लेखक- अशोक गौतम

पता नहीं क्यों कई दिनों से दांत में दर्द हो रहा था. वायरस-फ्री पेस्ट तो दिन में चारचार बार करता रहा हूं. औफिस में खाना तो मैं ने उस दिन से ही त्यागपरित्याग दिया था जिस दिन सिर में पहला सफेद बाल दिखा था. हो सकता है पुराने खाए के चलते अब अंदर से कोई दांत सड़ रहा हो. पुरानी बीमारियां अकसर ईमानदार होने पर ही रंग दिखाती हैं. आजकल वैसे भी अंदर से ही सब सड़ा जा रहा है, क्या सिस्टम, क्या शरीर, बाहर से तो सब चकाचक है. इधरउधर से डैंटिस्ट के रिव्यू सुनने के बाद उन दंत चिकित्सकों के पास गया जिन के बारे में यह भी विख्यात था कि जो भी उन के पास अपने दांतों को ले कर एक बार गया वह दूसरी बार न गया. ‘‘क्या बात है?’’ ‘‘जी, दांत में दर्द है.’’ यह सुन उन्होंने अपने आगे मेरा मुंह खुलवाते कहा, ‘‘गुड, वैरी गुड, वैरीवैरी गुड. अच्छा तो अपना मुंह खोलो.’’ मेरे बहुत कोशिश करने के बाद भी जब उन के मनमाफिक मेरा मुंह न खुला तो वे डांटते बोले, ‘‘हद है यार, खुले मुंहों के दौर में ठीक ढंग से अपना मुंह भी नहीं खोल सकते, जबकि आज आदमी अपना मुंह सोएसोए भी खुला रखता है.’’

‘‘सर, विवाह से पहले मुंह खोलने की जो थोड़ीबहुत आदत थी, विवाह करने के बाद वह भी जाती रही. अब तो जबजब भी मुंह खोलने की कोशिश की, मुंह पर ही मुंह की खानी पड़ी. और अब हालात ये हैं कि महीनों बाद मुंह अभ्यास करने को खोल लिया करता हूं, एकांत में, ताकि कल को मुंह खुलना बिलकुल ही बंद न हो जाए या कि मुंह खोलना भूल ही न जाऊं.’’ पर आखिर वे भी वे थे. अपने हिसाब से मेरा मुंह खुलवा कर ही रहे. जब मेरा मुंह उन के आगे उन के हिसाब का खुल गया तो वे ज्ञान की टौर्च जला मेरे मुंह के भीतर झांकते मु झे दांत दर्द का ओरल समाधान और प्रायोगिक ज्ञान एकसाथ देते बोले, ‘‘डियर, आजकल दर्द कहां नहीं? आजकल दर्द किसे नहीं? यह संसार दर्द के सिवा और कुछ नहीं. इस लोक में दर्द ही शाश्वत है बाकी सब मिथ्या. ब्रह्मचर्य दर्द देता है, गृहस्थ दर्द देता, वानप्रस्थ दर्द देता है,

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