं तो और क्या है? उस पर तुर्रा यह कि हम विश्व की ‘आर्थिक महाशक्ति’ बनने को आतुर हैं. क्या देश का पर्यावरण एवं वन मंत्रालय इस तरफ ध्यान नहीं देता? वनों के इर्दगिर्द रहने वाले आदिवासी जब ईंधन के लिए लकड़ी काटते पाए जाते हैं तब वनरक्षक उन पर गोली तक चला देते हैं. उन गरीब आदिवासियों पर ‘वन्य संरक्षण कानून’ लागू हो जाता है और उन्हें दंडित किया जाता है.

दूसरी तरफ रथयात्रा के आयोजन के नाम पर धार्मिक लुटेरे प्रतिवर्ष सैकड़ों पेड़ काट डालते हैं तो सरकार चूं तक नहीं बोलती. क्या इन धार्मिक लुटेरों पर ‘वन्य संरक्षण कानून’ लागू नहीं होता? यह नक्सलवाद देशभर में अकारण ही अपने पैर पसार रहा है. नक्सलियों में ज्यादातर गरीब आदिवासी हैं. अगर उन की उपेक्षा होगी तो उन के पास और क्या चारा रह जाता है, क्योंकि उन की रोजीरोटी पर ये धार्मिक लुटेरे हावी हो जाते हैं.

रथ खींचने की होड़

ऐसा अंधविश्वास है कि इस रथयात्रा में रथों को खींचने से सारे पाप धुल जाते हैं और मरणोपरांत मोक्ष की प्राप्ति होती है. यही कारण है कि देशविदेश से आए कथित श्रद्धालुओं के बीच रथ खींचने की होड़ लगी रहती है ताकि उन के सारे कुकर्म माफ हो जाएं यानी रथ खींचो और पापमुक्त हो जाओ. कई बार तो रथयात्रा के दौरान भगदड़ मच जाती है और लोगों की जानें तक चली जाती हैं. काष्ठ मूर्ति पर भारी सुरक्षा व्यय हर बार की तरह इस बार भी रथयात्रा के लिए प्रशासन ने सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए. इस बार सुरक्षा को ले कर रैपिड ऐक्शन ऐंटी टैरेरिस्ट स्क्वायड और कोस्ट गार्ड के जवानों को तैनात किया गया. पूरे रास्ते पर सीसीटीवी कैमरे लगाए गए.

दिमागी दिवालिएपन का नजारा

पुरी की रथयात्रा के अलावा पूरे देश में अपनीअपनी अलग रथयात्राओं की धूम रहती है. पुरी के अलावा मुंबई, जयपुर, अहमदाबाद सहित कई दूसरे शहरों व कसबों में भी जगन्नाथ यात्रा धूमधाम से निकाली जाती है. गुजरात के मुख्यमंत्री अहमदाबाद के जमालपुर स्थित मंदिर के बाहर रथयात्रा के मार्ग को बुहारते हैं.

मीडिया भी रथयात्रा के कब्जे में

धार्मिक उत्सवों के प्रसारण में खबरिया चैनल एकदूसरे से होड़ लेते दिखाई  देते हैं. कई चैनल तो इस का सीधा प्रसारण भी दिखाते हैं. एक धर्मनिरपेक्ष देश में किसी भी धर्म के उत्सवों का सीधा प्रसारण नहीं होना चाहिए क्योंकि इस से अंधविश्वास को बढ़ावा मिलता है. और तो और, लोग कथित ‘मोक्षप्राप्ति’ के  लिए अनर्गल क्रियाकलापों (मसलन, रथ खींचना वगैरह) के प्रति प्रेरित  होते हैं.  देश का संविधान जहां वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने की सीख देता है वहीं देश का मीडिया लोगों में धार्मिक उत्सवों के प्रसारण के जरिए अंधविश्वास फैला रहा है.

मजे की बात तो यह है कि कोई  भी सांसद संसद में इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोलता, जबकि अपने वेतनभत्ते बढ़ाने के लिए पक्षविपक्ष के सभी सांसद एक हो जाते हैं. हों भी क्यों न, जनता अंधविश्वासी बनी रहेगी तो वह माननीयों के घोटालों को भी ‘ईश्वरीय प्रकोप’ मान बैठेगी.

