सदा की तरह मैं ने अपना आक्रोश निकाल तो दिया लेकिन जानता हूं, मेरा भाषण मीना के गले में आज भी कांटा बन कर चुभ गया होगा. क्या करूं मैं मीना का, समझ नहीं पाता हूं, आखिर कैसे उस के दिमाग में मैं यह सत्य बिठा पाऊं कि जीवन बस, हंसीखुशी का नाम है.
पिछले 3 सालों से मीना मेरी पत्नी है. उस की नसनस से वाकिफ हूं मैं. जो मिल गया उस की खुशी तो उस ने आज तक नहीं जताई, जो नहीं मिल पाया उस का अफसोस उसे सदा बना रहता है.
मैं तो हर पल खुश रहना चाहता हूं. जीवन है ही कितना, सांस आए तो जीवन, न आए तो मिट्टी का ढेर. खुश होने को भी समय नहीं मिलता मुझे. और मीना, पता नहीं कैसे रोनेधोने को भी समय निकाल लेती है.
‘‘बचपन से ऐसी ही है मीना,’’ उस की मां ने कहा, ‘‘पता नहीं क्यों हर पल नाराज सी रहती है. जब देखो भड़क उठना उस के स्वभाव में ही है. हर इनसान का अपनाअपना स्वभाव है, क्या करें?’’
‘‘हां, और आप ने उसे कभी सुधारने की कोशिश भी नहीं की,’’ अजय ने उलाहना दिया, ‘‘बच्चे को सुधारना मातापिता का कर्तव्य है लेकिन आप ने उस की गलत आदतों को मान कर सिर्फ बढ़ावा ही दिया.’’
‘‘नहीं, अजय, ऐसा भी नहीं है,’’ सास बोली थीं, ‘‘संतुष्ट ही रह जाती तो शादी के बाद पढ़ती कभी नहीं. शादी के समय मात्र बी.ए. पास थी. अब एम.ए., बी.एड. है और आगे भी पढ़ना चाहती है. संतुष्ट नहीं है तभी तो…’’
‘‘उस की इसी जिद में मैं पिस रहा हूं. अपनी पढ़ाईलिखाई में उसे मेरा कोई भी काम याद नहीं रहता. मुझे अपना काम भी स्वयं ही करना पड़ता है. कपड़ों से ले कर नाश्ते तक. घर जाओ तो एक कप चाय की उम्मीद पत्नी से मुझे नहीं होती.
‘‘मैं तो मीना के पास होने पर खुश होता हूं और वह रोती है कि शादी की अगर जिम्मेदारी न होती तो और भी ज्यादा अंक आ सकते थे. अरे, शादी की ऐसी कौन सी जिम्मेदारी उस पर है, जरा पूछो उस से. मीना का बड़ा भाई मेरा दोस्त भी है. कभीकभार उस से शिकायत भी करता हूं.
‘‘कुछ लोग संसार में बस, रोने के लिए ही आते हैं. उन्हें चैन से खुद तो जीना आता नहीं, सामने वाले को भी चैन से जीने देना नहीं चाहते. तुम मीना को कुछ दिन के लिए अपने घर ले जाओ. एम.एड. करना चाहती है. वहीं पढ़ाओ उसे, मेरी जिम्मेदारी उस पर भारी पड़ रही है,’’ एक दिन मैं ने उस के भाई से कह ही दिया.
‘‘क्या कह रहे हो, अजय?’’ विनय ने हैरानी जाहिर की तो मैं हाथ से छूट गए ऊन के गोले की तरह खुलता ही चला गया.
‘‘मेरी तो समझ में नहीं आता कि आखिर मीना चाहती क्या है. पढ़ना चाहती थी तो पढ़ती रहती, शादी क्यों की थी? 3 साल हो गए हैं हमारी शादी को पर परिवार बढ़ाना ही नहीं चाहती, क्या बुढ़ापे में संतान के बारे में सोचेगी? विनय, मेरी जगह तुम होते तो क्या यह सब सह पाते?
‘‘अच्छीखासी तनख्वाह है मेरी, मगर नहीं, हर समय यही रोना ले कर बैठी रहती है कि उसे भी काम करना है इसलिए और पढ़ना चाहती है. एम.ए., बी.एड. कर के कौन सा तीर मार लिया जो अब एम.एड. करने की ठानी है. दरअसल, उस का चाहा क्यों नहीं हुआ यह शिकायत उस की आदत है और यह हमेशा ही रहेगी. बीत जाएगा उस का भी और मेरा भी जीवन इसी तरह चीखतेचिल्लाते.’’
