वह उतर गई, तो मुझ से बोला, ‘‘अब बताइए, आप को कहां छोड़ूं?’’
‘‘मैं चली जाऊंगी. पास ही है मेरा घर,’’ कह मैं ने पर्स निकाला.
‘‘रहने दीजिए. आप लोगों से क्या किराया लेना?’’ वह बोला.
‘‘क्या मैं इस दरियादिली की वजह जान सकती हूं?’’
‘‘आप वसुधाजी की सहेली हैं, तो जाहिर है मेरे लिए भी खास हैं... खैर, मैं चलता हूं,’’ और वह चला गया.
‘इस आटो वाले को वसुधा में इतनी दिलचस्पी क्यों? कहीं दोनों पुराने प्रेमी तो नहीं?’ मैं सोच में पड़ गई.
अगले दिन जब मैं ने वसुधा से इस संदर्भ में बात की तो उस ने बताया, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है. हां, कुछ दिनों से वह मेरे पीछे जरूर पड़ा है, पर कभी गलत हरकत नहीं की.’’
‘‘क्या तू भी उसे मन ही मन पसंद करती है?’’ मैं ने पूछा.
‘‘मेरा और उस का क्या मेल? वह एक तो आटो वाला, ऊपर से न जाने किस जाति का है... हम लोग कुलीनवर्ग के हैं. मैं अपाहिज हूं, तो इस का मतलब यह तो नहीं कि कोई भी मुझे अपने लायक समझने लगे.’’
मैं बोली, ‘‘ये छोटे लोग तो बस ऐसे ही होते हैं.’’
अगले दिन जानबूझ कर हम दूसरे रास्ते से निकले पर उस आटो वाले ने हमें ढूंढ़ ही लिया और आटो बगल में रोक कर बोला, ‘‘चलिए.’’
‘‘नहीं जाना,’’ हम ने रुखाई से कहा.
‘‘गरीब हूं, पर बेईमान नहीं. वसुधाजी ज्यादा चल नहीं सकतीं, मैं आटो ले आता हूं, तो इस में बुरा क्या है?’’
मैं ने वसुधा की तरफ देखा तो वह भी पसीज गई. हम दोनों एक बार फिर आटो में खामोश बैठे थे. सच, कभीकभी जिंदगी कितनी अजनबी लगती है. कौन किस तरह और कब हमारे जीवन से जुड़ जाए, कुछ पता नहीं.