रथयात्रा का औचित्य

सब से महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि  21वीं सदी के तकनीकी युग में ‘रथयात्रा’ जैसे खर्चीले आयोजनों का औचित्य क्या है? ईश्वर को क्या वास्तव में काष्ठ निर्मित रथों की जरूरत है? लोग काष्ठ के रथ को पूज रहे हैं या फिर अपने इष्ट को? इन रथों के निर्माण पर जो वनसंपदा नष्ट हो रही है, आखिर वह संपदा है तो ओडिशा के लोगों की ही न.  सवाल यह भी है कि क्या एक ही बार निर्मित रथों से हर साल रथयात्रा  का आयोजन नहीं किया जा सकता? आखिर एक इंसान की उम्र भी 100 साल आंकी गई है, तो रथों की उम्र महज  3 साल क्यों? क्या ये रथ भी 100 साल इस्तेमाल नहीं किए जा सकते? जबकि इन रथों पर स्वयं ईश्वर विराजते हैं? ये ईश्वर अपने पुण्यप्रताप से इन रथों को अनंतकाल तक इस्तेमाल योग्य क्यों नहीं बना देते?

अंतिम सवाल यह है कि देवीदेवताओं को भला पर्यटन करने की जरूरत क्यों आन पड़ी? वे तो ‘सर्वव्यापी’ होते हैं व ‘सर्वशक्तिमान’ भी. फिर ये रथों की यात्रा क्यों करें व उन रथों को जनता क्यों खींचे? उन के जो परमभक्त (पंडेपुजारी) हैं वे ही रथों को खींचें और उन रथों के निर्माण पर सार्वजनिक धन का दुरुपयोग न किया जाए.  बेहतर यह होगा कि हम ऐसे मूर्खतापूर्ण आयोजनों से बाज आएं और गरीबी मिटाने व खुशहाली के लिए काम करें, जोकि रथयात्राओं से नहीं बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने से ही संभव हो सकेगी.

हमारी बेडि़यां

हमारे घर में बहुत दिनों से प्रथा चली आ रही थी कि घर में कोई भी शुभ कार्य संपन्न करने से पहले ‘कुलदेवता’ की पूजा होती और उस पूजा में कुलदेवता को एक सफेद ‘भेड़’ की बलि दी जाती थी.  मेरी मां और पिताजी देवर और ननद की शादीब्याह से ले कर हम बहनों के मुंडन तक कुलदेवता को सफेद भेड़ की बलि देते रहे. जब दीदी की शादी की बारी आई, पिताजी 15 दिन पहले ही सब काम छोड़ कर सफेद भेड़ खोजने निकल गए. कुछ दिनों के बाद पिताजी बहुत बीमार हो कर खाली हाथ वापस आ गए. पिताजी की तबीयत इतनी खराब हो गई कि उन्हें अस्पताल में भरती करना पड़ा.

इधर घर में बेटी का ब्याह उधर अस्पताल में पिताजी की नाजुक स्थिति. मां से नहीं रहा गया. पिताजी की बिगड़ती हालत देख, मां मन में कुछ सोच कर पिताजी से बोलीं, ‘‘मैं ने सफेद भेड़ का इंतजाम कर लिया है. अब आप को कुछ करने की जरूरत नहीं. आप जल्दी से ठीक हो जाइए.’’ पिताजी आश्वस्त हो गए और शादी तक धीरेधीरे स्वस्थ हो कर घर आ गए.  मां ने सफेद भेड़ की जगह सफेद मोम का भेड़ कुलदेवता को अर्पण कर नई शुरुआत की.

डा. स्वेता सिन्हा, मैथन (झारखंड)

 

मेरे देवर की शादी थी. जब दुलहन को ले कर बरात वापस आई तो भद्रा लग चुकी थी. मेरी सास ने कहा कि इस लगन में वधू प्रवेश अशुभ होता है. इसलिए नवदंपती को होटल में ठहरा दिया गया. शादी का सामान भी होटल में था. रात में जब वे सो रहे थे तो सारा कीमती सामान चोरी हो गया. पुलिस भी कुछ नहीं कर पाई. उस शादी को हम आज तक नहीं भूले हैं.

निर्मल कांता गुप्ता, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

 

उत्तर प्रदेश में नागपंचमी के त्योहार को गुडि़या के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन बहनें सुबह से कपड़े की सुंदरसुंदर गुडि़याएं बनाती हैं और दोपहर में घर के बाहर फेंक देती हैं. भाई लोग डंडी से इन गुडि़यों को इतना पीटते हैं कि उन के अंग अलगअलग हो जाते हैं.  मैं सोचती कि यह कैसा त्योहार है कि इतनी मेहनत से बनी गुडि़या को भाई लोग पीटपीट कर बरबाद करते हैं. मां से इस संदर्भ में बात की तो वे टाल गईं. परंतु मेरी दादी ने बताया कि इस के पीछे पुरुषों की मानसिकता होती है कि यदि ससुराल में लड़कियों को कष्ट होता है या पुरुषों द्वारा प्रताडि़त होती हैं तो इस के लिए वे तैयार रहें. उन में सहने की शक्ति हो.  शहरों में यह प्रथा कम हो रही है पर गांवों में अब भी देखने को मिलती है.

