दुकान का काम समाप्त कर के रमेश तेजी से घर की ओर चला जा रहा था. आसमान में कालेकाले बादल छाए हुए थे अत: वर्षा आने से पहले ही वह घर पहुंच जाना चाहता था. तभी अचानक तेज वर्षा होने लगी. रमेश वर्र्षा से बचने के लिए फुटपाथ के पास बनी अपने मित्र राकेश की दुकान की ओर दौड़ा. दुकान के बाहर लगी परछत्ती के नीचे एक बूढे़ सज्जन पहले से ही खड़े थे. परछत्ती बहुत छोटी थी. वर्षा के पानी से उन का केवल सिर ही बच पा रहा था. रमेश का ध्यान उस बूढे़ आदमी की ओर नहीं गया. वह सीधा दौड़ता हुआ आया और राकेश के  पास जा कर दुकान में बैठ गया.

थोड़ी देर में वर्षा और तेज हो गई. रमेश का ध्यान उन बूढ़े सज्जन की ओर गया. वह तुरंत उठा और उन के पास आ कर विनम्रता से बोला, ‘‘यहां तो आप पूरी तरह भीग जाएंगे. कृपया भीतर आ कर बैठिए.’’ बूढे़ आदमी को ठंड भी लग रही थी, पर उन्होंने भीतर चलने से मना किया, लेकिन रमेश के बारबार आग्रह करने पर वे भीतर आ गए और अंदर आ कर एक कुरसी पर बैठ गए.

रमेश ने सामान्य शिष्टाचार के नाते उन्हें चाय भी पिला दी तथा उन की भीगी कमीज को सुखाने का भी प्रयास किया.

बूढ़े सज्जन ने रमेश से पूछा, ‘‘क्यों भाई, क्या आप मुझे जानते हो?’’

रमेश ने जवाब दिया, ‘‘जी नहीं, मैं ने तो आप को कभी देखा भी नहीं. वैसे मैं एक दुकान पर काम करता हूं. वहां भी मैं ने कभी आप को नहीं देखा.’’ धीरेधीरे बातचीत का सिलसिला चल निकला. बातोंबातों में बूढ़े ने रमेश की दुकान का पता, उस का वेतन, घर के हालात आदि का पता किया. लेकिन उस ने अपना परिचय नहीं दिया. केवल इतना ही कहा, ‘‘टहलने निकला था, बरसात होने लगी. यहां पानी से बचने के लिए रुक गया.’’ धीरेधीरे पानी कम हुआ. रमेश और बूढ़े सज्जन दोनों निकल कर सड़क पर आ गए. दोनों कुछ दूर तक एकसाथ चले. मानो दोनों को अलगअलग दिशाओं में जाना था. रमेश ने कहा, ‘‘मैं आप को घर तक छोड़ देता हूं. रात का समय है. देर भी काफी हो गई है.’’

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