आज फिर
चांद शबाब पर है
भीगेगी रात और
रुसवा होगी
महकेंगे इश्क में तारे
खुशबुओं से
शमा खफा होगी
आज फिर
घटाएं करेंगी अठखेलियां
महबूब चांद संग
बिखरेंगे रात के आंचल पर
चांदी से रंग
चांदनी किसी के
जलाएगी अंग
आज फिर
सदी से लंबी गुजरेगी रात
सीलासीला हुआ
दिल का मौसम
होगी दर्द की बरसात
फैलेगी आंखों से नीर
यहां वहां
अक्स झलकेगा
उस में भी इश्क का
चांद को सताए बिना
चैन कहां.
– पारुल ‘पंखुरी’
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