नाकामियों को अपनी संवारते ही रहे हम
खंडहरों में जिंदगी तलाशते ही रहे हम
उठते रहे हैं अकसर तूफां बीती यादों के
सुबहशाम यादों को बुहारते ही रहे हम
न की परवा किसी ने रत्तीभर भी हमारी
मारे दर्द के दिनरात कराहते ही रहे हम
अपनी मदद को कोई इक बार भी न आया
पुकारने को तो सब को पुकारते ही रहे हम
जब वक्त पड़ा हम पर, सब मुंह मोड़ बैठे
रिश्तों की पोटली को संभालते ही रहे हम.
- हरीश कुमार ‘अमित’
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