बड़े शहर की व्यस्ततम लालबत्ती. सुबह से रात तक वाहनों का आनाजाना लगा रहता है. इस चौराहे पर हर दिन राधा को हरीबत्ती होने का इंतज़ार करना पड़ता है. कार, औटोरिकशा जैसे वाहनों को भी रुक कर आगे बढ़ना पड़ता है. वाहनों के बीच कई बार राधा ने देखा है- 4 लड़के गोटे-किनारे लगी हरे रंग की चादर को फैलाए कुछ मांगते हैं. वाहनों की ज़ीरो रफ़्तार के बीच खड़े लड़के एक ही वेशभूषा में होते हैं. सिर पर जालीदार टोपी, तन पर हरा कुरता और लुंगी. इन में से एक राधा की गाड़ी से सट कर खड़ा दीनहीन स्वर में कहता है, ‘माईबाप, नमाज़ियों के लिए जाजिम ख़रीदनी है, कुछ दे दो. मालिक आप को बहुत देगा.’
राधा गाड़ी औफ कर के सोचती है, ये बच्चे जान जोखिम में डाल कर दान ही तो मांग रहे हैं. एक नेक काम कर रहे हैं. जब भी इन्हें देखती हूं, तरस आता है. पर्स खोल कर 10 रुपए का नोट हरी झोली में डाल देती है. पता नहीं ये बच्चे पढ़ते हैं या सारा दिन यही करते हैं.
एक दिन झोली में नोट डाल कर पास खड़े लड़के से पूछा, “क्या नाम है तुम्हारा?”
“मैं अब्दुल, ये रज़्ज़ाक़, वो पीछे वाला नमाज़ी और ये जो खड़ा है सलमान है.”
“तुम लोग स्कूल नहीं जाते?”
“हां, जाते हैं, वह सामने जो सरकारी स्कूल है न, वहीं. हमारी दोपहर की शिफ़्ट है.”
बत्ती हरी हो गई. ट्रैफ़िक आगे बढ़ा तो हरी चादर वाले भी खिसक लिए.
यह सिलसिला हफ़्ते में दोतीन दिन ही चलता. मासूमों के लिए मन में कुछ तो था, तभी तो कभी दो का तो कभी दस रुपए का नोट झोली में पड़ जाता है.