नई दिल्ली से नौर्वे की राजधानी ओस्लो की फ्लाइट कुल 14 घंटों की थी जिस में से फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी में 4 घंटों का स्टौपेज भी शामिल है. दरअसल, दिल्ली से ओस्लो की कोई सीधी फ्लाइट नहीं है. या तो डेनमार्क हो कर या फिर फिनलैंड हो कर जाना होता है. दिल्ली से 8 घंटे की फ्लाइट हेलसिंकी की, वहां 4 घंटों का स्टौपेज. फिर हेलसिंकी से ओस्लो की 2 घंटे की उड़ान.
यात्रा अच्छी रही. यह मेरी पहली विदेश यात्रा थी पर कोई परेशानी नहीं हुई. पहले थोड़ा डर जरूर लग रहा था. पत्नी भी साथ थी. बेटे ने पहले ही बता दिया था कि इंग्लिश से काम चल जाएगा हेलसिंकी में भी और ओस्लो में भी. देश के अंदर मैं पहले भी कई बार हवाई यात्रा कर चुका था, इसलिए हवाई यात्रा से कोई भय नहीं था. पर विदेश यात्रा हेतु विभिन्न कार्यवाहियां, मसलन इमिग्रेशन व कस्टम आदि की कोई जानकारी नहीं थी. लेकिन कोई परेशानी नहीं हुई. टिकट पर ही एयरलाइंस का नाम व टिकट नंबर लिखा हुआ था. दिल्ली का आईजीआई एयरपोर्ट भव्य व अद्भुत है. सामने लगे बोर्ड पर ही एयरलाइंस व फ्लाइट का नंबर लिखा हुआ था. हम एफ काउंटर पर आ गए व वहां बैठी लड़की ने हमारा बोर्डिंग पास बना दिया. दोनों बड़ी अटैचियां लगेज में ले ली गईं व इमिग्रेशन और कस्टम काउंटर भी बता दिया गया. वहां हमें एक छोटा सा फौर्म भरना पड़ा. काउंटर पर बैठे पुलिस अधिकारी ने मात्र एक प्रश्न पूछा, ‘‘आप ओस्लो क्यों जा रहे हैं?’’
‘‘वहां हमारा बेटा है. हम उस से मिलने जा रहे हैं,’’ मैं ने कहा. उस ने तुरंत हमारे पासपोर्ट पर मुहर लगा दी व हमें अंदर जाने को कहा. सिक्योरिटी चैक पार कर के हाथ में अपना छोटा बैग लिए टिकट पर लिखे अनुसार हम अपने बोर्डिंग गेट पर जा पहुंचे. शीघ्र बोर्डिंग प्रारंभ हो गई व हम जहाज पर जा बैठे.
जहाज के उड़ने की घोषणा इंग्लिश व एक अन्य भाषा, जिसे हम बिलकुल भी न समझ पाए व मजे की बात कि हिंदी में भी हुई. उस के बाद जहाज उड़ चला. करीब 15 मिनट के बाद स्नैक्स व पेय सर्व किए गए. फिर हम सीट पर लगी स्क्रीन पर ही फिल्म देखने लगे. एकडेढ़ घंटे बाद खाना लगाया जाना शुरू हुआ. मेरी पत्नी आशा व मैं ने शाकाहारी भोजन लिया. खाने के बाद हम ने एक नींद ले ली.
मेरी जब नींद खुली तो फिर स्नैक्स सर्व किए जा रहे थे. मैं ने घड़ी देखी. हेलसिंकी आने में अब 2 घंटे ही रह गए थे. हम स्क्रीन पर हेलसिंकी आने की प्रक्रिया देखने लगे. जल्दी ही हेलसिंकी एयरपोर्ट आने की घोषणा होने लगी. जहाज हेलसिंकी पर उतर गया. जहाज से उतर कर हम बस में बैठ गए व अराइवल गेट से अंदर आ गए. यहां भी लाइन लगी थी. जब हमारा नंबर आया तो काउंटर पर बैठे हट्टेकट्टे, लंबेचौड़े विदेशी की ओर हम ने अपने अपना पासपोर्ट व टिकट बढ़ा दिए. उस ने कंप्यूटर पर चैक कर हम से विदेशी भाषा में कुछ कहा. मेरी समझ में कुछ आने का सवाल ही नहीं था. मैं मूर्खों की तरह उसे देखता रहा. फिर धीरेधीरे बोला, ‘‘विल यू स्पीक इन इंग्लिश प्लीज.’’
विदेशी मुसकरा पड़ा, फिर इंग्लिश में कुछ बोला जिस में मुझे सिर्फ 2 शब्द समझ में आए. ‘‘योर व फिन.’’
‘‘प्लीज स्पीक स्लोली ऐंड क्लियरली,’’ मैं ने उन से रिक्वैस्ट की.
‘‘योर फिन एयरलाइंस हैल्प काउंटर इज ऐट नंबर थ्री,’’ उस ने धीरेधीरे कहा.
हम आगे बढ़ गए. तीर के निशान से काउंटर नंबर दर्शाए गए थे. हम 3 नंबर काउंटर पर पहुंच गए. काउंटर पर बैठी बेहद सुंदर व स्मार्ट लड़की ने हमारा टिकट देख कर हेलसिंकी से ओस्लो का पास बना दिया.
