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मेरा मन बिलकुल नहीं था. मन तो अरुण में टंगा था. फिर भी अनिच्छापूर्वक उठना पड़ा. झोंपड़ी के एक किनारे ही रसोई थी. अल्युमुनियम, स्टील, तामचीनी और लकड़ी के भी ढेर सारे बरतन करीने से रखे हुए थे. एक तरफ 2 बड़े ड्रम थे, जिन में पीने का पानी था. सरकारी कृपा से नागालैंड के हर गांव में और कुछ पहुंचे, न पहुंचे, बिजली और पानी की सप्लाई ठीकठाक है. कुछ छोटे पीपों में कुचले हुए बांस के कोंपल भरे थे. उन के उपर करीने से बोतलें सजी थीं, जिन में बांस की कोंपलों का ही रस निकाल कर रखा हुआ था.

नागा समाज अपनी रसोई में तेलमसालों की जगह इन्हीं बांस के कोंपलों के खट्टे रसों का उपयोग करता है, यह बात अरुण ने एक दिन बताई थी. एक तरफ चूल्हे में आग जल रही थी, जिस पर बड़ी सी केतली में पानी खदक रहा था. बुढ़िया ने एक अलग बरतन में कप से पानी नाप कर डाला और चूल्हे के दूसरी तरफ चढ़ा दिया. अब मैं ने ध्यान दिया. चूल्हे के ऊपर मचान बना कर लकड़ियां रखी थीं. और इन दोनों के बीच लोहे के तारों में गूंथे गए मांस के टुकड़े रखे थे. मेरा मन अजीब सा होने लगा था.

बुढ़िया सब को चाय देने लगी थी. वह एक प्लेट में बिस्कुट भी निकाल लाई थी और खाने के लिए बारबार आग्रह कर रही थी. उस का वात्सल्य देख मेरा मन भर आया और प्लेट पकड़ ली. बुजुर्ग अब खुद ही अपने बारे में बताने लगे थे- “मैं यहां का गांव का बूढ़ा (मुखिया) हूं. 3 बेटे और एक बेटी है. बेटी की शादी हो गई. एक बेटा गोहाटी में टीचर है और दूसरा डिमापुर में एक औफिस में क्लर्क है. तीसरा मोकोकचुंग के एक कालेज में पढ़ाई करता है. आज ही वह आया है. मगर अभी जंगल गया हुआ है. आता ही होगा अब. अच्छा, तुम्हारा आदमी क्या करता है?”

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