सरित प्रवाह, जुलाई (प्रथम) 2013

भजभज मंडली में पिछले दिनों नेतृत्व को ले कर उठे सवालों और उन के भविष्य में होने वाले परिणामों पर ‘गठबंधन की गांठ’ शीर्षक के अंतर्गत आप के संपादकीय विचार पढ़े. धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर लोगों को उल्लू बना कर अपनी सत्ता बनाए रखने की खातिर जुगाड़ और गठबंधन के खेल का अंत यही होता है. अनपढ़ लोग इन नकाबी नेताओं के घडि़याली आंसुओं के बहकावे में भले ही आ जाएं लेकिन पढ़ेलिखे लोग भी जब इस तरह की ओछी, स्वार्थी राजनीति के शिकार बनें तो वाकई आश्चर्य होता है. कलियुगी रावणों ने राम का सहारा ले कर केवल अपना स्वार्थ सिद्ध किया है, इंसानियत का भला नहीं.

छैल बिहारी शर्मा ‘इंद्र’, छाता (उ.प्र.)

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आप की टिप्पणी ‘व्यवस्था में अव्यवस्था’ पढ़ कर निसंकोच ऐसी सल्तनत के लिए यह कहा जा सकता है कि ‘अंधेर नगरी चौपट राजा टका सेर भाजी टका सेर खाजा’. आज जनसाधारण में ‘चोरचोर मौसेरे भाई’ की धारणा फैली हुई है. यह तनिक भी गलत नहीं. वर्तमान में देश में हुए घोटालों, महाघोटालों से इस तथ्य की पुष्टि भी हो जाती है. मात्र ईमानदारी का ढोल पीटने या वैसा नकाब ओढ़ लेने से कोई सत्यवादी हरिश्चंद्र नहीं बन जाता. उस के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति, कर्तव्यपरायणता व उचित कदम उठाने की कूवत भी तो होनी चाहिए. ऐसा तभी संभव हो सकता है जब नेता अपनी सात पुश्तों हेतु हराम की कमाई इकट्ठा करने की नीयत को बदलें. मगर जब किसी की सोच ही ‘जब मिल जाए खाने को, तो क्यों  जाएं कमाने को’ जैसी होगी, तो फिर भ्रष्टाचारियों, लुटेरों, कानून की धज्जियां उड़ाने वालों व हराम की मिलबांट कर खाने वालों का गठबंधन तो होगा ही.  यों भी कहावत प्रचलित है कि ‘जब सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का.’ ऐसे में हम चाहे जितना होहल्ला मचा लें, न तो देश की गरीबी ही कम होगी, न लूटखसोट रुकेगी और न ही जनसाधारण को कानून के नाम पर दी जाने वाली प्रताड़ना से मुक्ति? मिलेगी.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘व्यवस्था में अव्यवस्था’ पढ़ी. इस में आज के शासनतंत्र का सही चित्रण है. हम इस ‘भ्रष्ट तंत्र’ के नियमों में फंसे हुए हैं. भ्रष्टाचार की गाड़ी बेरोकटोक आगे बढ़ रही है. बेईमानी का खेल जारी है. जनता की नजरों पर नियमों का परदा पड़ा है. सरकारी भ्रष्टाचार पर न्यायाधीश वक्तव्य दें या विदेशों में आलोचना हो, भ्रष्टाचारियों पर फर्क नहीं पड़ता. लोकतंत्र तो शाश्वत है पर क्या इस तंत्र का उपरोक्त स्वरूप भी शाश्वत होना चाहिए?

कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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आप की टिप्पणी ‘भाजपा का खयाली पुलाव’ सामाजिक, सामयिक, सचाई से ओतप्रोत व ज्ञानवर्द्धक है. आप ने यह बिलकुल ठीक लिखा है कि नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी का मुख्यतम नेता मान लेने में ही जिन्हें भलाई दिख रही है, उन्होंने जिस तरह का हंगामा खड़ा किया वह आने वाले दिनों का संकेत दे रहा है. आप का यह कहना काबिलेतारीफ है कि नरेंद्र मोदी का बुलडोजर देश के प्रति चिंता करने वाले भारतीय जनता पार्टी के रहेसहे नेताओं को रौंद कर धार्मिक संकीर्णता की कंटीली ?ाडि़यों के लिए जगह खाली करने को चल पड़ा है.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘धर्मजनित विचार शून्यता’ में नेता, बुद्धिजीवियों और प्रचार माध्यमों की अच्छी खबर ली गई है. आजकल विपक्ष और सत्तापक्ष के नेताओं में मात्र टांगखिंचाई का खेल चल रहा है. देश की गंभीर समस्याओं के लिए न तो समय है और न ही नेता इन की परवा करते हैं. नक्सली जो करना चाहें वह करें.  एक आम चुनाव हो जाने के बाद विपक्षी पार्टी अगले 5 साल तक केवल अपना प्रधानमंत्री बनाने का प्रोग्राम चलाती है. कई अखबारपत्रिकाएं उस की मुट्ठी में हैं जो रहरह कर उस के प्रधानमंत्री पद के दावेदार का प्रचार बेवजह करती रहती हैं, बिना बहुमत पाए प्रधानमंत्री बनाने का खेल केवल भारत में ही संभव है.  धर्मजनित विचारशून्यता तो जानबू?ा कर हमारी कमजोरी बनाई जा रही है वरना बीते दशकों में यह विचारशून्यता देश में कमजोर हो गई थी.

माताचरण, वाराणसी (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘धर्मजनित विचार- शून्यता’ के तहत आप के विचारों से हम सब (मैं, मेरे दोस्त और हम सब के परिवार) पूरी तरह सहमत हैं. हमें भी ताज्जुब होता है कि जब हमारे देश में हर जना (करोड़पतियों और नेताओं को छोड़ कर) दुखी हो कर सड़क पर उतर रहा है तो उस का कोई उपाय क्यों नहीं ढूंढ़ा जाता? टैलीविजन पर आजकल एक नया जोश देखा जा रहा है. सारे न्यूज चैनल, चाहे  वे हिंदी के हों या अंगरेजी के, विशेषज्ञों का पैनल बैठा देते हैं. किसी भी मुद्दे को वे बड़ा बना कर बहस शुरू कर देते हैं. अजीब यह है कि बहस पर जो भी बोलना शुरू करता है, उसे बीच में ही रोक देते हैं. कभी?भी कोई हल निकलता तो मैं ने देखा नहीं. पैनल में शामिल होने वाले विशेषज्ञ अधिकतर राजनीतिक दल के होते हैं या फिर रिटायर्ड लोग होते हैं.

मुझे लगता है यह भी एक धंधा हो गया है. स्वयं पार्टी में होने के बावजूद कोई काम करते नहीं हैं. इसी तरह कुरसी पर जब बैठे थे तब कुछ किया नहीं और रिटायर होने के बाद गलतसही के मसीहा बन बैठे.  मैं समझता हूं मीडिया चाहे वह टैलीविजन हो या समाचारपत्र और या फिर मैगजीन, सार्वजनिक बहस केवल गंभीर व पेचीदा मामलों पर ही होनी चाहिए और कोशिश हल?ढूंढ़ने की होनी चाहिए. आम चुनाव 2014 में होंगे और सब अपनेअपने काम छोड़ कर चुनाव जीतने की तैयारी में लग गए हैं. क्या इस तरह देश चलता है? मीडिया ने एक नई चीज पकड़ ली है. लोगों के ट्विटर और ब्लौग से खबरें ला कर चर्चा का विषय बना रहे हैं. ये लोग आप का संपादकीय नहीं पढ़ते?

