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सगाई के बाद तो शरद अकसर ही उस के घर आनेजाने लगा था, अब उसे अपनी ससुराल में कभी भी आने का परमिट जो मिल गया था. इस एक महीने में वह सुरभि के साथ एक पूरा जीवन जीना चाहता था. अधिक से अधिक समय वह अपनी मंगेतर के साथ बिताना चाहता था. दोनों कभी मूवी देखने चले जाते, कभी दरिया के किनारे हाथों में हाथ डाले घूमते नजर आते, भविष्य के सुंदर सपने संजोते अपनी स्वप्नों की दुनिया में विचरण करते थे. पहले तो सुरभि को शर्म सी आती थी लेकिन अब घूमनेफिरने का लाइसैंस मिल गया था. सभी लोग बेफ्रिक थे कि ठीक भी है, दोनों एकदूसरे को अच्छी तरह समझ लेंगे तो जिंदगी आसान हो जाएगी.

वह दिन भी आ गया जब शरद को बेंगलुरु वापस जाना था. वह भावविह्वल हो रही थी. शरद उसे अपने से लिपटाए दिलासा दे रहा था. बस, कुछ ही दिनों की तो बात है, फिर हम दोनों एक हो जाएंगे. जहां मैं वहां तुम. हमारे ऊपर कोई बंधन नहीं होगा. और सुरभि ने उस के सीने में अपना मुंह छिपा लिया. शरद उस का मुंह ऊपर उठा कर बारबार उस के होंठों पर अपने प्यार की मुहर अंकित कर रहा था. शरद चला गया उसे अकेला छोड़ कर यादों में तड़पने के लिए.

विवाह जाड़े में होना था और अभी तो कई माह बाकी थे. फोन पर बातों में वह अपने विरह का कुछ इस प्रकार बखान करता था कि सुरभि के गाल शर्म से लाल हो उठते थे. वह उस की बातों का उत्तर देना चाहती थी किंतु शर्म उस के होंठों को सी देती थी. नीमा अकसर उसे छेड़ती और वह शरमा जाती.

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