विनय चुप था. क्या कहता? जाहिर सा था उस का भी हावभाव.
‘‘मैं जानता हूं, वापस ले जाना इस समस्या का हल नहीं है, कुछ दिन को ही ले जाओ. आजकल उस का रोनाधोना जोरों पर है, उसे समझा पाना मेरे बस से बाहर होता जा रहा है.’’
विनय सकपका रहा था. यह सबकुछ सुनने के बाद बोला, ‘‘ठीक है, कल इतवार है, मैं सुबह आ जाऊंगा. शाम तक तुम दोनों के पास रहूंगा. तुम चिंता मत करो. भाई हूं, उसे मैं समझाऊंगा.’’
दूसरी सुबह अभी हम नाश्ता करने ही वाले थे कि विनय ने दरवाजा खटखटा दिया. मीना बड़े भाई को देख कर भी उखड़ी ही रही.
‘‘यहां स्टेशन पर किसी काम से आया था. सोचा, आज का दिन तुम दोनों के साथ बिताऊंगा, लेकिन तुम्हारा तो चेहरा लटका हुआ है. नाश्ता नहीं किया है मैं ने, तुम खिला दोगी न?’’
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कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई मीना पर. एक मेहमान के लिए ही सही, स्वाभाविक मुसकान भी चेहरे पर नहीं आई. जी में आया, पता नहीं क्या कर दूं. मेरे भैयाभाभी आए थे तो भी यही तमाशा किया था मीना ने.
‘‘मीना, मैं तुम से ही बात कर रहा हूं. यह क्या तरीका है घर आने वाले का स्वागत करने का?’’
विनय के व्यवहार पर तनिक चौंकी थी मीना. सदा नाजनखरे उठाने वाला भाई क्या इस तरह भी बोल
सकता है.
‘‘रहने दीजिए न आप, बात ही क्यों कर रहे हैं मुझ से,’’ तुनक कर दरवाजे से हट गई मीना और विनय अवाक् कभी मेरा मुंह देखे और कभी जाती हुई बहन का.
विनय के चेहरे पर अपमान के भाव तो कम उभरे आत्म- ग्लानि के भाव ज्यादा थे. अपना ही सोना खोटा हो तो किसे दोष देता विनय. मेरे वे शिकायती शब्द असत्य नहीं हैं यह स्पष्ट था. मेरी परेशानी भी कम न होगी वह समझ रहा था.
‘‘मां बीमार हैं, मीना. चलो, मैं तुम्हें लेने आया हूं.’’
‘‘मुझे कहीं नहीं जाना,’’ यह कह कर वह जाने लगी तो विनय ने बांह पकड़ रोकना चाहा, तब मीना बड़े भाई का हाथ झटक कर बोली, ‘‘मुझे तो एम.एड. में दाखिला चाहिए.’’
‘‘एम.एड. में दाखिला लेने के लिए क्या बदतमीजी करना जरूरी है?’’ विनय बोला, ‘‘तुम्हें तो छोटेबड़े का भी लिहाज नहीं है. जब पढ़लिख कर बदतमीजी ही सीखनी है तो तुम बी.ए. पास ही अच्छी थीं.’’
विनय के शब्द तनिक कड़वे हो गए थे जिन पर मुझे भी अच्छा नहीं लगा था. मीना मेरी पत्नी है. कोई उस पर नाराज हो, मैं भी तो यह नहीं चाहता.
‘‘मीना, तुम अपने होशोहवास में तो हो. तुम बच्ची नहीं हो जो इस तरह जिद करो. अपने घर के प्रति भी तुम्हारी कोई जिम्मेदारी बनती है.’’
‘‘मैं ने अपनी कौन सी जिम्मेदारी नहीं निभाई. मन मार कर वहीं तो रह रही हूं जहां आप ने ब्याह दिया है.’’
काटो तो खून नहीं रहा मुझ में और साथ ही विनय में भी. मानो वह मुझ से नजर चुरा रहा हो.
