लेखक- नीरज कुमार मिश्रा
‘‘अरे बाबा, आजकल फसलों पर एक बड़ी मुसीबत आई है. सुना है कि 3-4 किलोमीटर लंबा एक टिड्डी दल किसी भी दिशा से आता है और लहलहाती फसलों पर बैठ कर कुछ ही समय में उन्हें चट कर जाता है. इन टिड्डियों के चलते किसानों में बड़ा डर फैला हुआ है. आजकल किसान खेतों में दिनरात पहरा दे रहे हैं,’’ केशव ने अपने बाबा त्रिकाली डोम से कहा.
‘‘हां… हो सकता है… पर इस खतरे से हमें न कल डर था और न आज ही कोई डर है,’’ केशव के बाबा आसमान में देखते हुए बोले. ‘‘हम तो भूमिविहीन ही पैदा हुए. और हमारे डोम समाज का काम चिता को सजाने से ले कर उसे पूरी तरह जलाने का था. इसलिए जमीन न होने के चलते फसल कभी उगाई नहीं और आज भी हमारे पास जमीन नहीं है, इसलिए टिड्डी दल का खतरा हो या न हो, हमें कोई असर नहीं पड़ता,’’ और फिर केशव का बाबा एक गाना गाने लगा था:
‘‘तिसना छूटी… माया छूटी, छूटी माटी, माटी रे… माटी का तन मिला माटी में… रह गई, माटी माटी… रे…’’ किसी जमाने में इस गांव में लाशें जलाने का काम करने वालों को डोमराजा कहा जाता था और वे समाज में अनदेखे रहते थे, पर धीरेधीरे जैसे इस गांव का विकास हुआ, वैसे ही इन लोगों की जिंदगी में भी सुधार हुआ. डोम लोगों की अगली पीढ़ी अब अपना पुश्तैनी काम न कर के पढ़ाई करना चाहती थी.
त्रिकाली डोम का पोता केशव भी शहर से पढ़ाईलिखाई कर के गांव में वापस आ गया था और उस ने गांव में ही कपड़े का कारोबार शुरू कर दिया था. केशव के अच्छे बरताव और मेहनत के चलते उस का काम भी चमक रहा था.
इस कसबे में एक तरफ ऊंची जाति के लोगों की बस्तियां थीं, तो दूसरी तरफ पिछड़ी जाति की. ऐसे तो ऊंचनीच के भेद को किसी भौगोलिक रेखा की जरूरत नहीं होती है, वह भेद तो हमेशा ही दोनों जातियों के मन में अपनी जगह बनाए रखता है. ऊंची जातियों में, ऊंचे होने का अहंकार रहता है, तो नीची जातियों में नीच कहलाए जाने का दर्द और एक अनजाना डर.
किसी जमाने में एक पिछड़ा गांव आज एक अच्छेखासे कसबे में तबदील हो गया था. इस गांव में मोबाइल और केबल टीवी से ले कर जरूरत की तकरीबन हर चीज मिलने लगी थी. पर यह गांव आज भी किसी जमाने में अपने ऊपर हुए जोरजुल्म की कहानी कहता है और यह बताता है कि जोरजुल्म की कोई जाति नहीं होती, माली तौर पर कमजोर किसी भी आदमी को सताया और दबाया जा सकता है, जिस का उदाहरण इसी गांव में रहने वाली 55 साल की एक औरत रूपाली देवी थी. वह जाति से ठाकुर थी, पर उस के पति से उस के देवर का जमीनी विवाद चला करता था. उस के पति ने कोर्टकचहरी कर के जमीन का कब्जा हासिल कर लिया था.
