बंजारीलाल कुछ सालों से कैंसर से जूझ रहा था. बहुत से लोगों को यह एहसास नहीं होता है कि पुरुष जब कैंसर से पीड़ित होते हैं, तो उन्हें भी उतनी ही सहानुभूति की आवश्यकता होती है जितनी औरतों को. जब लोगों को बंजारीलाल के कैंसर के बारे में पता चला तो ज्यादातर ने यह मान लिया कि यह कैंसर का कोई रूप होगा, लेकिन विस्तारपूर्वक जानना उचित नहीं समझा.

इस का यह मतलब नहीं था कि बंजारीलाल को लोगों का समर्थन नहीं मिला. उस की पत्नी, बच्चे, परिवारजन, दोस्तयार और जो पहले सहकर्मी थे, सभी से समर्थन प्राप्त हुआ, विशेषरूप से पोतेपोतियां अद्भुत रूप से अपना समर्थन दिखाते थे,“दादाजी, क्या आप को चोट लगी है? दादाजी, क्या आप को खानेपीने के लिए कुछ चाहिए? आप को आराम से बैठने के लिए एक तकिया चाहिए? कहां दर्द होता है दादाजी," वगैरह...

बंजारीलाल के सभी बच्चे महानगरों में रहते थे. कोई मैनेजर के पद पर था, कोई सौफ्टवेयर इंजीनियर था. ट्रेन के सफर में कम से कम 1 दिन तो लग ही जाता, इसलिए उन्होंने तब तक उन्हें नहीं देखा जब तक कि अपना इलाज शुरू नहीं कर दिया और सिर के बाल झड़ नहीं गए. अपने इलाज के दौरान भी बंजारीलाल ने अपना काम करना जारी रखा और कभीकभार अपने बच्चों और पोतेपोतियों से मिलने उन के शहरों तक चले जाया करता था.

जब उस ने कीमोथेरैपी शुरू की थी और बाल निकाल दिए, तब उस का एक बेटा और बेटे का परिवार उस से मिलने आया था. बेटे का लगभग 3 साल का बेटा था जो चाहता था कि उस के दादाजी उस के साथ खेलें. अपने घर से अपने साथ वह अपने खिलौने भी ले कर आया था. जब दादाजी उस के साथ खेलते, तो हंसीमजाक में वह दादाजी की टोपी उतार कर उन के गंजे सिर पर हाथ फेरता. फिर दादाजी को टोपी वापस पहना कर फिर से खेल में जुट जाता. पोता पता नहीं इस हरकत से क्या करना चाहता था, मगर बंजारीलाल को पोते की इस हरकत से बड़ा सुकून मिलता था.

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