“आजकल विश्व साहित्य पढ़ रहा हूं. सुबह से निज़ार कब्बानी की कविताओं में डूबा हुआ था.“
“अच्छा. लेकिन मैं ने कभी उन के बारे में नहीं सुना. आप उन की कोई पंक्ति सुनाइए जो आप को सब से ज्यादा पसंद हो.”
“हां जरूर, अनामिका.”
इतनी देर में जामयांग चाय ले कर आ गया और वे दोनों वहीं डाइनिंग टेबल पर बैठ गए. मयंक गुप्ता ने चाय का एक घूंट पिया और कविता कहनी शुरू की.
“मैं कोई शिक्षक नहीं हूं, जो तुम्हें सिखा सकूं कि कैसे किया जाता है प्रेम. मछलियों को नहीं होती शिक्षक की जरूरत, जो उन्हें सिखाता हो तैरने की तरकीब और पक्षियों को भी नहीं, जिस से कि वे सीख सकें उड़ान के गुर. तैरो ख़ुद अपनी तरह से, उड़ो ख़ुद अपनी तरह से, प्रेम की कोई पाठ्यपुस्तक नहीं होती.”
अनामिका जी कहीं खो गई थीं और मयंक गुप्ता एकदम चुप हो गए.
“बहुत ही सुंदर है. कविताओं के सम्मोहन उन के काम आते हैं जिन को इन की जरूरत है. लेकिन ज्यादातर लोग तो अंधीदौड़ में शामिल हैं,” अनामिका जी कुछ सोचते हुए बोलीं.
“जरूरत से ज्यादा बौद्धिकता और आधुनिकता ने हमारे स्वाभाविक मृदु भाव छीन लिए हैं, अनामिका.”
“जी, समाज हर बात को ‘इंटैलेक्चुअल लैंस’ से ही देखता है और भाव जगत को देखनेसमझने की कोशिश कोई नहीं करता.”
मयंक गुप्ता अनामिका को ध्यान से देख रहे थे और उन की आंखों में जो गूढ़ सांकेतिक भाषा थी, मिस अनामिका समझ पा रही थीं.
“भाव जगत एक विस्तृत विषय है- एक आदिम अवस्था, सामाजिक तो बिलकुल भी नहीं.” मयंक गुप्ता चाय पीते हुए बोले.
“और, शब्द केवल संकेत दे सकते हैं. प्रेम जैसे विस्तृत विषय को केवल जिया जा सकता है, जाना नहीं जा सकता,” अनामिका बोलीं.
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