मुसकराहट में वशीकरण है, नेत्रों में मदिरा की मस्ती है, पलकों की चिलमन से परखने की कला है, तब तक रूपसौंदर्य के भ्रमर उस पर न्यौछावर होते रहेंगे.
प्यार में बंध गई नूरी बेगम
उसे याद है कि नूरी के रूप में पहली बार जब वह अपने माहुरी पैरों में घुंघरुओं को बांध कर, झीने आसमानी चमकते परिधान में भरी महफिल में साजिंदों के वाद्ययंत्रों की स्वरलहरियों और थापों के बीच उपस्थित हुई थी, तब ऐसा लगा था कि नीलगगन में कोई आकाशगंगा अवतरित हो गई हो. महफिल में आए सभी लोगों की निगाहों पर मानों पक्षाघात सा हो गया. उस के अनिंद्य सौंदर्य पर तरहतरह की उपमाओं की बौछारें होने लगीं. उस दिन उस ने वही सब कुछ किया था, जो उसे सिखाया गया था.
अब उस की हर रात पिछली बीती रात से कहीं अधिक खुशनुमा होती, क्योंकि उस की दिलकश अदा के मुजरों की अदायगी और बानगी, उस के पैरों की थिरकन और खंजर जैसे नेत्रों के तीखे कटाक्ष तथा उस की एकएक भावमुद्रा और अंगप्रत्यंगों में बिजली सी चमक पैदा करती थी. उस के कामोद्ïदीपन युक्त दहकते शरीर की ऊष्णता से अपने को तृप्त करने की उत्कंठा में
पुराने आशिक मिजाज चेहरों के साथ रोज कुछ नए चेहरे भी महफिल में मौजूद होते और उस की एकएक अदा पर रुपयों और अशर्फियों व आभूषणों की बौछार करते थे. जब इस सब के बदले में कृतज्ञता यापन के लिए बाअदब कोर्निश करता हुआ उस का दाहिना हाथ उठा कर माथे को स्पर्श करता तो लोग उस की इस रस्म अदायगी की नजाकत पर मर मिटते थे. उन की फिकरेबाजी से कक्ष गूंज उठता था.
लेकिन इतना सब कुछ होने के बाद भी नूरी अपना पाक दामन बड़ी ही चतुराई और सूझबूझ से बचाती चली गई. प्रत्येक के साथ वह ऐसी आत्मीयता से पेश आती कि हर व्यक्ति यही सोचता कि नूरी उसी की है, केवल उसी की है. पर पंडित शिव नारायण मिश्र इन सब में बड़े भाग्यशाली रहे कि नूरी से उन्हें वह सब कुछ मिल गया, जो अन्य लोग अपना सब कुछ लुटाने के बाद भी न पा सके.
संभवत: जहां एक ओर पंडितजी के निश्छल प्रेम ने नूरी के हृदय में श्रद्धा व विश्वास पैदा किया, वहीं दूसरी ओर वह अपने को पंडितजी के इस एहसान से भी दबी हुई मानती थी कि उन्होंने ही अपने प्रभाव से तवायफी कोठे से कांचमहल में ला कर बैठाया था, जहां उस की शोहरत आसमानी ऊंचाइयों को छूने में कामयाब रही और उस पर धन की वर्षा हुई.
नूरी बेगम दिलोजान से पंडित शिवनारायण के लिए समर्पित हो गई. उस के हृदय में पंडितजी के प्रेम व समर्पण की भावना का बीज अंकुरित हो कर वटवृक्ष की भांति संपूर्ण हृदय पटल पर छा गया. पंडित शिव नारायण मिश्र को नूरी के पास आने की पूरी स्वतंत्रता थी. उन के ऊपर न नूरी की ओर से ही कोई पाबंदी थी और न ही नूरी की खाला की तरफ से ही कोई पाबंदी थी
और न ही नूरी की तरह उस की खाला भी पंडितजी के एहसान को तहेदिल से भूली थी.
खाला भी नूरी की तरह पंडितजी के एहसान को तहेदिल से बहुत मानती थी, क्योंकि नूरी के कदमों पर धनदौलत के ढेर लगाने का मुख्य आधार वह कांचमहल ही था, जहां रात के रंगीन उजाले में सोने की चमक चमका करती थी.
शिवनारायण नूरी बेगम के हो चुके थे मुरीद
पंडित शिवनारायण जयपुर के प्रतिष्ठित परिवारों में से एक सम्मानीय परिवार वाले व्यक्ति थे. उन का राजदरबार से संबंध जुड़ा हुआ था. राजा प्रताप सिंह के अलावा समस्त दरबारी तथा सामंतगण, ठाकुर, जागीरदार सभी उन का यथेष्ठ सम्मान किया करते थे.