‘‘मुझे आप के साथ कहीं नहीं जाना. कह दीजिएगा मां से कि अब यहीं जीनामरना है, बस…’’
‘‘कैसी पागलों जैसी बातें कर रही हो. अजय जैसा अच्छा इनसान तुम्हारा पति है. जैसा चाहती हो वैसा ही करता है, और क्या चाहिए तुम्हें?’’
मैं कमरे से बाहर चला गया. आगे कुछ भी सुनने की चाह मुझ में नहीं थी. कुछ भी सुनना नहीं चाहा मैं ने. क्या सोच कर विनय को बुलाया था पर उस के आ जाने से तो सारा विश्वास ही डगमगा सा गया.
तंद्रा टूटी तो पता चला काफी समय बीत चुका है. शायद दोपहर होने को आ गई थी. विनय वापस जाने को कंधा हिला रहा था.
‘‘मीना को साथ ले जा रहा हूं. तुम अपना खयाल रखना.’’
और मीना बिना मुझ से मिले, विदा लिए, बिना कोई बात किए ही चली गई. नाश्ता उसी तरह मेज पर रखा रहा. मीना ने मेरी भूख के बारे में भी नहीं सोचा. भूखा रहना तो मेरी तब से मजबूरी है जब से उस के साथ बंधा हूं. कभीकभी तरस भी आता है मीना पर.
हमारे बीच कभी कोई सेतु बना ही नहीं. संतान होती तो भी कोई धागा बंध जाता हमारे बीच मगर मीना तो संतान के नाम से भी दूर भागती है. लेकिन आज जो कानों में पड़ा उस के पीछे मात्र पढ़ाई की जिद नहीं लगती, लगता है आवरण के भीतर कुछ और भी है. कोई ऐसी अतृप्त इच्छा, कोई ऐसी अपूर्ण चाह जिस का बदला शायद वह मेरी अवहेलना कर मुझ से ले रही है.
मीना चली गई तो ऐसा लगा जैसे चैन आ गया है मुझे. अपनी सोच पर अफसोस भी हो रहा है कि मैं मीना को बहुत चाहता हूं फिर उस का जाना प्रिय क्यों लग रहा है? ऐसा क्यों लग रहा है कि शरीर के किसी हिस्से में समाया मवाद बह गया और पीड़ा से मुक्ति मिल गई. जिस के साथ पूरी उम्र गुजारने की सोची उसी का चला जाना वेदना क्यों नहीं दे रहा मुझे?
कुछ दिन बीत गए. विनय हर 2-3 दिन पर फोन कर के मेरा हाल पूछ लेता. कभी रात मेरे पास ही रुक जाता मानो बहन ने जो देखभाल कभी नहीं की उसे भाई पूरा करने का प्रयास कर रहा है.
एक शाम मैं ने विनय को समझाना चाहा, ‘‘मेरी वजह से तुम क्यों अपने परिवार से दूर रह रहे हो, विनय, चारू भाभी को बुरा लगेगा.
‘‘तुम्हारी भाभी ने ही तो कहा है कि मैं तुम्हारे साथ रहूं और फिर तुम मेरा परिवार नहीं हो क्या? हैरान हूं मैं अजय, मीना का व्यवहार देख कर. वह सच में बहुत जिद्दी है. मैं भी पहली बार महसूस कर रहा हूं…तुम बहुत सहनशील हो अजय, जो उसे सहते रहे. तुम्हारी जगह यदि मैं होता तो शायद इतना लंबा इंतजार न करता.
‘‘अजय, सच तो यह है कि अपनी बहन का बचपना देख कर मुझे अपनी पत्नी और भी अच्छी लगने लगी है. दोनों में जब अंतर करता हूं तो पाता हूं कि चारू समझदार और सुघड़ पत्नी है. मीना जैसी को तो मैं भी सह नहीं पाता.
‘‘अकसर ऐसा होता है अजय, मनुष्य उस वस्तु से कभी संतुष्ट नहीं होता जो उस के पास होती है. दूसरे की झोली में पड़ा फल सदा ज्यादा मीठा लगता है. चारू की तुलना मैं सदा मीना से करता रहा हूं, मां ने भी अपनी बहू का अपमान करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी. चारू मीना जितना पढ़लिख नहीं पाई क्योंकि शादी के बाद हम उसे क्यों पढ़ातेलिखाते? बी.ए. पास है, बस, ठीक है. मीना को तुम ने मौका दिया तो हम ने झट उसे चारू से बेहतर मान भी लिया पर यह कभी नहीं सोचा कि मीना की इच्छा का मान रखने के लिए तुम कबकब, कैसेकैसे स्वयं को मारते रहे.’’
