दर्द की तपती दोपहरी का
मरुस्थली रेतीला पहाड़
मुझ से अब नहीं चढ़ा जाता
यहां कोई जीवित पेड़ नहीं है
और मैं भी एक ठूंठ बन गई हूं
मुझ से खड़ा रहने को मत कहो
मैं थक गई हूं
रिक्तता के अंधकार का बीहड़
मुझ से अब नहीं चला जाता
यहां सब शून्य ही शून्य हो गया है
मैं भी बुझी हुई रोशनी रह गई हूं
मुझ से जलने को मत कहो
मैं थक गई हूं
अपार पारापार आस्था का
ये ऊंचानीचा समुद्र
मुझ से नहीं तरा जाता
यहां सब ब्रह्म ही ब्रह्म हो गए हैं
मैं भी शून्य बन गई हूं
मुझ से पूजने को मत कहो
मैं थक गई हूं.
- डा. लक्ष्मी शर्मा
आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें
डिजिटल
(1 साल)
USD48USD10
सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन
(1 साल)
USD100USD79
सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
- 24 प्रिंट मैगजीन
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...
सरिता से और