उपमा मिश्रा, गोंडा (उ.प्र.)

भारत भूमि युगे युगे

दलितब्राह्मण भाईभाई

समाज व देशभर से दबदबा टूटने के अलावा और भी कई वजहें हैं जिन के चलते ब्राह्मण समुदाय दुखी है. नई वजह पिछड़े वर्ग के नरेंद्र मोदी हैं जिन्हें भाजपा प्रधानमंत्री पद का अपना उम्मीदवार घोषित करने को उतारू है. बसपा सुप्रीमो मायावती ने लखनऊ में हालिया संपन्न ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन में बदली भाषा का इस्तेमाल किया.  नरेंद्र मोदी को निशाने पर रखते हुए उन्होंने कुछ ऐसे शब्दों का भी इस्तेमाल किया जिस की उम्मीद उन से नहीं थी. माया को मालूम है कि दलितों और ब्राह्मणों में भाषा का भी बड़ा फर्क है. लिहाजा, बजाय तीर्थयात्रा के चलन को कोसने के उन्होंने मोदी की क्षेत्रीय मानसिकता को कोसा. दलितों के पास अभी तीर्थयात्रा करने लायक पैसा भी नहीं है लेकिन अगर वाकई भाईचारा पनप पाया तो दलित भी सशुल्क वैतरणी पार करने में सवर्णों की बराबरी करने लगेंगे.

 

ज्योति धुन

किसी भी प्रदेश के सब से लंबे वक्त तक मुख्यमंत्री रहने का रिकौर्ड बनाने वाले पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु की जन्मशती इस साल मन रही है. माकपा मार्क्सवाद का दुखद और सीधासादा अंत देखने को तैयार नहीं है, इसलिए ज्योति बसु को उस ने देवता सरीखा बना दिया है. लोगों की थोड़ीबहुत दिलचस्पी ज्योति बसु में तो है पर माकपा और मार्क्सवाद में कतई नहीं.  दूसरी बड़ी दिक्कत बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हैं, जिन की अप्रिय बातों और घटनाओं के बाद भी उन की लोकप्रियता घट नहीं रही है. बहरहाल, इस फीकी जन्मशती से बंगाल के लोग हैरान हैं कि माकपा ज्योति बसु की आड़ क्यों ले रही है.

 

पांच रुपए पर बवाल

नरेंद्र मोदी की प्रस्तावित 11 अगस्त की हैदराबाद रैली का शुल्क 5 रुपए रखने पर कांग्रेस की तिलमिलाहट स्वाभाविक है पर विरोधाभास की बात इस मामले में यह है कि राजनीतिक दलों व नेताओं पर आरोप लगते रहते हैं कि वे पैसे दे कर भीड़ खरीदते हैं. इस मामले में उलटा हो रहा है कि भीड़ से ही पैसा लिया जा रहा है.  यह पैसा हालांकि राममंदिर निर्माण के चंदे सरीखे सा अरबों रुपए का नहीं है पर भाजपाइयों को इस बात का भी गहरा तजरबा है कि सिर्फ हाथ जोड़ने से कोई भक्त नहीं हो जाता, भक्त वह होता है जो जेब भी ढीली करे. तभी श्रद्धारूपी वोट मिलता है. काला पैसा ठिकाने लगाने का जरिया तो इसे नहीं माना जा सकता पर हास्य कलाकार राजू श्रीवास्तव जरूर इस से प्रेरणा लेते खासा पैसा बटोर सकते हैं जो कानपुर सीट से सपा के उम्मीदवार हैं.

 

कौकपिट में अभिनेत्री

कौकपिट क्या होता है, यह आम लोग नहीं जानते और जो जानते हैं वे इतना भर बता सकते हैं कि जैसे पुराने  जमाने की खटारा बसों में बोनट होता था, कुछकुछ वैसा ही हवाईजहाज में कौकपिट होता है. फर्क सिर्फ इतना है कि बस ड्राइवर अपनी मरजी से बोनट पर सवारी बिठा सकता है पर पायलट कौकपिट में नहीं.  बीते दिनों हैदराबाद-बेंगलुरु फ्लाइट में एअर इंडिया के 2 पायलटों ने दक्षिण भारतीय फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री निथाया मेनन को बैठाया तो एवज में उन्हें निलंबित होना पड़ा. कौकपिट आम यात्रियों के लिए सुरक्षा कारणों से नहीं होता पर दिल और मनमानी पर किसी का जोर नहीं चलता. सफर चाहे बस का हो, रेल का या फिर हवाईजहाज का, हर किसी की ख्वाहिश होती  है कि बगल में कोई खूबसूरत बाला हो  पर निथाया मेनन पायलटों के लिए बला साबित हुई.