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‘‘चारू भाभी की अवहेलना मैं ने भी अकसर महसूस की है. मीना के जाने से मेरा भी भला हो रहा था और चारू भाभी का भी. मैं भी सुख की सांस ले रहा हूं और चारू भाभी भी.
‘‘कैसी है मीना, तुम ने बताया नहीं. क्या घर वापस नहीं आना चाहती? क्या मेरी जरा सी भी याद नहीं आती उसे?’’
‘‘पता नहीं, मुझ से तो बात भी नहीं करती. चारू से भी कटीकटी रहती है.’’
‘‘किसी के साथ खुश भी है वह. तुम बुरा मत मानना, विनय. कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के जीवन में कोई और है या था…कहीं उस की शादी जबरदस्ती तो नहीं की गई?’’
मैं ने सहसा पूछा तो विनय के माथे पर कुछ बल पड़े फिर सामान्य हो कर और गहरा गए.
‘‘मैं ने मां से इस बारे में भी पूछा था. तुम मेरे मित्र भी हो, अजय, तुम्हारे साथ जरा सी भी नाइंसाफी मैं सह नहीं सकता क्योंकि पिछले 6-7 साल से मैं तुम्हें जानता हूं कि तुम्हारा चरित्र सफेद कागज के समान है. कोई तुम्हारी भावना का अनादर क्यों करे? मेरी बहन भी क्यों? जहां तक मां का विचार है वह तो यही कहती हैं कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है.’’
‘‘तो आज मैं आ जाऊं उसे वापस ले आने के लिए? आखिर, कुछ तो इस समस्या का समाधान होना ही चाहिए. मीना मेरी पत्नी है, कुछ तो मुझे भी करना होगा न.’’
विनय की आंखें भर आईं. उस ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया. संभवत: उसे भी यही एक रास्ता सूझ रहा होगा कि मैं ही कुछ करूं.
दूसरी सुबह मैं अपनी ससुराल पहुंच गया. पूरे 15 दिन बाद मैं मीना से मिलने वाला था.
सड़क की मरम्मत का काम चल रहा था. पूरे रास्ते पर कंकर बिछे थे इसलिए स्कूटर घर से बहुत दूर ही खड़ा करना पड़ा. पैदल ही घर तक आया इसीलिए मेरे आने का किसी को भी पता नहीं चला.
मैं घर के आंगन में खड़ा था. मां और भाभी दोनों रसोई में व्यस्त थीं. उन्होंने मुझे देखा नहीं. चुपचाप सीढि़यां चढ़ कर मैं ऊपर मीना के कमरे के पास पहुंचा और पति के अधिकार के साथ दरवाजा धकेला मैं ने.
‘‘चारू, तुम जाओ. मैं ने कहा न मुझे भूख नहीं है…
‘‘जानती हूं तुम्हारी चापलूसी को सभी को मेरे खिलाफ भड़काती हो…अनपढ़ गंवार कहीं की…तुम जलती हो मुझ से.’’
मीना की यह भाषा सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया. आहट पर ही इतनी बकवास कर रही है तो आमनेसामने झगड़ा करने में उसे कितनी देर लगती होगी. कैसी औरत मेरे पल्ले पड़ गई है जिस का एक भी पहलू मेरे गले से नीचे नहीं उतरता.
‘‘चारू भाभी क्यों जलेगी तुम से? ऐसा क्या है तुम्हारे पास, जरा बताओ तो मुझे. तुम तो मानसिक रूप से कंगाल हो.’’
काटो तो खून नहीं रहा मीना में. मेरा स्वर और मेरी उपस्थिति की तो उस ने कल्पना भी न की होगी. अफसोस हुआ मुझे खुद पर और सहसा अपना आक्रोश न रोक पाने पर.