‘‘योर गेट नंबर इज ट्वैंटी सेवन. मूव राइट,’’ उस ने कहा. हम ने उसे धन्यवाद दिया व आगे बढ़े. हमारे गेट पर बोर्डिंग प्रारंभ थी. हम ने पास दिखाया व बस से होते हुए जहाज पर सवार हो गए. जहाज उड़ा व ठीक 2 घंटे बाद ओस्लो में उतर गया. जहाज में ही घोषणा कर के बता दिया गया था कि हमारा सामान बैल्ट संख्या 12 पर आएगा.
अराइवल गेट से अंदर आते ही सामने लगेज का इंडिकेटर दिखा. उसी के सहारे हम बैल्ट तक पहुंच गए. एकएक कर के सामान आ रहे थे. जैसे ही हमारी अटैचियां आईं, हम ने उन्हें उठा कर ट्रौली में डाल लिया. सामने एक्जिट का तीर था जिस के सहारे चलते हुए हम एक्जिट गेट तक पहुंच गए.
शीशे के विशाल एक्जिट गेट के बाहर लोहे की रेलिंग के पास हमें अपना बेटा अभिषेक खड़ा दिखाई दे गया जिस ने हमें देख लिया था व जोरजोर से हाथ हिला रहा था.
गे?ट से बाहर आते ही अभिषेक हम से लिपट गया. उस की आंखें भर आईं. 2 वर्षों बाद अपने बेटे को देख कर आशा भी अपनेआप को न रोक सकी. उस की आंखों से अविरल आंसू बहने लगे, पर मैं अपने पर नियंत्रण बनाए रहा. अभिषेक ने अपनी मां को जोर से अपनी बांहों में भर लिया.
‘कैसे हो बेटा, सब लोग कैसे हैं?’’ मैं ने कहा.
‘‘सब लोग एकदम ठीक हैं, आप का इंतजार कर रहे हैं. आप की यात्रा कैसी रही?’’
‘‘यात्रा अच्छी रही, बेटा. कहीं कोई परेशानी नहीं हुई.’’
‘‘मुझे चिंता लग रही थी. मुझे लगा हेलसिंकी में कोई असुविधा न हो. बहरहाल, आइए इधर से आ जाइए, हम बस से चलेंगे.’’
अभिषेक आगेआगे चला व हम पीछेपीछे चले. थोड़ी सी दूर एयरपोर्ट पर ही बस का टर्मिनल था. अभिषेक ने कार्ल स्टफ इलाके में मकान लिया था, यह मुझे मालूम था. यहां ठंड काफी ज्यादा थी. मैं ने यहां की ठंड में गलन काफी अधिक महसूस की. काटती हवा बड़ी तेज चल रही थी. मैं ने व आशा ने एयरपोर्ट पर ही जैकेट, टोपी व मफलर पहन लिए थे.
तभी 1 नंबर की बस आ गई. यह अभिषेक के इलाके में जाती थी. अभिषेक ने चालक को इशारा किया व उस ने बटन दबा कर बस की साइड का एक दरवाजा खोल दिया. उस के अंदर सामान रखने की जगह थी. आश्चर्य तो तब हुआ जब चालक उतर कर नीचे आया व उसी ने दोनों बड़ी अटैचियां उठा कर अंदर रखीं व फिर अपनी सीट पर जा बैठा. हम हाथ में छोटा बैग ले कर सीट पर बैठ गए. अभिषेक टिकट बनवाने लगा. चालक ने ही टिकट बनाया. फिर अभिषेक आ कर हमारे पास बैठ गया.
‘‘यह चालक तो बड़ा शरीफ है, बेटा. हमारा सामान भी उठा कर रखा,’’ मैं ने कहा.
‘‘यह तो उस की ड्यूटी है, पापा. यहां यही चलन है.’’
‘‘कोई कंडक्टर नहीं है?’’
‘‘यहां कंडक्टर नहीं होता. चालक ही टिकट देता है.’’
‘‘यानी चालक ही कंडक्टर है और वही क्लीनर भी है?’’
अभिषेक हंस पड़ा, ‘‘कह सकते हैं. यहां चालक के रूप में ज्यादातर पोलिश लोग हैं. वे यहां शरणार्थी हैं.’’
बस काफी रफ्तार से जा रही थी. ओस्लो शहर से एयरपोर्ट करीब 15 किलोमीटर दूर है. यह हाईवे था. बड़ीबड़ी गाडि़यां व ट्रक वगैरह काफी चौड़ी व साफसुथरी सड़क पर कम से कम डेढ़ सौ किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से चल रहे थे. चारों ओर का दृश्य बड़ा ही सुंदर था. सड़क के दोनों ओर लंबेलंबे, हरेभरे मैदान थे जिन के पार ऊंची पहाडि़यां दिखाई दे रही थीं. बड़ेबड़े मैदानों की घास बड़े करीने से कटी हुई थी जिस से वे बड़ेबड़े लौन जैसे लग रहे थे.
आगे पढ़ें- ‘‘क्या यहां ओस्लो में काफी भारतीय हैं?’’