नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार सरकार ने राज्य में शराब की बिक्री पर पाबंदी लगा दी है. इस से सरकार को चाहे 4 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हो पर जनता को जो लाभ होगा वह इस नुकसान से कहीं अधिक होगा. शराब कोई खाना नहीं है कि उस के बिना कोई जी नहीं सकता. शराब पीना प्राकृतिक नहीं है, इसे पीना सिखाया जाता है और उस सिखाने के पीछे शराब कंपनियां और देशी शराब भट्ठों के मालिक दोनों खूब पैसा खर्च करते हैं. शराब का नुकसान गलीगली, घरघर में देखा जा सकता है. जिसे एक बार शराब की लत पड़ जाए वह किसी भी सूरत में उसे नहीं छोड़ता, घरबार चाहे बिक जाए, सोशल ड्रिंकिंग से शुरू हो कर शराब कब लत बन जाए, यह कहा नहीं जा सकता. जो सोशल ड्रिंकिंग यह सोच कर करते हैं कि एकदो पैग से क्या होगा, वे तनाव में कितनी ही बार बोतलों पर बोतलें चढ़ा जाते हैं.

घर के सदस्य के शराब पीने का खमियाजा औरतों और बच्चों दोनों को भुगतना पड़ता है. उन्हें न केवल धुत्त शराबी की देखभाल करनी होती है, उसे संभालना होता है, बल्कि उस की गालियां भी सुननी पड़ती हैं, उस ने जिन से झगड़ा किया उन से माफी भी मांगनी पड़ती है. शराब पी कर गाड़ी, ट्रक, बस चलाने वाले खुद को तो मारते ही हैं, दूसरों को भी मार डालते हैं. शराब का एक भी ऐसा गुण नहीं है कि सरकार या समाज इसे किसी तरह की मान्यता दे. अफसोस यह है कि सदियों से शराब सरकारी खजाने को भरने का काम कर रही है इसलिए इस को हर तरह से बढ़ावा दिया जा रहा है. शराब से नेताओं और अफसरों की जेबें भरती हैं और वे नीतीश को अपनी जेब पर डाका डालने देंगे, यह असंभव है. अंगरेजी के अखबार जल्दी ही रोना शुरू कर देंगे कि बिहार में शराबबंदी से क्या नुकसान हुए. शराब समर्थक टैलीविजन स्क्रीनों पर उतर आएंगे कि कौन क्या पिएगा, इस का फैसला उसी को करने दें.

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