ओ डी सिंह, वडोदरा (गुजरात)

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प्रकृति का प्रकोप

उत्तराखंड में प्रकृति का प्रकोप एक अवर्णनीय विभीषिका है. समस्त उत्तराखंड के लिए यह चिंता का विषय है. सवाल यह है कि क्या हिंदी या किसी भारतीय भाषा के पंचांग में इस प्रकार के भीषण संकट का संकेत था?

डा. के सिंघल, तमिलनाडु (चेन्नई)

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गुजरात में बिजली

जुलाई (प्रथम) अंक में ‘विकसित गुजरात की अविकसित तसवीरें’ शीर्षक से प्रकाशित पूरक लेख पढ़ा.  केवल एक घटना को माध्यम बना कर गुजरात में 24 घंटे मिलने वाली बिजली को गलत साबित करने की कोशिश गलत है. 24 घंटे बिजली न मिलने से होने वाले नुकसान को भुक्तभोगी ही जानते हैं. महाराष्ट्र में कहीं ज्यादा किसान आत्महत्या करते हैं. लेख में जो अन्य विषय उठाए गए हैं वैसे किसी भी राज्य के लिए लिखे जा सकते हैं. भ्रष्टाचार के लिए हमारी राजनीतिक, आर्थिक (कर प्रणाली), कानूनी व्यवस्था जिम्मेदार है.  मोदी की उपलब्ध्यों को बढ़ाचढ़ा कर बताना उतना ही गलत है जितना कि उन्हें नकारना. क्या अच्छे काम की प्रशंसा नहीं होनी चाहिए? क्या सब चीजें काली या सफेद ही होती हैं?

गोपाल कृष्ण, मुंबई (महा.)

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सरिता की दिशा

जुलाई (प्रथम) अंक के मुखपृष्ठ पर छपे चित्र को देख कर आश्चर्यमिश्रित कष्ट हो रहा है. मेरी नन्ही सी पोती इस चित्र को देख कर पूछ रही है, ‘अम्मा, यह क्या है?’ मु?ो शर्म आ रही है कि मैं उसे क्या बताऊं.  घरघर में पढ़ी जाने वाली सरिता, जिसे मैं अत्यंत स्नेह और आत्मीयता के साथ 40 वर्षों से पढ़ रही हूं, देश की लाखों बहनें जिस पत्रिका के नए अंक का बेसब्री से इंतजार करती हैं, जिस में प्रकाशित होने वाली कहानियां, कविताएं, लेख दिल को अंदर तक भिगो देते हैं, उस पत्रिका के मुखपृष्ठ पर सस्ती लोकप्रियता के लिए ऐसा चित्र प्रकाशित करने की मजबूरी कैसे आन पड़ी? अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार करने वाली, ज्ञानवर्धक, स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने का सरिता का जो उत्कृष्ट रूप है, कृपया उसे विकृत मत कीजिए. सैक्स के नाम पर अश्लील सामग्री को देख कर देश में अमर्यादित यौनाचार ही बढ़ेगा.

डा. वीना अग्रवाल, हरिद्वार (उत्तराखंड)

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स्वस्थ सैक्स यानी स्वस्थ जीवन

जुलाई (प्रथम) अंक ‘सैक्स स्वास्थ्य विशेषांक’ में आधुनिक लाइफस्टाइल में सैक्स की महत्ता की जानकारी दी गई है जिसे हर पतिपत्नी को जानना चाहिए. अच्छा स्वास्थ्य व स्वस्थ जीवनशैली का संतुलन बना कर जिंदगी गुजारनी चाहिए. गलत जीवनशैली का सैक्स लाइफ पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. देर रात तक पार्टियां, धूम्रपान व शराब का सेवन नकारात्मक जीवनशैली को जन्म देता है. इस से शुक्राणुओं की संख्या व गतिशीलता में कमी आ जाती है. इसी तरह गुस्सा, काम का अनावश्यक बो?ा, उच्च रक्तचाप आदि स्वस्थ सैक्स से लोगों को दूर ले जाते हैं. तनावरहित सैक्स दवा का काम करता है.