विज्ञापन के लिए पाठक और दर्शक की अहमियत

विज्ञापन पत्रपत्रिकाओं की जान होते हैं. यदि विज्ञापन नहीं हों तो अखबार और पत्रिकाएं 10 गुना अधिक कीमत पर भी उपलब्ध नहीं हों. यहां भी प्रसार संख्या महत्त्वपूर्ण है. जिस की प्रसार संख्या जितनी अधिक होगी उस की विज्ञापन की दर भी उसी दर से बढ़ेगी. प्रसार और पाठक संख्या का प्रमाणपत्र पत्रपत्रिकाओं को सरकारी एजेंसी से मिलता है जिस के बल पर बड़ेबड़े होर्डिंग दावा करते हुएकहते हैं कि देश की सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला समाचारपत्र या सब से अधिक पढ़ा जाने वाला अखबार आदि.

दरअसल, पत्रिकाओं की प्रसार संख्या उन के विज्ञापन का आधार होती है. इधर, टैलीविजन चैनलों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. उन्हें कितने लोग देख रहे हैं या उन्हें साप्ताहिक स्तर पर मिली टीआरपी के आधार पर विज्ञापन मिलते हैं और विज्ञापन की दर उसी आधार पर तय होती है.  विज्ञापनदाता को अपना सामान बेचना होता है, इसलिए वह ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों तक अपने विज्ञापन के जरिए पहुंचना चाहता है और इस के लिए वह टैलीविजन, समाचारपत्रपत्रिकाओं का सहारा लेता हैं.

विज्ञापन दुनिया की प्रमुख कंपनी डाबर और नेस्ले ने साप्ताहिक आंकड़ा नहीं मिलने के कारण 8 टीवी चैनलों के विज्ञापन बंद कर दिए हैं. उन का कहना है कि टीवी कंपनियों की साप्ताहिक दर्शक संख्या यानी टैलीविजन औडियंस मेजरमैंट का डाटा नहीं मिल रहा है. टैम मीडिया रिसर्च का डाटा नहीं मिलेगा तो कंपनी टीवी चैनलों को विज्ञापन देना बंद कर देगी. टीवी चैनलों में इस निर्णय से हड़कंप मचा हुआ है. चैनलों को करोड़ों रुपयों का नुकसान हो रहा है. इन कंपनियों का कहना है कि टैम 14 साल से देश में टीवी दर्शकों का आंकड़ा प्रस्तुत करता रहा है और उस के आंकड़ों के आधार पर ही विज्ञापन देने की योजना बनाई जाती रही है लेकिन इधर टैम का आंकड़ा नहीं आया तो विज्ञापन देने के निर्धारण में दिक्कत खड़ी हो गई.

टैम का कार्य अब ब्रौडक्रास्ट औडियंस रिसर्च कौंसिल को मिलने की बात चल रही है लेकिन कौंसिल को काम की शुरुआत करने में अभी महीनों लगने की संभावना है. बहरहाल, पाठक और दर्शक या श्रोता किसी मीडिया संस्थान के लिए कितने महत्त्वपूर्ण हैं, इस का अंदाजा इन विज्ञापन कंपनियों के फैसले से लगाया जा सकता है. इसलिए आम आदमी की ताकत का सदैव सम्मान किया जाना जरूरी है.  

संप्रग सरकार के वालमार्ट प्रेम की कुछ तो वजह

पिछले साल वालमार्ट यानी दुनिया की सब से बड़ी खुदरा कंपनी को भारत में कारोबार करने की इजाजत देने जैसे मुद्दे पर संसद रिकौर्ड समय तक ठप रही. विपक्ष वालमार्ट पर सरकार की चुप्पी से परेशान हो गया लेकिन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग सरकार का कोई नेता या घटक यह बताने को तैयार नहीं कि संसद को किन कारणों से ठप किया जा रहा है.

विपक्ष वालमार्ट को नहीं लाने की जिद पर अड़ा रहा तो संप्रग सरकार हर हाल में इस खुदरा कंपनी को भारत में काम करने की इजाजत देने के लिए कानून बनाने की बात पर अड़ी थी. इस बीच वालमार्ट से जुड़े घोटालों की कहानियां भी परत दर परत खुलती रहीं. अमेरिका में भी उस के घूसकांड की कहानियां गूंजीं लेकिन संप्रग सरकार उस के खिलाफ कुछ भी सुनने को राजी नहीं थी. इस बार फिर वालमार्ट का भूत दोबारा आ गया है.

केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो यानी सीबीआई ने कहा है कि वालमार्ट ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई में रिजर्व बैंक व विदेशी विनिमय मेंटिनैंस अधिनियम यानी फेमा कानून का उल्लंघन किया है. शिकायत में कहा गया है कि वालमार्ट ने 2010 के अपने भारतीय सहयोगी भारती को 593.1 करोड़ रुपए खुदरा व्यापार के जरिए भेजे हैं जबकि उस समय तक देश के खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की इजाजत नहीं थी. सीबीआई के अनुसार, यह आरबीआई के दिशानिर्देशों व फेमा का उल्लंघन है. इस की शिकायत राज्यसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद एम पी अच्युतन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी की है. एक शिकायत तो पिछले वर्ष सितंबर में की गई थी लेकिन संप्रग सरकार ने इस शिकायत पर कोई ध्यान नहीं दिया.

राज्यसभा सांसद ने इस सौदे को अवैध करार दिया था लेकिन डा. सिंह ने इस दिशा में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. वालमार्ट रिश्वत दे कर अपना कारोबार बढ़ाने के लिए बदनाम है. उस पर वर्ष 2007 में किसी अन्य देश में कारोबार शुरू करने के लिए लाखों डौलर की रिश्वत देने का आरोप है और इस बारे में उस पर मुकदमा भी चल रहा है.

 

भारत में सस्ती कारों की बिक्री की गारंटी

वाहन निर्माता कंपनियां तेजी से भारत का रुख कर रही हैं. भारत वाहन निर्माण करने वाला दुनिया का सब से बड़ा देश है. सस्ती कार बनाने के लिए दुनिया की दिग्गज कार निर्माता कंपनियां भारतीय बाजार में संभावनाएं तलाश रही हैं. छोटी और सस्ती कार का कौंसैप्ट सब से पहले टाटा समूह ने दिया. उस की सस्ती कार नैनो ने पूरी दुनिया की कार निर्माता कंपनियों का ध्यान खींचा है. उस के बाद भारतीय बाजार की सभी प्रमुख कंपनियों में सस्ती कार बनाने की होड़ सी लग गई. रिनौल्ट निसान भी सस्ती कार ले कर भारतीय बाजार में आने की घोषणा कर चुकी है.

भारत छोटी कारों का आकर्षक बाजार है. सस्ती कार को खरीद कर यहां हर आदमी कार रखने का शौक पूरा करना चाहता है. देश में सड़कों का जाल बिछा है और सार्वजनिक वाहनों के भरोसे नहीं रहा जा सकता है. दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे महानगरों में सड़कें कम पड़ने लगी हैं. सड़कें चौड़ी की जा रही हैं लेकिन वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण वे फिर भी छोटी पड़ रही हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में भी कारों, खासकर छोटी और सस्ती कारों का बाजार बढ़ रहा है. निसान कंपनी का तो यहां तक कहना है कि यदि वह कुछ बेहतर करती है तो छोटी कार भारतीय बाजार में बिक्री की गारंटी है. किसी दूसरे देश के लिए इस तरह की गारंटी नहीं दी जा सकती है.

कंपनी के सीईओ कार्लोस घोसन कहते हैं कि वे नैनो से सस्ती कार तो नहीं बेच सकते लेकिन उन के पास आंकड़े हैं कि भारतीय बाजार में छोटी कारों की बिक्री की संभावना है. वे कहते हैं कि अमेरिका में 1 हजार में से 800 लोगों के पास कारें हैं, यूरोपीय देशों में करीब 600 लोगों के पास हैं जबकि रूस में 280, ब्राजील में 200, चीन में 60 व भारत में 15 लोगों के पास कारें हैं. इस तरह से भारतीय बाजार में संभावनाएं काफी हैं. यही नहीं, भारत में लोगों के पास पैसा तेजी से आ रहा है और हर आदमी अपनी आमदनी का दिखावा करना पसंद भी करता है. पुरानी कार ले कर लोग कार रखने का शौक पूरा कर रहे हैं और यदि उन्हें सस्ती दर पर नई और बेहतर कार मिल जाती है तो खरीदार पुरानी कार के बजाय नई कार खरीदना पसंद करेगा, इसलिए भारत में छोटी कार का बाजार संभावनाओं से भरा है.