‘‘चारू भाभी से अच्छे व्यवहार जैसा कुछ है तुम्हारे पास? तुम तो न अपने मांबाप की सगी हो न भाईभाभी की. न ससुराल में तुम्हें कोई पसंद करता है न मायके में. यहां तक कि पति भी तुम से खुश नहीं है. ऐसा कौन है तुम्हारा जो तुम से प्यार कर के खुद को धन्य मानता है? तुम तो अपनी एम.ए., बी.एड. की डिगरी पर इतराती हो जिस का मूल्य बाजार में 1,000-1,500 रुपए से ज्यादा नहीं है.’’
सन्न रह गई मीना. शायद यह आईना उसे मैं ही दिखा सकता था. आंखें फाड़फाड़ कर वह मुझे देखने लगी.
‘‘धन्य मानो स्वयं को जो तुम्हें इतना चाहने वाले भाईभाभी मिले हैं, नाज उठाने वाले मांबाप मिले हैं और हर जिद पूरी करने वाला पति मिला है जो अपनी हर इच्छा मार कर भी तुम्हारी जिद पूरी करता है.
‘‘तुम तो बस, यही चाहती हो कि हर कोने में तुम्हारा ही अधिकार हो. मायके का यह कमरा हो या ससुराल का घर, हर इनसान बस, तुम्हारे ही चाहने पर कुछ चाहे या न चाहे. मीना, यह भी जान लो कि इनसान का हर कर्म, हर व्यवहार एक दिन पलट कर वापस आता है. इतना जहर न बांटो कि हर दिशा से बस, जहर ही पलट कर तुम्हारे पास वापस आए.’’
रो पड़ा था मैं यह सोच कर कि कैसे इस पत्थर को समझाऊं. सामने खिड़की के पार मजदूर बच्चे खेल रहे थे, हाथ पकड़ कर मैं मीना को खिड़की के पास ले आया और बोला, ‘‘वह देखो, सामने उन बच्चों को. सोच सकती हो वे कैसी गरमीसर्दी सह रहे हैं. कूलर की ठंडी हवा में चैन से बैठी हो न, सोचो अगर उन्हीं मजदूरों के घर तुम्हारा जन्म होता तो आज यही जलते कंकर तुम्हारा बिस्तर और यही पत्थर तुम्हारी रोजीरोटी होते तब कहां होते सब नाजनखरे? यह सब चोंचले तभी तक हैं जब तक सब सहते हैं.
‘‘तुम विनय की पत्नी का इतना अपमान करती हो, आज अगर वह तुम्हें कान से पकड़ कर बाहर निकाल दे तब कहां जाएगी तुम्हारी यह जिद, तुम्हारा लड़नाझगड़ना. क्यों मेरे साथसाथ इन सब का भी जीना हराम कर रखा है तुम ने?’’
अपना अनिश्चित भविष्य देख कर मैं घबरा गया था शायद, इसीलिए जैसे गया था वैसे ही लौट आया. किसी को मेरे वहां जाने का पता भी न चला.
विनय बारबार फोन कर के ‘क्या हुआ, कैसे हुआ’ पूछता रहा. क्या कहूं मैं उस से? कैसे कहूं कि मेरी पत्नी उस की पत्नी का अपमान किस सीमा तक करती है.
शाम ढल आई. इतवार की पूरी छुट्टी जैसे रोते शुरू हुई थी वैसे ही बीत गई. रात के 8 बज गए. द्वार पर दस्तक हुई. देखा तो हाथ में बैग पकड़े मीना खड़ी थी. क्या सोच कर उस का स्वागत करूं कि घर की लक्ष्मी लौट आई है या मेरी जान को घुन की तरह चाटने वाली मुसीबत वापस आ गई है.
‘‘तुम?’’
बिना कुछ कहे मीना भीतर चली गई. शायद विनय छोड़ कर बाहर से ही लौट गया हो. दरवाजा बंद कर मैं भी भीतर चला आया. दिल ने खुद से प्रश्न किया, कैसे कोई बात शुरू करूं मैं मीना से? कोई भी तो द्वार खुला नजर नहीं आ रहा
था मुझे.
हाथ का बैग एक तरफ पटक वह बाथरूम में चली गई. वापस आई तब लगा उस की आंखें लाल हैं.
‘‘चाय पिओगी या सीधे खाना ही खाओगी? वैसे खाना भी तैयार है. खिचड़ी खाना तुम्हें पसंद तो नहीं है पर मेरे लिए यही आसान था सो 15 दिन से लगभग यही खा रहा हूं.’’
