अचानक मुझे होश हुआ, तो जीप की तरफ देखा. वह एक तरफ पलटी पड़ी थी. वहीं स्टेयरिंग के सहारे अरुण बेहोश पड़ा था. मुंह और माथे से खून बह रहा था. उसे तुरंत सीधा किया और चोट की जगह को कस कर अपनी हथेली से दबा दी.
शोर सुन कर कुछ स्थानीय लोग जमा हो गए थे. सूखी लकड़ियां, फलसब्जी, बांस की कोंपलें आदि लाने, खेती का काम और शिकार करने स्थानीय लोग प्रतिदिन जंगल का रुख करते ही हैं. रास्ते में उन्होंने जो जीप को दुर्घटनाग्रस्त होते देखा, तो अपनी बास्केट-थैले और भाला-दाव एवं दूसरे सामान आदि फेंकफांक कर इधर ही दौड़े चले आए थे. अपनी स्थानीय आओ भाषा में जाने क्याकुछ कह रहे थे, जो मेरी समझ के बाहर था. इतना अवश्य था कि वे हमारी सहायता करने और अस्पताल पहुंचाने की बात कर रहे थे. मुझे भी चोटें आई थीं और मैं मूर्च्छित सी हो रही थी कि एक नागा युवती ने मुझे सहारा दिया. एक नागा युवक ने अरुण के माथे की चोट पर अपना रंगीन नागा शौल बांध दी.
अचानक मैं अचेत हो गई. फिर तो कुछ याद न रहा. बस, इतना स्मरण भर रहा कि एक बुजुर्ग नागा किसी पौधे की पत्तियां तोड़ लाया था और उसे अपनी हथेलियों पर मसल कर उस की बूंदें अरुण के मुंह में टपका रहा था. एक दूसरी युवती उस के चेहरे पर पानी की छींटे मार रही थी.
आंख खुली तो मैं एकबारगी ही घबरा कर उठ बैठी. अरे, यह मैं कहां और कैसे आ गई. अरुण कहां, किस हालत में है, मन में सैकड़ों सवाल कुलबुलाने लगे थे. विपत्ति के वक्त व्यक्ति ऐसी ही अनेक आशंकाओं से घिर जाता है.
ठीक पहाड़ की चोटी पर बसा कोई गांव था, जहां वे लोग हमें उठा लाए थे. सामने ही सूर्य के तीखे प्रकाश से एक भव्य चर्च का क्रौस चमक रहा था. मैं एक झोंपड़ी में एक चारपाई पर पड़ी थी. मगर अरुण कहां है? गांव के अनेक लोग मुझे घेरे आओ भाषा में जाने क्या बातें कर रहे थे. और जैसी की इधर आदत है, बीचबीच में उन के ठहाके भी गूंज जाते थे. अधिसंख्य बुजुर्ग नागा स्त्री-पुरुष ही थे. उन में से एक नागा बुजुर्ग आगे बढ़ कर टूटीफूटी हिंदी में बोला- “अब कैसा है, बेटी?”
“मेरे पति कहां हैं,” मैं चीखी. अचानक मुझे एहसास हुआ कि शायद ये हिंदी न समझें. सो, इंग्लिश में बोली, “व्हेयर इज माई हसबैंड?”
“हम थोड़ी हिंदी जानता है,” वही बुढ़ा स्नेहसिक्त आवाज में बोला, “तुम्हारा आदमी घर के अंदर है. उसे बहुत चोट लगा. बहुत खून बहा. तुम लोग कहां से आता था. कहां रहता है?”
“हम मोकोकचुंग में रहते हैं. मेरे पति चुचुइमलांग के अपने एक मित्र से मिलने के लिए निकले थे. मगर गाड़ी का ब्रेक खराब हो गया और ऐक्सिडैंट हो गया,” घबराए स्वर में मैं बोली, “अभी वे कहां हैं. मैं उन्हें देखना चाहती हूं.”
बुजुर्ग ने अपनी आओ भाषा में बुढ़िया से कुछ कहा. बुढ़ी महिला मुझ से आओ भाषा में ही कुछ कहते हुए अंदर ले गई. काफी पुरानी और गंदी सी झोंपड़ी थी यह. बांस की चटाई बुन कर इस झोंपड़ी की दीवारें तैयार की गई थीं. ताड़ के पत्तों सरीखे बड़ेबड़े पत्तों से ऊपर छत का छप्पर छाया गया था. फर्श मजबूत लकड़ियों का था. और यह झोंपड़ी जमीन से लगभग हाथभर ऊपर मजबूत लकड़ी के खंभों पर टिकी थी. नागालैंड की ग्रामीण रिहाइश आमतौर पर ऐसी ही होती है.
कहने को यह झोंपड़ी थी मगर थी बहुत बड़ी. बांस की चटाइयों का घेरा दे कर 2 कमरे बने हुए थे. उसी में से एक कमरे में एक चौकी पर अरुण लेटा था. उस का चेहरा एकदम निस्तेज हो गया था. सांस धौंकनी की तरह चल रही थी.
मैं उसे देख कर फूट कर रो पड़ी. हमारे पीछे कुछ और लोग चले आए थे. वे आगे बढ़ आए और मुझे हिंदी, इंग्लिश और आओ भाषा में कुछकुछ कह कर दिलासा देने लगे. बूढ़ी महिला ने फिर आओ भाषा में मुझ से कुछ कहा. छाती पर क्रौस का निशान बनाया और मुझे वापस बाहर ले आई.
“यहां से चुचुइमलांग कितनी दूर है? न हो, तो इन के मित्र हमसेन आओ को बुला दें.” मैं सुबकते हुए बोली, “वे शायद कुछ मदद कर पाएं.”
वे बोले, “तुम चिंता मत करो. चुचुइमलांग यहां से दसेक मील दूर है. तुम्हारे उस परिचित फ्रैंड को भी हम खबर कर देगा. तुम्हारा हसबैंड को बहुत चोट लगा. मगर डाक्टर ने बताया कि वह खतरे से बाहर है. वह अच्छा हो जाएगा.”
“मगर यहां क्या व्यवस्था हो सकती है?” मैं बोली, “उन्हें अस्पताल पहुंचाना बहुत जरूरी है. अगर आप उस की व्यवस्था कर देते तो…”
“चर्च के पास ही तो एक हौस्पिटल है,” बुजुर्ग मेरी बात काटते हुए बोले, “वहीं तो हम सब से पहले तुम्हारे हसबैंड को ले गया था. डाक्टर ने चैक किया और दवाएं लिखीं. कंपाउंडर ने फर्स्ट एड दिया. लेकिन वह बोल रहा था कि हालत ठीक नहीं. बौडी से खून ज्यादा निकल गया है. खून चढ़ाना होगा. हम उसी की व्यवस्था में लगा है.”
बुढ़े ने बुढ़िया से कुछ कहा. वह अंदर चली गई थी. मैं अब कुछ सहज होने लगी थी. फिर भी मन में कुछ आशंका थी. अपरिचित लोग, अनजान जगह. हालांकि बातव्यवहार से कहींकुछ अजीब नहीं लग रहा था. मगर ये अभावग्रस्त लोग हमारी क्या मदद कर पाएंगे, यही विचार मन में घुमड़ रहा था. यह भी कि ये लोग हमारे बारे में क्या सोच रहे होंगे. इतने में बुढ़िया आई और जाने क्या कहा कि बूढ़ा उठते हुए बोला, “चलो बेटा, चाय पीते हैं.”