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लेखिका- दीपान्विता राय बनर्जी

‘‘फिरआज जातेजाते ढाई हजार का उधार ठोंक कर गई तुम्हारी पनौती बेटी पूर्बा.’’ किराना सामान रख कर बापदादा के समय के छोटी से डाइनिंगटेबल से लगी लकड़ी की कुरसी पर बैठते हुए आशुतोष बाबू ने रूमाल से अपने चेहरे का पसीना पोंछा. पूर्बा की मां बिना कुछ कहे घर के काम में जुटी रही.

एक तो उमस भरी गरमी की शुरुआत और यह कोल्हू की चक्की. 3-4 साल जो भी बचे हैं नौकरी के, क्लर्की में ही निकलेंगे वह तो पता है, लेकिन तब तक पसीने में तब्दील होता गाढ़ी कमाई का खून कितना बचा रहेगा सवाल यह है. वही सुबह वही जरा सा अखबार और ढेर सारी मनहूस खबरें. और फिर छूटते ही बड़ा सा बाजार का थैला, नून लाओ तो तेल खत्म, तेल लाओ तो आटा, दाल, प्याजआलू. जिंदगी के साथसाथ एडि़यां घिस गईं. लेकिन चप्पलें वही चलती ही जा रही हैं, वरना खुद के लिए एक बनियान नहीं खरीद पाता.

फटी बनियान वाले बगल को कमीज के नीचे दबा कर वर्षों चला लेते हैं यहां, अच्छी चप्पलों का शौक कहां से पालें. वह बीवी बेचारी अड़ोसपड़ोस की महिलाओं के लिए साड़ी में फौल, पिको सिलने का काम कर लेती है, घर की साफसफाई, रसोई आदि में छोटी बेटी दुर्बा अपनी 12वीं की पढ़ाई के साथ हाथ बंटाती है, तो बचत के फौर्मूले और छोटीछोटी कमाई के भरोसे क्लर्की के वेतन से घर की चक्की जैसेतैसे चल रही है. छोटा बेटा अंशुल अभी 10वीं से 11वीं में गया है और इस में अगर उस के 80% आए हैं तो यह आशुतोष बाबू की छोटी बेटी दुर्बा का ही हाथ माना जाएगा. ये तो जनाब बाल संवारने और कमीज बदलबदल कर आईने के सामने खड़े होने में ही आधी जिंदगी निकाल दें.

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