जब नजरें मिलीं तो तुम ने नजरों को फेरा
पर रहरह, फिरफिर और रुकरुक कर देखा
चेहरे पे अनजाने से थे भाव
तुम ने लाख छिपाए भाव
मगर नजरों में तो बात वही थी
महफिल में अनजाना सा था व्यवहार
तुम्हारी बातों में मेरा जिक्र न आया
तुम चेहरे पर भी कोई शिकन न लाए
पर जिन गजलों को छेड़ा तुम ने
लफ्जों में तो बात वही थी
वही राहें थीं जानी और पहचानी
जिन राहों पे कभी की थी हम ने मनमानी
तुम्हारा हर मोड़ पर रुकना और ठहरना
फिर बोझिलता के साथ कदम बढ़ाना
बुझाबुझा सा एहसास वही था
तुम्हारा यों नजरें फेरना माना जायज
तुम्हारे लफ्ज बेगाने थे यह भी माना जायज
राह बदलना, चलो वो भी सब जायज
मगर यह झूठ न बोलो साथी
तुम को मुझ से प्यार नहीं था
तुम ने नजरें जब फेरी थीं आंसू थे उन में
लफ्ज भी तुम्हारे थे दर्दभरे और सहमे
राहें जब बदलीं तब रुकरुक कर देख
यह सच तुम न छिपा सके थे
तुम को मुझ से प्यार बहुत था.
- जयश्री वर्मा
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