कुरसी पर खाली बैठाबैठा बस कई दिनों से कोई अदद कहानी लिखने की सोच रहा था, लेकिन किसी कहानी का कोई सिरा पकड़ में ही नहीं आ रहा था. कभी एक विषय ध्यान में आता, फिर दूसरातीसरा, चौथा. लेकिन अंजाम तक कोई नहीं पहुंच रहा था. यह लिखने की बीमारी भी ऐसी है कि बिना लिखे रहा भी तो नहीं जाता.

तभी मोबाइल की घंटी बजी. स्क्रीन पर देखा तो अज्ञात नंबर...

‘‘हैलो...’’

‘‘जी हैलो...’’

दूसरी ओर से आई आवाज किसी औरत की थी. मैं ने पूछा,‘‘कौन मुहतरमा बोल रही हैं?’’

‘‘जी, मैं वृंदा, किरतपुर से. क्या मोहनजी से बात हो सकती है?’’

‘‘जी, बताइए. मोहन ही बोल रहा हूं.’’

‘‘जी, बात यह थी कि मैं भी कहानीकविताएं लिखती हूं. आप के दोस्त प्रीतम ने आप का नंबर दिया था. आप का मार्गदर्शन चाहती हूं.’’

‘‘क्या आप नवोदित लेखिका हैं?’’

‘‘हां जी, लेकिन लिखने की बहुत शौकीन हूं.’’

‘‘वृंदाजी, आप ऐसा करें कि अभी आप स्थानीय पत्रपत्रिकाओं में अपनी रचनाएं प्रकाशन के लिए भेजें. जब आत्मविश्वास बढ़ जाए तो राष्ट्रीय स्तर की पत्रपत्रिकाओं में अपनी रचनाएं भेजें. और हां, अच्छा साहित्य खूब पढ़ें, ’’ यह कहते हुए वृंदा को मैं ने कुछ पत्रपत्रिकाओं के नामपते बता दिए. पत्रपत्रिकाओं में लिखने का तरीका भी बता दिया.

इस औपचारिक वार्तालाप के बाद मैं ने वृंदा का नंबर उस के नाम से सेव कर लिया. यह हमारा वाट्सऐप नंबर भी था. ‘माई स्टेटस’ पर उस की पोस्ट आने लगी. यदाकदा मैं भी उस की पोस्ट देख और पढ़ लेता. इसी से पता चला कि वृंदा 2 बच्चों की मां है और किसी सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापिका है. वृंदा की पोस्ट में सुंदर साहित्यिक कविताएं होतीं. मैं उन्हें पढ़ कर काफी प्रभावित होता. एक नवोदित रचनाकार इतनी सुंदर और ऐसी साहित्यिक रचनाएं लिखे तो गर्व होना स्वाभाविक था.

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