दर्द की तपती दोपहरी का

मरुस्थली रेतीला पहाड़

मुझ से अब नहीं चढ़ा जाता

यहां कोई जीवित पेड़ नहीं है

और मैं भी एक ठूंठ बन गई हूं

मुझ से खड़ा रहने को मत कहो

मैं थक गई हूं

रिक्तता के अंधकार का बीहड़

मुझ से अब नहीं चला जाता

यहां सब शून्य ही शून्य हो गया है

मैं भी बुझी हुई रोशनी रह गई हूं

मुझ से जलने को मत कहो

मैं थक गई हूं

अपार पारापार आस्था का

ये ऊंचानीचा समुद्र

मुझ से नहीं तरा जाता

यहां सब ब्रह्म ही ब्रह्म हो गए हैं

मैं भी शून्य बन गई हूं

मुझ से पूजने को मत कहो

मैं थक गई हूं.

– डा. लक्ष्मी शर्मा

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