संस्कृत पढ़ाने की अनिवार्यता, कम से कम केंद्रीय सरकारी अंगरेजी माध्यम स्कूलों में, को ले कर स्मृति ईरानी अड़ी हुई हैं जबकि इस का जम कर विरोध हो रहा है. सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय को गलत तो नहीं ठहराया है क्योंकि इस प्रकार के निर्णय लेने का हक सरकार ही को है, अदालतों को नहीं पर यह जरूर कहा है कि सत्र के बीच जरमन छुड़वा कर संस्कृत शुरू करना बेकार है.

इस पर शिक्षा मंत्रालय ने कहा है कि संस्कृत पढ़ाई तो जाएगी पर परीक्षा नहीं ली जाएगी. इस का अर्थ क्या है? यही कि हर स्कूल में संस्कृत अध्यापकों की नियुक्ति तो होगी पर छात्रों को इस भाषा का जो थोड़ाबहुत ज्ञान होना चाहिए वह भी न होगा.

यह तो हमारी संस्कृति के बिलकुल अनुकूल है. हमारे शास्त्र यही तो कहते हैं कि पंडितों को हर अच्छेबुरे समय पर बुलाओ, उन से संस्कृत में रटेरटाए मंत्र पढ़वाओ, उन्हें समझने की जुर्रत भी न करो और दानदक्षिणा दे कर विदा कर दो. हमारे धर्मग्रंथों में राजा के कर्तव्यों में बारबार कहा गया है कि वह यज्ञ, हवन आदि कराए. संस्कृत के पाठ पढ़वाए, ऋषिमुनियों की सेवा का प्रबंध करे, उन की सुरक्षा करे और वे किसी काम के हों या न हों, उन्हें भरपूर दान दे.

स्मृति ईरानी यही तो कर रही हैं. बच्चों को संस्कृत का ज्ञान तो दिलाने की इच्छा ही नहीं है क्योंकि इस भाषा का ज्ञान अगर हो गया तो लोग हिंदू धर्मग्रंथ पढ़ने लगेंगे और पढ़ कर जान जाएंगे कि इन में आखिर किस तरह का ज्ञान है. जो लोग हिंदू धर्म की पोल खोलते हैं वे वही हैं जिन्होंने संस्कृत पढ़ी और जाना कि यह भाषा चाहे कितनी शुद्ध व्याकरण में लिखी गई हो, चाहे जैसी लच्छेदार बातें हों, आज के लिए नितांत अनुपयोगी है.

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