 

सूचकांक बीस हजार के पार

जून में महंगाई की दर बढ़ने और रुपए के लगातार कमजोर बने रहने के बावजूद शेयर बाजार में चमक रही और सूचकांक एक बार फिर 20 हजार अंक के पार जा पहुंचा. बौंबे शेयर बाजार के सूचकांक के इस ऊंचाई पर पहुंचने से निवेशकों में उत्साह का माहौल है. रिजर्व बैंक ने लघु बचत योजनाओं पर ब्याजदर बढ़ाई तो इस का बाजार पर विपरीत असर जरूर हुआ लेकिन प्रधानमंत्री के विकास दर के बारे में दिए गए बयान और वित्त मंत्री पी चिदंबरम की विदेश यात्रा में भारत के आर्थिक परिदृश्य को मजबूती से पेश करने की वजह से बाजार में रौनक रही. इस की दूसरी वजह कंपनियों के तिमाही परिणामों का सकारात्मक रहना भी रहा.

जुलाई 19 को समाप्त सप्ताह में सूचकांक लगातार आखिरी 3 दिनों में तेजी पर बंद हुआ. पहले दिन तो सूचकांक ने 20 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार किया. सप्ताह के आखिरी दिन टीसीएल, रिलायंस अन्य महत्त्वपूर्ण कंपनियों के अच्छे तिमाही परिणाम की बदौलत सूचकांक 6 सप्ताह के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया. नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी भी 6 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर से आगे निकल गया. जानकारों का कहना है कि बाजार के लिए माहौल उत्साह भरा है. सरकार के आर्थिक स्तर पर उठाए जा रहे कदमों का बाजार पर अच्छा असर है और आने वाले दिनों में भी बाजार की यही गति रहेगी. हालांकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि ईंधन की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी और रुपए में सुधार नहीं होने का प्रतिकूल असर बाजार पर देखने को मिलेगा लेकिन यह बहुत निराशाजनक नहीं होगा.

 

कठघरे में जातीयता

सियासी दलों ने धर्म और जाति को वोटबैंक की राजनीति से जोड़ कर हमेशा से ही अपना उल्लू सीधा किया है. लेकिन हाल ही में आए एक अदालती फैसले से जातिधर्म की मजबूत होती जड़ों पर पानी फिरता दिख रहा है. क्या है यह मामला, बता रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

अंगरेजों की गुलामी से मुक्त होने के बाद जब देश आजाद हुआ  तो लगा कि जाति, धर्म और छुआछूत जैसे आडंबरों व कुरीतियों से समाज मुक्त हो सकेगा. सब को समान अधिकार और आगे बढ़ने के अवसर हासिल होंगे. लेकिन राजनीतिक दलों ने बड़ी चतुराई से जाति और धर्म को वोटबैंक की राजनीति से जोड़ दिया. इस के बाद तो जाति और धर्म की कुरीतियों का विरोध कम होता गया. भले ही इस के खिलाफ बोलने वालों की तादाद लगातार कम होती गई हो पर दिल्ली प्रैस प्रकाशन समूह ने अपनी पत्रिकाओं, प्रमुख रूप से ‘सरिता’ और ‘सरस सलिल’ के जरिए जाति और धर्म की मजबूत होती जड़ों पर हमला जारी रखा. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच ने जनहित याचिका की सुनवाई करते जाति आधारित राजनीतिक रैलियों और सम्मेलनों पर रोक लगा  दी तो साबित हो गया कि कानून भी जातीयता को कठघरे में खड़ा कर रहा है. फौरीतौर पर राजनीतिक दलों ने भले ही अदालत के फैसले का स्वागत किया हो पर अंदरखाने वे इस की काट तलाशने में जुट गए हैं.

जाति और धर्म की दीवारें इतनी ऊंची हो गई हैं कि समाज के लोग इन में बंट कर रह गए हैं. इन ऊंची दीवारों के चलते ताजी हवा नीचे तक नहीं आ पा रही है जिस से समाज की सोच में सड़ांध सी आने लगी है. आजादी के पहले बात केवल जाति और धर्म की थी अब तो जाति के अंदर उपजातियों को ले कर भी खेल शुरू हो गया है.

सब से बड़ी बात यह कि जाति और धर्म को वोटबैंक बनाने वाले उन की तरक्की की नहीं, वोट की बात करते हैं. अपने हितों के लिए लोगों को बांटते हैं. इस वजह से समाज में दंगे, लड़ाई?ागडे़ और वैमनस्यता फैलती है. जातियों के भीतर ऊंची सोच वाले लोग फैल चुके हैं. वे अपनी जाति में नए मनुवादी बन बैठे हैं. ऐसे लोग अपनी ही जाति को मिलने वाले आरक्षण का लाभ भले ही उठाते हों पर अपनी जाति के कमजोर लोगों से वैसे ही छुआछूत वाला व्यवहार करते हैं  जैसे ऊंची जातियों के लोग करते थे. आजादी के 66 साल के बाद भी देश में जाति और धर्म कमजोर नहीं हो सका जिस के कारण अदालत को यह फैसला करना पड़ा.

