सुबह तारा जब विवेक  के आगोश से खुद को छुड़ा कर बाहर निकली तो विवेक के प्रति उस के मन में बसी सारी भ्रांतियां भी इस प्यार की गरमाहट में पिघल चुकी थीं और वह एक नई सुबह की किरणों की तरह नए जीवन के सपने बुनने लगी. वह यही सोच रही थी कि आखिर कैसे वह एक अनजाने से डर के कारण शादी के बाद भी पिछले 6 माह तक प्यार के इन सुनहरे लमहों को नहीं जी पाई थी क्योंकि सुहागरात के दिन ही उस ने अपने पति विवेक को एक ऐसी शर्त में बांध दिया था और उस की परीक्षा लेती रही. इस अनोखी शर्त में बंध कर दोनों इतने दिनों तक एकदूसरे का प्यार पाने के लिए तड़पते रहे. 
सुबह की बयार भी तारा के जेहन में उमड़ रही लहरों को जैसे नई गति प्रदान कर रही थी और तारा की नैसर्गिक खूबसूरती में आज अजीब सी रौनक बढ़ आई थी जो पिछले 6 महीने में पहली बार ही दिखाई दी.
इन सुखद अनुभूतियों के साथ तारा उन कड़वी यादों के अतीत में खो गई जिन के कारण वह इतने दिनों तक एक घुटनभरी जिंदगी जीने को बाध्य हो गई थी. 
2 बहनों और 1 भाई में सब से बड़ी तारा मम्मीपापा की सब से दुलारी होने के कारण बचपन से ही उसे जो भाता वही करती. अपनी मस्तीभरी जिंदगी में कब उस ने जवानी की दहलीज पर कदम रख दिया, उसे बिलकुल पता ही नहीं चला.
मजे से कट रही थी उस की जिंदगी, आंखों का तारा जो थी वह अपने मम्मीपापा की. उस के मम्मीपापा उसे पलकों पर बिठा कर रखते, वह भी सब पर जान छिड़कती और उन के प्रति अपना हर फर्ज निभाती.
हंसतेखेलते जब उस ने स्नातक की डिगरी अच्छे नंबरों से हासिल कर ली तो एक दिन मम्मी ने पूछा, ‘आगे क्या करने का इरादा है, बेटी?’
‘कुछ नहीं. बस, यों ही मस्ती करूंगी.’
‘मस्ती की बच्ची, मैं तो सोच रही हूं कि तेरी शादी कर दूं.’
‘नहीं मम्मी, अभी नहीं, क्यों अभी से ही मुझे अपने से दूर करने पर तुली हो?’ रोंआसी सी सूरत बना कर वह मम्मी की गोद में समा गई.
‘तो फिर कर लो कोई नौकरी, नहीं तो पापा तुम्हारी शादी कर देंगे,’ उस के बालों को सहलाते हुए मम्मी बोलीं.
‘नौ...क...री...ओके, डन. मम्मी, मैं आज से ही नौकरी की तैयारी करनी शुरू कर देती हूं. डिगरी में अच्छे अंक तो हैं ही, थोड़ी तैयारी करने पर नौकरी मिल ही जाएगी,’ उस ने चहक कर कहा.
‘तो फिर ठीक है. पर अगर 6 महीने में नौकरी नहीं मिली तो मैं तुम्हारे पापा को मना नहीं कर पाऊंगी,’ मम्मी ने उस के गालों को थपथपाते हुए कहा और अपने कमरे में चली गईं.
मम्मी के जाते ही तारा सोच में पड़ गई कि अब इस समस्या से कैसे निबटे. अखबार में तो कई रिक्तियां प्रकाशित होती हैं. क्यों न किसी अच्छी नौकरी के लिए आवेदन कर दिया जाए, यही सोच कर उस ने अखबार उठाया तो उस की नजर रिक्तियां कौलम में एक विज्ञापन पर पड़ी, ‘जरूरत है राज्य सरकार में परियोजना सहायक की. आवेदक को स्नातक होना अनिवार्य है और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होना चाहिए,’ यह देखते ही उस का चेहरा खिल उठा क्योंकि उस ने स्नातक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी, इसलिए उस ने फौरन आवेदन कर दिया.