इस बात से गुस्साए देवर ने एक दिन दबंगों के साथ मिल कर रूपाली देवी का रेप कर डाला था. उस समय रूपाली देवी की उम्र महज 20 साल थी, अपने ऊपर हुए रेप की रिपोर्ट कराने गई रूपाली देवी की कोई भी सुनवाई नहीं हुई. उलटा उसे ही जलील हो कर थाने से बाहर निकाल दिया गया. इतने पर भी जब रूपाली देवी के देवर की सीने की आग ठंडी नहीं हुई. रेप के एक साल के अंदर ही रूपाली देवी ने एक चांद सी लड़की ‘मालती’ को जन्म दिया, तो उस बच्ची को रेप से पैदा हुई औलाद के रूप में भी खूब प्रचारित किया गया.
इस से दुखी हो कर रूपाली देवी और उस के पति ने कई बार गांव ही छोड़ देने और दूसरे गांव में जा बसने की योजना बनाई, पर जमीन से जुड़े होने के चलते और अपनी जमीन की सही कीमत न मिल पाने के चलते वे अपने मुंह को सी कर इसी गांव में रहते रहे.
मालती रेप के द्वारा पैदा हुई औलाद है, इस दुष्प्रचार का असर ये हुआ कि मालती से कोई भी लड़का शादी करने को राजी नहीं हो रहा था. यदि कहीं से रिश्ता बनता भी तो मालती की बदनामी पहले ही करा दी जाती. लिहाजा, यह रिश्ता टूट जाता और इसी तरह मालती की उम्र आज 35 साल की हो गई थी और वह अब भी कुंआरी थी.
मालती के घर में उस की मां, बाप और एक भाई थे. मालती ने अपनी बढ़ती उम्र के बीच खुद को बिजी रखने और रोजीरोटी के लिए खुद का काम करना शुरू कर दिया था. वह कसबे की दुकानों से कपड़ा खरीद कर उस पर बढि़या कढ़ाई करती और अपने भाई द्वारा उन्हें शहरों के बाजारों में बिकने भेज देती.
इस बार जब मालती कसबे के बाजार में कपड़ा खरीदने गई, तो अपनी दुकान पर बैठे केशव ने मालती को अच्छा ग्राहक जान कर उस से कहा, ‘‘कभी हमारी दुकान से भी कपड़ा खरीद कर देखो… क्वालिटी में सब से बेहतर ही पाएंगी.’’ ‘‘हां… पर, मैं तो यह काम चार पैसे कमाने के लिए करती हूं… अगर बाजार से कम कीमत लगाओ, तो मैं तुम से ही कपड़ा ले लिया करूंगी,’’ मालती ने कहा.
‘हां, तो फिर आओ… दुकान के अंदर आ आओ… एक से एक कपड़ा दिखाता हूं और वे भी सही कीमत के साथ, अगर पसंद आ जाए तो बता देना… घर तक पहुंचवा भी दूंगा,’’ केशव ने दुकान के अंदर आने का इशारा करते हुए कहा. मालती ने दुकान के अंदर जा कर अपनी पसंद के कपड़े लिए और अपने मुताबिक कीमत भी लगवाई.
‘‘एक बात कहूं… मैं तो सोचता था कि तुम ठकुराइन हो… मुझ डोम के यहां से कपड़ा खरीदने में गुरेज करोगी,’’ केशव ने मालती की आंखों में झांकते हुए कहा. ‘‘ये जातपांत वे मानें… जिन्हें वोट लेना हो… मैं ये ऊंचनीच, भेदभाव में यकीन नहीं रखती… और यह सब सोचने का मेरे पास टाइम भी नहीं है और न ही मेरी समझ,’’ यह कह कर मालती दुकान से बाहर निकल गई.
‘‘और… हां, वे पैसे मैं छोटे भाई से भिजवा दूंगी,’’ मालती ने कहा, जिस के बदले में केशव सिर्फ मुसकरा दिया. ‘‘कसबे की बाकी दुकानों से कपड़ा भी अच्छा है और दाम भी ठीक लगाए हैं केशव ने, अगली बार भी इसी के यहां से कपड़ा लूंगी,’’ केशव की दुकान से आए हुए कपड़े पर कढ़ाई करते हुए मालती मन ही मन बुदबुदा उठी थी.