जातीयता पर सवाल

लखनऊ के रहने वाले वरिष्ठ वकील मोतीलाल यादव रोजरोज की जातीय रैलियों से खफा थे. समाज के लिए सही सोच रखने वाले मोतीलाल यादव ने इन जातीय रैलियों का पूरा अध्ययन किया. उन को लगा कि प्रदेश में जाति पर आधारित राजनीतिक रैलियों की बाढ़ आ गई है. सियासत करने वाले दल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य सम्मेलन कराने के लिए रैलियों पर जोर देने में जुटे हैं. उन्होंने महसूस किया कि इस से सामाजिक समरसता और एकता को नुकसान हो रहा है.

अपनी बात कहने के लिए उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के जस्टिस उमानाथ सिंह और जस्टिस महेंद्र दयाल के सामने अपनी याचिका दाखिल कर मांग की कि अदालत चुनाव आयोग से ऐसी रैलियों पर रोक लगाने का आदेश दे. ऐसी राजनीतिक रैलियां करने वाले राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने से रोका जाए. ऐसे राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द करने के लिए भी उन की ओर से मांग की गई.  इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने वकील मोतीलाल यादव की याचिका पर सुनवाई की और अपना फैसला देते हुए जाति आधारित राजनीतिक रैलियों व सम्मेलनों पर रोक लगा दी. अदालत ने मामले के पक्षकारों, केंद्र सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार, निर्वाचन आयोग और 4 राजनीति दलों, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को नोटिस जारी किया है.

दरअसल, हर चुनाव के पहले राजनीतिक दल जातीय सम्मेलन और रैलियां करने लगते थे. बसपा ने खासतौर पर ऐसे सम्मेलनों की भरमार कर दी. 2014 के लोकसभा चुनावों में ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने के लिए बसपा की मुखिया मायावती ने ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित कर अपने को ब्राह्मणों का रहनुमा साबित करने की कोशिश की.

जातीयता बनी पहचान

बसपा ने 40 जिलों में इस तरह के ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन आयोजित किए. इस के लिए पार्टी के ब्राह्मण नेताओं-सतीश चंद्र मिश्र, ब्रजेश पाठक और रामवीर उपाध्याय को जिम्मेदारी दी गई थी. इस के जवाब में समाजवादी पार्टी ने भी ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित करने शुरू किए. ब्राह्मण महापुरुष परशुराम के जन्मदिन पर छुट्टी की घोषणा भी कर दी.  जातीयता ने महापुरुषों के सामाजिक कामों को तय करने का पैमाना बदल दिया. इन महापुरुषों की पहचान उन की जाति से होने लगी. जिस महापुरुष का नाम सब से बड़ा था वह उतना ही बड़ा वोटबैंक बन गया. एक तरह से देखें तो राजनीतिक दलों ने इन महापुरुषों को जाति का ब्रांड ऐंबैसेडर बना दिया. 

डा. भीमराव अंबेडकर को जब संविधान बनाने वाली सभा का अध्यक्ष बनाया गया था तब उन की जाति को नहीं काबिलीयत को आधार बनाया गया था. जब दलित वोटों की राजनीति शुरू हुई तो उन को दलित वर्ग से जोड़ कर देखा जाने लगा. इस के बाद सरदार वल्लभभाई पटेल को कुर्मी बिरादरी से जोड़ दिया गया.  राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने अपना पूरा जीवन जाति के मकड़जाल से लड़ने में लगा दिया पर वोटबैंक ने उन को भी जातीय खांचे में फिट कर दिया.

वोट के लिए महापुरुषों का महिमामंडन शुरू हुआ तो उन की मूर्तिपूजा का नया दौर शुरू हो गया. छत्रपति शाहूजी महाराज, नारायण गुरु, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले जैसी दलित वर्ग की हस्तियां ही नहीं, शिवाजी, परशुराम, महाराणा प्रताप, दीनदयाल उपाध्याय जैसे अगड़ी जातियों के लोगों को भी वोटबैंक से तोला जाने लगा. इन की मूर्तियां लगाई जाने लगीं व इन के नाम के पार्क बन गए. समाजवादी पार्टी ने ऐसे लोगों के नाम पर छुट्टियों की घोषणा कर के इन के नाम पर वोट पाने का रास्ता निकाल लिया. परशुराम जयंती पर छुट्टी का ऐलान  कर के ब्राह्मणों का दिल जीतने की कोशिश की. इसी तरह से सिंधी बिरादरी के लिए चेट्टीचंद जयंती, पिछड़ों के लिए विश्वकर्मा जयंती, वैश्य बिरादरी के लिए अग्रसेन जयंती, कायस्थों के लिए चित्रगुप्त जयंती और दलितों के लिए वाल्मीकि जयंती के दिन छुट्टी देने का चलन शुरू हो गया.

