पटेलों, जाटों, गुर्जरों के बाद मराठों ने भी अतिरिक्त आरक्षण की मांग करनी शुरू कर दी है. दलितों व आदिवासियों के साथ पिछड़ों को मिले आरक्षण से बेचैन वे जातियां, जो पहले हिंदू वर्णव्यवस्था में शूद्र थीं पर मुगलों व अंगरेजों के आने के बाद जमीनें मिलने, नौकरियां पाने, छोटे व्यवसाय करने और मेहनत के बलबूते पर अपने को सुधार सकी थीं और कई जगह उन के राजा भी बन गए थे, अब आरक्षण का लाभ उठाने वाली जातियों से बेहद चिढ़ रही हैं.

महाराष्ट्र में मराठों के मौन प्रदर्शनों में भारी भीड़ जुटने लगी है. मराठे वैसे खासे संपन्न लोग हैं पर अब वे भी अतिरिक्त आरक्षण की मांग करने लगे हैं.

सरकारें शांति खरीदने के लिए कानून बना कर 10-15 प्रतिशत कोटा तो निर्धारित कर रही हैं पर सर्वोच्च न्यायालय ने 50 प्रतिशत की जो सीमारेखा बना रखी है, उसे वह बदलने को तैयार नहीं है. इसलिए अतिरिक्त आरक्षण के कानून असंवैधानिक घोषित हो रहे हैं और समस्या हल होने के बजाय और उग्र हो रही है.

कठिनाई यह है कि बीच की ये जातियां आज भी जानती हैं कि वे ब्राह्मणों, क्षत्रियों व वैश्यों से कमतर हैं चाहे इन पिछड़ों के पास पैसा हो, पावर हो, अच्छी नौकरी हो, नाम हो. ऊंचा सवर्ण समाज आज भी अपने पुश्तैनी अहं को नहीं छोड़ पा रहा है और यह बीच वाला वर्ग आज भी अपने नीचे होने की हीनभावना से नहीं निकल पा रहा है.

बहुत जगह तो इस कौंप्लैक्स का बदला दलितों व मुसलिमों से झगड़ा कर के लिया जा रहा है. एक तरह से वे सदियों की बनी वर्णव्यवस्था से नाराज हैं पर उसी पर सीमेंटकंक्रीट डाल कर उसे पक्का करने के साथ वे सोच रहे हैं कि अदृश्य मोटी दीवारें स्वत: छूमंतर हो जाएंगी. यह उन का भ्रम ही है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...