आंखें उठा कर मीना ने मुझे देखा तो उस की आंखें टपकने लगीं. चौंकना पड़ा मुझे क्योंकि यह रोना वह रोना नहीं था जिस पर मुझे गुस्सा आता था. पहली बार मुझे लगा मीना के रोने पर प्यार आ रहा है.
‘‘अरे, क्या हुआ, मीना? खिचड़ी नहीं खाना चाहतीं तो कोई बात नहीं, अभी कुछ अच्छा खाने के लिए बाजार से लाते हैं.’’
बात को हलकाफुलका बना कर जरा सा सहज होने का प्रयास किया मैं ने, मगर उत्तर में ऐसा कुछ हो गया जिस का अनुभव मैं ने शादी के 3 साल बाद पहली बार किया कि समर्पित प्यार की ऊष्मा क्या है. स्तब्ध रह गया मैं. गिलेशिकवे सुनसुन कर जो कान पक गए थे उन्हीं में एक नई ही शिकायत का समावेश हुआ.
‘‘आप मुझे लेने क्यों नहीं आए इतने दिन? आज आए भी तो बिना मुझे साथ लिए चले आए?’’
‘‘तुम वापस आना चाहती थीं क्या?’’
हैरान रह गया मैं. बांहों में समा कर नन्ही बालिका सी रोती मीना का चेहरा ऊपर उठाया. लगा, इस बार कुछ बदलाबदला सा है. मुझे तो सदा यही आभास होता रहता था कि मीना को कभी प्यार हुआ ही नहीं मुझ से.
‘‘तुम एक फोन कर देतीं तो मैं चला आता. मुझे तो यही समझ में आया कि तुम आना ही नहीं चाहती हो.’’
सहसा कह तो गया मगर तभी ऐसा भी लगा कि मैं भी कहीं भूल कर रहा हूं. मेरे मन में सदा यही धारणा रही जो भी मिल जाए उसी को सरआंखों पर लेना चाहिए. प्रकृति सब को एकसाथ सबकुछ नहीं देती लेकिन थोड़ाथोड़ा तो सब को ही देती है. वही थोड़ा सा यदि बांहों में चला आया है तो उसे प्रश्नोत्तर में गंवा देना कहां की समझदारी है. क्या पूछता मैं मीना से? कस कर बांहों में बांध लिया. ऐसा लगा, वास्तव में सबकुछ बदल गया है. मीना का हावभाव, मीना की जिद. कहीं से तो शुरुआत होगी न, कौन जाने यहीं से शुरुआत हो.
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तभी फोन की घंटी बजी और किसी तरह मीना को पुचकार कर उसे खुद से अलग किया. दूसरी तरफ विनय का घबराया सा स्वर था. वह कह रहा था कि मीना बिना किसी से कुछ कहे ही कहीं चली गई है. परेशान थे सब, शायद उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि वह मेरे पास लौट आएगी. मेरा उत्तर पा कर हैरान रह गया था विनय.
उलटे वह मुझे ही लताड़ने लगा कि पिछले 4-5 घंटे से मीना तुम्हारे पास थी तो कम से कम एक फोन कर के तो मुझे बता देते.
उस के 4-5 घंटे घर से बाहर रहने की बात सुन कर मैं भौचक्का रह गया क्योंकि मीना मेरे पास तो अभी आई है.
एक नया ही सत्य सामने आया. कहां थी मीना इतनी देर से?
उस के मायके से यहां आने में तो 10-15 मिनट ही लगते हैं. मीना से पूछा तो वह एक नजर देख कर खामोश हो गई.
‘‘तुम दोपहर से कहां थीं मीना, तुम्हारे घर वाले कितने परेशान हैं.’’
‘‘पता नहीं कहां थी मैं.’’
‘‘यह तो कोई उत्तर न हुआ. अपनी किसी सहेली के पास चली गई थीं क्या?’’
‘‘मुझ से कौन प्यार करता है जो मैं किसी के पास जाती. लावारिस हूं न मैं, हर कोई तो नफरत करता है मुझ से…मेरा तो पति भी पसंद नहीं करता मुझे.’’
फिर से वही तेवर, वही रोनापीटना, मगर इस बार विषय बदल गया सा लगा. मन के किसी कोने से आवाज उठी कि पति पसंद नहीं करता उस का कारण भी तुम जानती हो. जब इतना सब पता चल गया है तुम्हें तो क्या यह पता नहीं चलता कि पति की पसंद कैसे बना जाए.