वे विद्वता में अपना कोई सानी नहीं रखते थे. वे श्री लक्ष्मी से शोभायमान व सभी प्रकार की संपन्नता से पूर्ण थे. गौरवर्ण, तेज व ओज से युक्त, सुंदर और हृदयाकर्षक कदकाठी वाले व्यक्तित्व के वे धनी व्यक्ति थे. बड़ीबड़ी नीली आंखों, घनी भौंहों व मूछों से उन के व्यक्तित्व में और अधिक चुंबकीय आकर्षण आ गया था. इन सब से परे थी पंडितजी की सम्मोहिनी वाणी और उन के बात करने का सुंदर ढंग.
इन्हीं सब बातों ने नूरी के हृदय में एक स्थाई स्थान बना लिया था. पंडित शिव नारायण रात की महफिल के अलावा जब भी समय मिलता अथवा जब उन का चित्तमलीन होता, तब वे उस मलीनता को मिटाने के लिए नूरी के ही पास आते. नूरी के व्यक्तिगत अलंकृत कक्ष में उस के समीप में बैठते, लेटते, बतियाते.
उन्हें कविता व शायरी का भी शौक था, इसलिए बातों के सिलसिले में ही कभीकभी शेर या पूरी गजल तथा कविता वगैरह एकांत में सुना दिया करते थे.
नूरी वह रात कभी नहीं भूली थी, जब पंडितजी ने नूरी के द्वारा मुजरे गाए जाने के पहले नूरी व उस की खाला से मुसकराते हुए कहा था, “जब तक साजिंदे सुरताल मिला रहे हैं, तब तक इस खूबसूरत नाजनीन की खिदमत में रंगीन खयालों में डूबी हुई गजल के चंद शेर पेश करने की इजाजत चाहता हूं.”
महफिल में उपस्थित बेसब्र लोगों को पंडितजी के इस बेमौके की भैरवी अच्छी नहीं लगी. उन में से कुछ तो बोल ही पड़े थे,
“पंडितजी क्या झड़े में कूड़ा फैला रहे हो.”
कोई कह उठा था, “पंडितजी, नूरी के हुस्न की स्याही से अब दिल के कागज पर शायरी भी करने लगे हैं. वाह क्या बात है?’
लेकिन नूरी, जो समयसमय पर पंडितजी के द्वारा कहे गए शेरों के अंदाजेबयां से बाखूबी परिचित हो गई थी, ने बड़े ही शायराना अंदाज में पंडितजी से आग्रह किया, “पंडितजी, जरूर सुनाइए. महफिल की रौनक में चारचांद लग जाएंगे.”
नूरी की सहमति पर सारे आगंतुकों की जबान बंद हो गई. उन की नजरें फिर पंडितजी पर केंद्रित हो गईं. पंडितजी ने तब नूरी की तरफ देख कर बड़े ही नाजुक मिजाज में कहा, “हां, तो बेगम साहिबा, सुनिए. दिली जज्बात हैं. उम्मीद है, इन जज्बातों को आप की पसंदगी हासिल होगी.”
नूरी ने भी कहा, “इरशाद फरमाइए, पंडितजी. फरमाइए.”
पंडितजी ने तरन्नुम में गजल का मुखड़ा पेश किया, “ऐसी चली हवा कि गुलिस्तां महक गए, पी तो नहीं थी, फिर भी कदम बहक गए.”
नूरी सुनते ही खुश हो कर मुसकराते हुए बोली, “वाह क्या बात है?’
महफिल में भी फब्तियों के स्वर गूंज उठे, “पंडितजी, अपनी हकीकत पेश कर रहे हैं.”
नूरी का कोकिल कंठ चहक उठा, “हां पंडितजी. आगे शेर पढि़ए.”
कक्ष में सामूहिक आवाज गूंज उठी, “हां, जरूर, जरूर.”
पंडितजी ने आगे का शेर पढ़ा, “आने का जिन के था, मुद्ïदत से इंतजार, महफिल में जब वो आए तो शोले दहक गए.”
अब की बार इस शेर पर नूरी के विस्फारित नेत्र पंडितजी के मुख पर जा कर स्थिर हो गए. अपनी प्रशंसा की पराकाष्ठा सुन कर वाणी जैसे अवरुद्ध हो गई, लेकिन महफिल के सारे लोग इस शेर पर झूम उठे और उन के मुख से निकल पड़ा, “वाह पंडितजी, क्या बात है? हम सब लोगों के दिल की हकीकत ही बिलकुल पेश कर के रख दी है. मजा आ गया. हां, आगे कहिए.”