रीता सिन्हा, गाजियाबाद (उ.प्र.)

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बच्चों के प्रति मातापिता की जिम्मेदारी

जुलाई (प्रथम) अंक में लेख ‘बच्चों की परवरिश : न बरतें लापरवाही’ पढ़ा. इस में कोई दोराय नहीं कि मांबाप बड़े अरमानों से औलाद को पालते हैं. उन के भविष्य के सपने देखते हैं और उन्हीं के लिए मेहनत कर पैसा कमाते हैं. बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सब से पहले मातापिता की ही बनती है. बात अमीरी और गरीबी की नहीं है बल्कि बच्चों की जिंदगी की है. माना पैसा एक बड़ी कमी है पर एहतियात बरतने में तो कुछ खर्च नहीं होता.

बच्चों को दैनिक जीवन में आने वाले छोटेबड़े खतरों से अवगत कराएं ताकि वे सचेत रहें. सुरक्षा से देर भली, यह बात उन के जेहन में रहनी चाहिए क्योंकि आज बच्चों में उतावलापन, गुस्सा, आगे बढ़ने की होड़ कुछ ज्यादा ही है. बच्चों के जीवन में मातापिता की अहम भूमिका होती है. उन के सही दिशानिर्देश उन्हें जीवन में सही राह दिखाते हैं. अत: बच्चों की उचित परवरिश उन का संपूर्ण व्यक्तित्व निखार देती है.

मीना टंडन, कृष्णा नगर (न.दि.)

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हिंसा समस्या का समाधान नहीं

जून (द्वितीय) अंक में ‘लोकतंत्र की पोल खोलता लालतंत्र’ लेख पढ़ा. लेख में आदिवासियों की समस्याएं उजागर की गई हैं. रेखांकित करने की कोशिश की गई है कि सालों से शोषितपीडि़त आदिवासी ही आज नक्सली के रूप में हैं. ऐसा लग रहा है कि लेख नक्सलियों के समर्थन में लिखा गया है. आदिवासी दशकों से शोषित किए जा रहे हैं. आजादी के बाद उन के विकास के नाम पर अरबों रुपए खर्च किए गए लेकिन उन के इलाकों में आज भी विकास कहीं नहीं दिखता. सारी रकम नेताओं और अफसरों की तिजोरी में चली गई. वहीं, यह भी सही है कि विधानमंडलों और संसद में उन का प्रतिनिधित्व बहुत कम है.

इस सब के बावजूद आदिवासी हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता. आदिवासी इसलिए कह रहा हूं कि नक्सली कहीं से आयातित नहीं हैं. इन्हीं आदिवासियों के दबंग तबके ने बंदूकें उठा ली हैं. जरा सोचिए, इन नक्सलियों ने अब तक हजारों बेगुनाहों की हत्या कर के कितनों को यतीम कर दिया. जबकि ये बेचारे दूरदूर तक इन के शोषण के जिम्मेदार नहीं थे. क्या अब भी नक्सलियों और आतंकवादियों में कोई फर्क बचा है? आतंकवादी भी मौत का नंगा नाच करते हैं और ये भी मौत का तांडव करते हैं. दोनों का एक ही मकसद है आतंक फैलाना.

नक्सली अब आदिवासियों के हितों की अनदेखी कर रहे हैं. बंदूक के बल पर वे हर साल 600 करोड़ रुपए की लेवी लेते हैं. लेकिन इस भारीभरकम रकम से वे आदिवासियों के जीवन सुधार के लिए शायद ही कोई काम करते हों. यह अति गरीब तबका आज भी दो जून की रोटी का मुहताज है. कुछ जगहों पर मैं ने देखा है कि आदिवासी महुआ और रोटी खा कर जीते हैं. लेकिन फिर भी हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं बन सकती. इसलिए आदिवासियों के भले के लिए ईमानदारी से प्रयास किए जाने चाहिए.           

शाहिद नकवी, इलाहाबाद (उ.प्र.) 

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