खुद को राजनीति से दूर रख पाना फिल्म इंडस्ट्री के सबसे बड़े शोमेन राजकपूर के लिए उतना ही मुश्किल काम था, जितना आज उनके छोटे बेटे ऋषि कपूर के लिए आसान हो गया है. राजकपूर एक प्रतिबद्ध फ़िल्मकार थे और इतने प्रतिबदद्ध थे कि ‘मेरा नाम जोकर’ बनाने और फ्लाप होने के बाद उनका मकान तक बिकने की नौबत आ गई थी, इसके बाद भी इस जीवट कलाकार ने न तो हिम्मत हारी और ना ही पैसों या लोकप्रियता के लिए राजनीति की तरफ झाँका. हालांकि हिन्दू धर्म में पसरी कुरीतियों को लेकर वे हमेशा हिंदुवादियों के आँख की किरकिरी बने रहे.

‘प्रेम’ रोग’ और ‘राम तेरी गंगा मैली’ जैसी ब्लाक बस्टर फिल्मों के चलने की वजह पर्दे का ग्लेमराइजेशन या अंग प्रदर्शन ही नहीं थे, बल्कि इनमे रूढ़ियों और सड़ी गली परम्पराओं पर जो प्रहार राजकपूर ने किया था, उसे कोई दोहरा नहीं पाया. अब यह भी गुजरे कल की बात हो चली है कि उनके पिता और ऋषि कपूर के दादा पृथ्वीराज राज कपूर को जवाहर लाल नेहरू ने राज्य सभा मे लेते वही सम्मान  दिया था जो मौजूदा सरकार उसके चहेतों को देकर कर रही है.

कपूर खानदान की तीसरी पीढ़ी के छोटे बेटे को आखिर क्यों कांग्रेस और नेहरू गांधी परिवार को कोसते शब्दों के न्यूनतम स्तर तक जाना पड़ा. ‘बाप का माल समझ रखा है क्या’ जैसे शब्द इस्तेमाल अगर ऋषि कपूर ने किए तो साफ है कि उनमे शिष्टा की कमी है और उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं सर उठा रही हैं. आज कल राजनीति में घुसने का इकलौता शार्टकट है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंशा के मुताबिक बोलना, ठीक उसी तरह जैसे कांग्रेस युग में फिल्मकार इन्दिरा, संजय और राजीव गांधी के वक्त मे बोला करते थे. एवज में इन चाटुकार फ़िल्मकारों को सेंसर बोर्ड, आईआईएफटी जैसी संस्थाओं का मुखिया बनाकर उपकृत कर दिया जाता था.

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