जिस पार्टी का वोटबैंक उस जाति के महापुरुष के लिए उपयोगी नहीं होता है उस की उपेक्षा भी इसी दौर में देखी गई. बसपा सरकार ने कांशीराम की जयंती और पुण्यतिथि पर छुट्टी घोषित की थी. समाजवादी पार्टी की सरकार के समय  इन छुट्टियों को खत्म कर दिया गया. मुसलिम बिरादरी के लिए ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के नाम पर छुट्टी शुरू कर दी गई.

जातीय रंग में डूबे दल

जब जातीय राजनीति की बात होती है तो सब से पहले सपा और बसपा जैसे दलों का नाम सब से ऊपर आता है. ऐसा नहीं है कि दूसरे दल दूध के धुले हैं. भाजपा, कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशक्ति पार्टी, जनता दल (युनाइटेड) और झारखंड मुक्ति मोरचा जैसे तमाम दल इस रंग में रंगे नजर आते हैं.   90 के दशक में जब अगड़ी जातियां राजनीतिक रूप से हाशिए पर पहुंचने लगीं तो भाजपा ने बड़ी चतुराई से लोध बिरादरी के कल्याण सिंह को आगे किया. उमा भारती को भी ऐसे ही समय पर भाजपा की मुख्यधारा में लाया गया था. यह बात और है कि काम निकल जाने के बाद ये नेता फिर हाशिए पर ढकेल दिए गए.

बसपा से भ्रष्टाचार के आरोप में निकाले गए बाबूसिंह कुशवाहा को गले लगाने में भाजपा ने देरी नहीं की थी. क्षत्रियों के लिए भाजपा ने महाराणा प्रताप और रानी लक्ष्मीबाई का उपयोग कर उन की मूर्तियां लगवाईं. उन के नाम पर अस्पताल खोले. कांग्रेस का नारा ‘जात पर न पात पर, मोहर लगेगी हाथ पर’ होता है. इस के बाद भी वह चुनावों में जातीय राजनीति का उपयोग करने से पीछे नहीं हटती है. सैम पित्रोदा को चुनाव के समय बढ़ई बिरादरी का बताया जाता है. मुसलिमों को रिझाने के लिए आरक्षण देने की बात भी कही जाती है.

जाति का खेल पुराना है. 70 के दशक में जब कांग्रेस 2 गुटों में बंट गई तो उस समय की कांग्रेस नेता इंदिरा गांधी ने ब्राह्मण, दलित और मुसलिम गठजोड़ तैयार किया. उस के सहारे लंबे समय तक भारतीय राजनीति में अपना सिक्का जमाए रखा. इस के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह जब कांग्रेस से अलग हुए तो जातीय राजनीति में अगड़ों के आधार को तोड़ने के लिए पिछड़ी जातियों का सहारा लिया. उस के चलते ही मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू हुईं. इस के बाद का सारा राजनीतिक खेल दलित और पिछड़ी जातियों में सिमट गया.

जातीय कार्ड को काटने के लिए भाजपा ने धर्म का कार्ड खेल दिया. इस के बाद तो सदियों से दबी पड़ी जाति और धर्म की राजनीति सतह पर आ गई. वोट के लिए राजनीतिक दलों ने इस रंग को गहरा करने की हर चाल चलनी शुरू  कर दी.

फैसले का क्या होगा असर

अब यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या कोर्ट के फैसले के बाद जातीयता से नजात मिल सकेगी? वरिष्ठ पत्रकार योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘अदालत के फैसले से जातीय सम्मेलन और जातीय रैलियां रुक जाएंगी पर राजनीति को जातीयता से नजात नहीं मिल सकेगी. राजनीतिक दल बड़ी चतुराई से इस का उपयोग ढकेछिपे रूप में करना शुरू कर देंगे.’’

वे कहते हैं, ‘‘वोट की पूरी राजनीति ही जाति पर टिकी है. हर पार्टी अपने उम्मीदवार का चयन जाति और धर्म के आधार पर करती है. जिस क्षेत्र में जिस बिरादरी के वोट ज्यादा होते हैं वहां से उस बिरादरी के उम्मीदवार को ही टिकट दिया जाता है. जाति के प्रभाव को खत्म करने के लिए खुद जनता को आगे आना होगा. उसे जाति और धर्म के नाम पर वोट देना बंद करना होगा. तभी जाति का यह खेल खत्म हो सकेगा.’’  राजनीतिक दलों ने वैसे तो अदालत के फैसले का स्वागत किया पर इस फैसले में पेंच डालना भी शुरू कर दिया है.  

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