शाम को फिर उन का फोन आया था, वही बातें जो रोज कहते हैं.‘‘अंजू, मैं तुम्हारे बिना रह नहीं पा रहा हूं, मैं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं. बेटेबहू की अपनी जिंदगी है. तुम अकेले गांव में रहती हो, मुझे अच्छा नहीं लगता है. मुझे आने दो अपने पास या तुम यहीं आ जाओ.’’
मैं ने हूं हां कर मोबाइल औफ कर दिया. स्विच औफ करने से कहीं यादें थोड़े न औफ हो जाती हैं, बल्कि एकांत पा उस के काले, डरावने, नुकीले पंजे मानस को दबोच लेते हैं.
बात प्रतापगढ़ की है जब मैं तीसरी बार गर्भवती थी. इन्हें किसी से बोलते सुना, ‘बीवी अधिक परेशान करे तो उसे बिजी कर दो, 9 महीने उलटियां करने में और 2 साल बच्चे पालने में.’ इन की वह हंसी मैं आज तक नहीं भूल पाई. पर एक बात जो और भी पहले की है, तब शादी नईनई हुई थी. इन की पीजी की पढ़ाई चल रही थी, तो मैं भी अपनी छुट्टियों के बीच मैडिकल कालेज के होस्टल में जा कर रहती थी उन के साथ. नई शादी हुई थी, इन की बड़ी याद आया करती थी. तब अपनी और इन की पढ़ाई दुश्मन सी लगती.
कभीकभी इन के दोस्तों के हंसीमजाक मुझे कुछ बताते हुए से प्रतीत होते. फिर मैं ने इन को अपनी महिला सहपाठियों से भी बड़ी ही अंतरंगता से बातें करते देखा. कभी किसी से, तो कभी किसी और से. मैं सोचती कि शायद मैडिकल कालेज में लड़केलड़कियां आपस में इतनी ही बेबाकी और अंतरंगता से रहते होंगे. मैं दिमाग को झटकने की कोशिश करती और नई शादीशुदा जिंदगी का रस लेने को तत्पर हो जाती.
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