लेखक- सुजय कुमार

इंसान अपनी फितरत बदल नहीं सकता, चाहे वह अच्छी हो या बुरी. शंकर बेचारा करता भी क्या, उस का दिल दूसरों का दुखदर्द देख नहीं सकता था, इसीलिए उसे अपनी इस भलमनसाहत का खमियाजा भुगतना पड़ा. मूसलाधार बरसात के साथसाथ सायंसायं करती तूफानी हवाएं भी थीं. ऐसे मौसम में औफिस का काम कैसे होता? 2 बजे ही सभी कर्मचारी निकल पड़े. केवल एक नवविवाहित रह गई थी, वह भी इसलिए कि उस का पति दूसरे औफिस में काम करता था. उस से संपर्क साधने की कोशिश घंटेभर से जारी थी. चपरासी बारबार खिड़की से बाहर झांकता और हर बार मायूसी की खबर उस महिला को सुनाता. अब नवविवाहिता की घबराहट और चिंता पहले से भी अधिक बढ़ गई थी, क्योंकि वह बारबार कांच के दरवाजे से बाहर का दृश्य देख रही थी.

नवविवाहिता के चेहरे से भय साफ झलक रहा था. तभी फोन की घंटी बज उठी, दौड़ कर उस ने रिसीवर उठाया. ‘‘तुम वहीं रहो, मैं लेने आऊंगा,’’ पति की आवाज सुन कर उसे ढाढ़स बंधा और चेहरे पर संतोष झलकने लगा. शंकर को भी तसल्ली महसूस हुई. 2 घंटे से बैठा वह उस की परेशानी को बारीकी से देख रहा था. ‘मुझे इस के बारे में अब चिंता करने की जरूरत नहीं है,’ उस ने सोचा, ‘मैं अब आराम से घर जा सकूंगा. पता नहीं वहां क्या हाल है?’ सब 2 बजे चले गए. सब तो खुदगर्ज हैं, पर वह तो ऐसा नहीं है. आखिर इंसानियत भी कोई चीज है. एक महिला को इस स्थिति में छोड़ कर वह भला कैसे जाता? इस में शक नहीं, वह न भी जाता तो औफिस का कोई और जानने वाला उसे घर पहुंचाने की जिम्मेदारी ले लेता, लेकिन शंकर की आदत... उस का दिल कैसे मानता? दोबारा उसे सहीसलामत देखने तक यही चिंता घेरे रहती कि वह घर पहुंची है या नहीं. इस से बेहतर खुद रुक जाना ही है, यही सोच कर उस ने इस जिम्मेदारी को सहर्ष स्वीकारा था. एक हाथ में टिफिन, दूसरे में छतरी लिए वह आगे बढ़ा. दरवाजा खोलते ही तेज तूफानी हवा का झोंका आया और उस के मुंह से सिसकी निकल गई. वह बोलनेसुनने की स्थिति में नहीं था.

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