अदालतें और सरकार लिव इन पार्टनरों को शादीशुदा सा स्तर देने में लगी हैं. अगर 2-4 साल साथ रह चुके जोडे़ में से औरत अदालत का दरवाजा खटखटाती है कि उसे गुजारा भत्ता दिया जाए तो अदालतें विवाह न होने पर भी औरत को गुजारे के लिए पैसे देने को पुरुष को मजबूर करने लगी हैं. यह दोतरफा हथियार है. अच्छा है कि औरत को कोई पुरुष कई साल तक इस्तेमाल करने के बाद धक्के दे कर घर से यों ही निकाल नहीं सकता. पुरुष को अपने काम के अंजाम के प्रति सतर्क रहना होगा. लिव इन पार्टनर के साथ रहने का खमियाजा भुगतने का डर उसे बहुत से समझौते करने को मजबूर करेगा. वहीं, यह औरतों के लिए भी घातक है. बहुत से सक्षम पुरुष औरतों को घर में पनाह दे देते हैं. उन्हें बिना विवाह की औपचारिकताओं और बंधनों के कोई सहयोगी मिल जाता है. लाखों अकेली रहती अविवाहिताओं, परित्यक्ताओं, तलाकशुदाओं और विधवाओं के लिए यह वरदान है कि कोई साथी उन्हें मिल रहा है जो लगभग बराबरी का सा दरजा दे रहा है. लेकिन पुरुष अब औरतों को पनाह देने में सावधानी बरतेंगे.

अकेलापन और आर्थिक तंगी कितना परेशान करती है, यह भुक्तभोगी महिलाएं ही जान सकती हैं. अकेली औरत को धन मिलना कठिन होता है और उन्हें राक्षसरूपी पुरुषों की लोलुप नजरों से बचना भी कठिन होता है. बच्चों वाली अकेली औरतें भी, बच्चों के बड़े हो जाने के बाद, अपने अकेलेपन से भयभीत हो जाती हैं. एक पुरुष जो कानूनन चाहे पति न हो, किसी पत्नी का पति हो, अगर साथ रहने लगे तो जीवन के ठूंठ में 2-4 हरे पत्ते झलकने लगते हैं. पर अगर अदालतों और सरकार ने उन पुरुषों पर जबरन कुछ जिम्मेदारियां लादीं तो यह प्यार का और सहज समझौते का संबंध एक बंधन बन जाएगा और शुरू के दिनों में ही छोटा सा विवाद भी अलग रहने को मजबूर कर सकता है. एक नया साथी ढूंढ़ना और उस का मनमाफिक होना आसान नहीं होता. अच्छा यही रहेगा कि लिव इन पार्टनर्स पर कोई जबरदस्ती न लादी जाए. ज्यादा से ज्यादा सरकार मैत्री करार के तरह का लिव इन पार्टनर को थर्ड पार्टी यानी बच्चों, मातापिता, भाईबहन, इंश्योरैंस कंपनी, पुलिस, अस्पताल आदि के मामलों में कुछ हक बनाने को दे दे, एक प्रगाढ़ मित्र की तरह के. वरना लिव इन पार्टनर्स को वैसा ही माना जाना चाहिए जैसा 2 रूममेटों को माना जाता है जो एकदूसरे के दुखसुख में साथ देते हैं पर अपना स्वतंत्र जीवन बिताने के हकदार होते हैं.

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