कुछ ही दिनों में साक्षात्कार का बुलावा आया और वह पापा के साथ साक्षात्कार देने पहुंच गई. साक्षात्कार अच्छा हुआ और उसे उस के लखनऊ से दूर कानपुर में नौकरी की पेशकश की गई तो उस ने फौरन स्वीकार कर लिया कि चलो कम से कम 1-2 साल शादी के झंझट से मुक्ति मिली. थोड़े ही दिनों में उसे नियुक्तिपत्र मिल गया और तमाम औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उस ने नौकरी जौइन कर ली.
अब शुरू हुआ एक ऐसा सिलसिला जिस में सोमवार से शनिवार तक तो नौकरी में निकल जाते, फिर आती एक दिन की छुट्टी. इसलिए शनिवार आते ही तारा सारा काम जल्दीजल्दी निबटा कर दोपहर को ट्रेन पकड़ कर शाम तक लखनऊ हाजिर हो जाती, फिर सोमवार की सुबह इंटरसिटी से कानपुर पहुंच कर सीधे औफिस. यही अब तारा की साप्ताहिक दिनचर्या बन गई थी.
तारा अब अपने परिवार के साथ समय बिताना चाहती, पर व्यस्तता के कारण वह ऐसा कर नहीं पाती थी. इस तरह उस के जीवन में एक अजीब सा एकाकीपन या यों कहें कि एक खालीपन सा आ गया था जिसे वह चाह कर भी नहीं भर पा रही थी.
दिखने में सुंदर व स्मार्ट होने के कारण औफिस में वह सब की नजरों में चढ़ी रहती. एक दिन उस के एक वरिष्ठ सहयोगी रमेशजी ने उस से कहा, ‘बेटी, औफिस वाले तुम्हारे बारे में तरहतरह की गौसिप करते हैं, अकेली लड़की के बारे में अकसर ऐसी बातें तो होती ही रहती हैं. यदि तुम्हारी शादी हुई होती तो शायद लोग तुम्हारे बारे में ऐसी बातें न करते. तुम्हारी उम्र भी शादी की हो चुकी है. यदि हो सके तो जल्दी से शादी कर के सब का मुंह बंद कर दो.’
रमेशजी की बात सुन कर वह दंग रह  गई कि सामने मीठीमीठी बातें करने  वाले उस के सहयोगी उस के बारे में कैसे गंदे खयाल रखते हैं, पर वह नहीं चाहती थी कि अभी शादी के बंधन में बंधे क्योंकि इसी से बचने के लिए ही तो वह इतनी कष्टपूर्ण जिंदगी जी रही है. पर आखिर होनी को कौन टाल सकता है. समय ने करवट बदली और घर में भी शादी की चर्चा ने जोर पकड़ लिया. आखिरकार पापा ने लखनऊ में ही एक सरकारी अधिकारी विवेक से उस की शादी तय कर दी और उस से कहा कि वह चाहे तो उस से मिल कर अपनी पसंद बता दे. बुरी फंसी बेचारी, आखिरकार उसे हां करनी पड़ी और शादी की तारीख तय हो गई. मिलनेमिलाने के सिलसिले के बाद जब शादी का दिन नजदीक आया तो 
1 माह की छुट््टी ले कर वह अपने घर आ गई और शादी की तैयारियों में लग गई. घर में खुशी का माहौल था, घर की पहली शादी जो थी. भाई रोहन और बहन बबली तो हमेशा भागतेदौड़ते, व्यस्त नजर आते थे. घर में जीजाजी आने वाले थे, इसलिए दोनों बहुत खुश थे.
एक दिन तारा के मोबाइल पर   विवेक का फोन आया. फोन उठाते ही विवेक की आवाज आई, ‘जल्दी से तैयार हो जाओ, तारा, तुम्हारे लिए साडि़यां और गहने खरीदने बाजार चलना है.’ 
तारा को एक झटका सा लगा क्योंकि एक तो विवेक ने शादी तय होने के बाद से एक भी बार फोन नहीं किया और आज पहली बार फोन भी किया, वह भी ऐसे जैसे वह उस की होने वाली पत्नी नहीं बल्कि आया हो और कपड़े व गहने खरीद कर वह उस पर कोई उपकार कर रहा है. उसे गुस्सा तो बहुत आया परंतु उस ने कुछ कहने के बजाय बस इतना ही कहा, ‘ठीक है, मैं आधे घंटे में तैयार हो जाती हूं.’
