जब से देश के हिंदू नेताओं को यह एहसास हुआ है कि हमारी गुलामी, 2000 सालों की गुलामी, का कारण भारी संख्या में वे अछूत और शूद्र हैं जो हिंदू समाज की वर्णव्यवस्था के कारण दूसरे धर्मों में चले गए, उन पर उन की शुद्धीकरण करने का भूत चढ़ा हुआ है. यह जानते हुए भी कि शुद्धि के बाद इन नए बने तथाकथित हिंदुओं का कोई कल्याण न होगा, ये नेता आबादी का संतुलन ठीक करने के नाम पर इस मरे डायनासोर को जिंदा कर के अपने पुरखों के पापों का प्रायश्चित्त करने का यत्न करते रहते हैं.
आगरा में बजरंग दल के साथ जुड़े एक उत्साही नेता की 50 बंगलाभाषी मुसलमानों को हिंदू बनाने की चेष्टा इस बार उलटी पड़ गई क्योंकि इस से विपक्ष को नरेंद्र मोदी की सरकार को घेरने का मौका मिल गया और जनता में यह संदेश पहुंचने लगा कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार का एजेंडा न विकास है, न गुड गवर्नैंस है, न भ्रष्टाचारमुक्त भारत है, न स्वच्छ भारत है, और न ही भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहन देना है. भाजपा का मकसद तो हिंदू श्रेष्ठता को सिद्ध करना है. अपने को जगद्गुरु मनवाना है, हिंदूग्रंथों को थोपना है.
भारत में बसे मुसलमान और ईसाई कहीं बाहर से नहीं अपितु उन में से अधिकांश यहीं धर्मपरिवर्तन कर बने. इस में कोई नायाब बात नहीं है क्योंकि विश्वभर में सदियों से ऐसा होता रहा है. पूरा यूरोप, अमेरिकी महाद्वीप उस धर्म को मानता है जो एशिया के छोटे शहर जेरुशलम में शुरू हुआ. अफ्रीका व एशिया का बड़ा हिस्सा मक्का में शुरू हुए धर्म को मानता है. एशिया में भारत में इसलाम के अलावा बौद्ध धर्म को माना जाता है जो भारत में शुरू हुआ.
ये सब धर्म धर्मपरिवर्तन के कारण फैले. यह अच्छी बात थी या बुरी, इसे छोड़ दें तो भी ऐतिहासिक तथ्य हैं, अब चीन कहना शुरू कर दे कि वह बौद्ध धर्म वालों की शुद्धि कर के उन्हें कंफ्यूशियस जीवन शैली में ढालना चाहता है या जापान तंबू लगा कर बौद्धों को श्ंिजे पढ़ाना शुरू कर दे या यूरोप में बाजेगाजे के साथ ईसापूर्व के पेगान धर्म को वापस लाने की शुद्धि करनी शुरू कर दी जाए तो इसे पागलपन कहा जाएगा, निरर्थक और निरुद्देश्य.
लोगों ने जबरन नया धर्म अपनाया, अपने धर्म से ऊब कर या दूसरे धर्म से प्रभावित हो कर, यह बात अब बेकार है. शुद्धीकरण कर के अपनी गिनती नहीं बढ़ाई जा सकती. अपने धर्म में नए भक्त ला कर, चाहे वापस लाना हो, न अपने धर्म का उद्धार होगा न उन का जो आएंगे. 2-4 दिन उन के लिए बाजे बजेंगे, फिर उन्हें धर्मघुसपैठिए मान लिया जाएगा.
जो हिंदू हैं उन्हें ही ये लोग एक पंक्ति या मूर्ति तक सीमित नहीं रख सकते. कभी संतोषी माता चढ़ जाती है, कभी वैष्णो देवी, कभी बालाजी ऊपर हो जाते हैं तो कभी साईं बाबा. जब हिंदुओं की कट्टर धार्मिक किस्म की निष्ठा को एक जगह टिका कर नहीं रखा जा सका तो फिर इस धर्म में नए लोगों को लाने की आखिर जरूरत क्या है?
इस तरह की नाटकीयता से सरकार का नाम बदनाम होगा क्योंकि भाजपा से बेहतर शासन की उम्मीद की जा रही थी पर शासन की जगह सरकार कभी संस्कृत को ले कर उलझ रही है, कभी धर्मशुद्धि को ले कर तो कभी रामजादों को ले कर. इस सरकार को वही सीढि़यां गिराने की कोशिश में दिख रही हैं जिन पर चढ़ कर उसे सत्ता मिली है.