नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन का कहना है कि संविधान की भावना व आत्मा के विरुद्ध आज भी देश के दंड विधान में 295ए जैसा प्रावधान होना अनुचित है जिस के नाम पर धर्म को थोपने का अधिकार मिला हुआ है. इस धारा का उपयोग आजकल दूसरे धर्मों के लोगों को एकदूसरे के प्रति कटु बात कहने को रोकने के लिए तो किया ही जाता है, अपने धर्म में सुधार की बात न करने के लिए भी कर लिया जाता है. यह प्रावधान किसी भी थाने में शिकायत करने से हरकत में आ जाता है और हमारी अधसड़ी पुलिस समाज सुधार के वक्तव्यों व लेखन की जांच करने के बहाने वक्ता या लेखक को बंद कर के उस से चोरडकैतों व हत्यारों की तरह की पूछताछ करने लगती है.

ज्यादा अफसोस की बात यह है कि हिंदू व मुसलिम दोनों ही धर्मों के कट्टरवादी दुकानदार अपने धर्मों की खामियों को छिपाने के लिए इस प्रावधान का जम कर उपयोग करते हैं और जब भी दुरुपयोग होता है, आमतौर पर राजनीतिबाज मुंह फेर लेते हैं ताकि वोटबैंक वाले इस मामले में दखल न देना पड़े. वक्ता या लेखक को खुद पुलिस और अदालतों से निबटना होता है. यदि न्यायाधीश उदार हुए तो बात दूसरी, लेकिन यहां तो सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे न्यायाधीश बैठे हैं जो 295ए को ईशनिंदा वाला कानून मानते हैं. हाल में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दिए गए कई बयानों पर दिल्ली के पूर्व पुलिस आयुक्त बी एस बस्सी ने खुलेआम कह दिया कि ये बयान व नारे ईशनिंदक हैं और अपने ही धर्म वालों की भावनाओं को आहत करते हैं. जबकि यह कानून ज्यादा से ज्यादा विधर्मियों के लिए है.

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