वह दिन अशोक के लिए आफत बन के सामने आया जब देश के महामहिम ने अपने तुगलकी फैंसले से पुरे देश में तालाबंदी की घोषणा कर दी. भला यह भी कोई बात हुई कि लाखों मजदूरों को महामहिम ने एक ही पल में अनाथ कर दिया. वैसे तो गरीबों का कोई माईबाप नहीं होता लेकिन ऐसे वक्त में उम्मीद तो महामहिम से ही लगाई जा सकती थी. खैर यह बातें अब बैमानी लगती है.
अशोक 35 वर्षीय युवक था जो यूपी के आजमगढ़ जिले से काम की तलाश में दिल्ली आया था. सुना है इस शहर में सब को कुछ न कुछ काम मिल ही जाता है. लेकिन वह सच्चाई जानता था कि यह शहर जितना अमीरों की रंगीनियत के लिए मशहूर है उतना ही मजदूरों की खाल खींच लेने वाले काम को ले कर. और फिर अशोक पांचवी से ऊपर पढ़ा भी तो नहीं था जो उसे बाबू का काम मिल जाता.
अपने लड़कपन में उस ने बड़ेबड़े किसानों की जमीन में कटाई, रुपाई, सिंचाई खूब की लेकिन इस मॉडर्न समाज ने उसे शहर की तरफ खींच ही लिया. सुना है छटांग भर की थोड़ी बहुत जमीन भी बाबा के इलाज में गिरवी रख दिया था. दिल्ली आने से पहले अशोक को लगा था की दिन रात मेहनत कर अपनी जमीन छुड़ा लेगा लेकिन अब तो बस सूद चुका ले वही बहुत है.
जिस जगह अशोक काम कर रहा था वह दिल्ली से थोड़ी दूर सटे नॉएडा में कंस्ट्रक्शन साईट थी. जहां अमीरों के लिए बड़े बड़े 4 बीएचके वाले अपार्टमेंट्स बनाए जा रहे थे. वहीँ उसी साईट से थोड़ी दूर ठेकेदार ने कंस्ट्रक्शन में काम करने वाले मजदूरों के लिए टीनटप्पर के चलते फिरते कामचलाऊ कमरे बनाए हुए थे. यह कमरे सर्दियों में सर्द हो जाते और गर्मियों में गर्म भट्टी. गर्म रात तो आसमान के नीचे जैंसे तैंसे कट जाया करती लेकिन ठिठुरती रातों में मेहरारू के गर्म बदन की याद सताती जिसे बहुत समय से अशोक ने छुआ नहीं था.