प्रत्यक्ष में धीरे से मीना का हाथ पकड़ा और पूछा, ‘‘मीना, कहां थीं तुम दोपहर से?’’
मेरे गले से लग पुन: रोने लगी मीना. किसी तरह शांत हुई, उस के बाद जो उस ने बताया उसे सुन कर तो मैं दंग ही रह गया.
मीना ने बताया कि घर की चौखट लांघते समय समझ नहीं पाई कि कहां जाऊंगी. आप ने सुबह ठीक ही कहा था, मेरी जिद तब तक ही है जब तक कोई मानने वाला है. मेरे अपने ही हैं जो मेरी हर खुशी पूरी करना चाहते हैं. 4 घंटे स्टेशन पर बैठी आतीजाती गाडि़यां देखती रही…कहां जाती मैं?
विस्मित रह गया मैं मीना का चेहरा देख कर. सत्य है, जीवन से बड़ा कोई अध्यापक नहीं और इस संसार से बड़ी कोई पाठशाला कहीं हो ही नहीं सकती. सीखने की चाह हो तो इनसान यहां सब सीख लेता है. निभाना भी और प्यार करना भी. यह जो सख्ती विनय के परिवार ने अब दिखाई है वही बचपन में दिखा दी होती तो मीना इतनी जिद्दी कभी नहीं होती. हम ही हैं जो कभीकभी अपना नाजायज लाड़प्यार दिखा कर बच्चों को जिद्दी बना देते हैं.
‘‘एक बार तो जी में आया कि गाड़ी के नीचे कूद कर अपनी जान दे दूं. समझ नहीं पा रही थी कि मैं कहां जाऊं,’’ मीना ने कहा और मैं अनिष्ट की सोच कर ही कांप गया.
पसीने से भीग गया मैं. ऐसी कल्पना कितनी डरावनी लगती है. मेरी यह हालत देख कर मीना बोली, ‘‘अजय, क्या हुआ?’’ और वह मेरी बांह पकड़ कर हिला रही थी.
‘‘अजय, आप मेरी बात सुन कर परेशान हो गए न. जो सच है वही तो बता रही हूं…आज जो सब हुआ वही तो…’’
मैं ने कस कर छाती में भींच लिया मीना को. मीना जोश में आ कर कोई गलत कदम उठा लेती तो मेरी हालत कैसी होती. मैं ऐसा कैसे कर पाया मीना के साथ. 15 दिन तक हालचाल भी पूछने नहीं गया और आज सुबह जब गया भी तो यह भी कह आया कि मीना का पति भी मीना से प्यार नहीं करता. रो पड़ा मैं भी अपनी नादानी पर. एक नपातुला व्यवहार तो मैं भी नहीं कर पाया न.
‘‘अजय, आप पसंद नहीं करते न मुझे?’’
‘‘मुझे माफ कर दो, मीना, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.’’
‘‘आप ने अच्छा किया जो ऐसा कहा. आप ऐसा नहीं कहते तो मुझे कुछ चुभता नहीं. कुछ चुभा तभी तो आप के पास लौट पाई.
‘‘मैं जानती थी, आप मुझे माफ कर देंगे. मैं यह भी जानती हूं कि आप मुझ से बहुत प्यार करते हैं. आप ने अच्छा किया जो ऐसा किया. मुझे जगाना जरूरी था.’’
हैरानपरेशान तो था ही मैं, मीना के शब्दों पर हक्काबक्का और स्तब्ध भी. स्वर तो फूटा ही नहीं मेरे होंठों से. बस, मीना के मस्तक पर देर तक चुंबन दे कर पूरी कथा को पूर्णविराम दे दिया. जो नहीं हुआ उस का डर उतार फेंका मैं ने. जो हो गया उसी का उपकार मान मैं ने ठंडी सांस ली.
‘‘मैं एक अच्छी पत्नी और एक अच्छी मां बनने की कोशिश करूंगी,’’ रोतेरोते कहने लगी मीना और भी न जाने क्याक्या कहा. अंत भला तो सब भला लेकिन एक चुभन मुझे भी कचोट रही थी कि कहीं मेरा व्यवहार अनुचित तो नहीं था.