‘ठीक है, तुम तैयार हो कर सहारागंज पहुंचो, मैं 1 घंटे में तुम्हें वहीं मिलूंगा,’ यह कह कर विवेक ने फोन काट दिया.
जिस रूखेपन से विवेक ने फोन पर उस से बात की थी, उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगा पर वह कुछ कहने के बजाय जल्दी से तैयार हुई और आटो पकड़ कर सहारागंज पहुंच गई. विवेक उसे वहीं मिल गया. अकेले में पहली मुलाकात, न कोई औपचारिकता और न ही कोई प्यारभरी बात. विवेक ने यह भी नहीं कहा कि चलो पिज्जाहट में चल कर पिज्जा खाते हैं और थोड़ा घूमते हैं. बस, उस ने कहा कि चलो, और दोनों हजरतगंज में खरीदारी करने निकल गए.
अपने दोस्तों से शादी के पूर्व मुलाकातों के कई रोमांटिक किस्से तारा ने सुन रखे थे पर उसे विवेक के इस व्यवहार से झटका लगा, उसे विवेक से ऐसी उम्मीद बिलकुल भी नहीं थी. खरीदारी के दौरान भी विवेक तारा पर अपनी पसंद लादता रहा और उस ने वही खरीदा जो उसे पसंद था. तारा चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाई. बस, वह विवेक के साथ घूमती रही. खरीदारी के बाद वह बेरुखे मन से उसे आटो पर बिठा कर चला गया. न कोई औपचारिकता, न कोई प्यार की बात.
तारा को लगा कि विवेक सचमुच रोमांटिक व्यक्ति नहीं है और उसे उस की पसंदनापसंद का बिलकुल भी खयाल नहीं है. यह सोचते हुए उस के मन में विवेक के प्रति कड़वाहट भर गई. उस ने सोचा कि जब विवेक ऐसा है तो उस के परिवार वाले कैसे होंगे और वह उन के साथ कैसे सामंजस्य बिठा पाएगी. पर अब वह कर भी क्या सकती थी, शादी बिलकुल करीब थी और वह घर में कोई हंगामा खड़ा नहीं करना चाहती थी.
शादी धूमधाम से संपन्न हुई. मम्मीपापा ने बड़े अरमान से अपनी सारी जमापूंजी इस शादी में लगा दी ताकि वर पक्ष को कोई शिकायत न हो. विदाई के वक्त सारा परिवार गाड़ी के आंखों से ओझल होने तक खूब रोया और वह भरे मन से ससुराल पहुंच गई. उस की सोच के विपरीत उस के ससुराल वालों ने पलकें बिछा कर उस का स्वागत किया और फिर शुरू हुई शादी के बाद की रस्मअदायगी.
शादी के पूर्व विवेक से मुलाकात ऐसी कड़वी यादें छोड़ गई थी कि जिस से पार पाना तारा के लिए मुश्किल था. वह दिनभर यही सोचती रही कि पहली मुलाकात से जो प्यार की मिठास घुलनी चाहिए उस ने कड़वाहट का रूप ले लिया और करीब आने के बजाय दिलों की दूरियां बढ़ गई थीं. बारबार उस के दिल में यही खयाल आ रहा था कि जो व्यक्ति उस के आत्मसम्मान का खयाल नहीं रख सकता, उस के साथ वह अपनी पूरी जिंदगी कैसे बिता पाएगी.
इसी बीच, सारी रस्मअदायगी पूरी होतेहोते काफी रात हो गई और सभी रिश्तेदार चले गए. अब विवेक की भाभी ने तारा को छेड़ते हुए सुहागरात के लिए उसे उस के कमरे में पहुंचा दिया और अपने कमरे में चली गईं. अंदर ही अंदर बेचैन तारा इस उधेड़बुन में थी कि ‘आखिर वह ऐसे शख्स, जिस के मन में उस के प्रति जरा सा भी प्यार नहीं है, कैसे उसे अपना सर्वस्व सौंप दे. हिंदू परंपरा में शादी के बाद उस के शरीर पर तो अब विवेक का हक था और वह उसे कैसे रोक सकती है?’ यह सोचते ही उस का चेहरा पीला पड़ने लगा.

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