लेखिका – अनुपमा श्रीवास्तव 

ट्रिनट्रिन, ट्रिनट्रिन… ‘‘हैलो 343549, तुहिन स्पीकिंग…’’ ‘‘आहा, तो आप ही हैं. मुझे यकीन था, फोन आप ही उठाएंगे.’’ ‘‘तुम फिर…’’ ‘‘हां, मैं फिर. क्या आप को मेरी आवाज पसंद नहीं है?’’ ‘‘देखो…’’ ‘‘क्या देखूं? मिस्टर स्मार्ट, सितम तो यही है कि फोन में कुछ दिखाई नहीं देता, सिर्फ और सिर्फ सुनाई देता है.’’ ‘‘देखो, तुम जो भी हो, मुझे क्यों परेशान करती हो? तुम्हारे घर वाले…अगर उन्हें खबर हो गई तो?’’ ‘‘खबर होती है तो हो जाए. मैं किसी से नहीं डरती. मेरे पापा यहां रहते नहीं, आर्मी में हैं और अम्मी को समाज सेवा से फुरसत नहीं. अकेली औलाद हूं जनाब, सरआंखों पर बिठाया जाता है मुझे. हर जिद पूरी की जाती है मेरी.

‘‘पापा ने टेलीफोन का एक कनेक्शन अलग से सिर्फ मेरे लिए लगवाया है ताकि मैं जब चाहूं उन से बात कर सकूं. पापा हर रात फोन करते हैं. मेरी पढ़ाई का हाल पूछते हैं, तबीयत का हाल पूछते हैं, ढेर सारी हिदायतें देते हैं, बहुत फिक्र करते हैं मेरी. वह यही चाहते हैं कि मैं खुश रहूं, हमेशा…अच्छा, यह सब छोडि़ए. कुछ अपने बारे में बताइए. क्या आप भी मेरी ही तरह इकलौते हैं? कौन से कालिज में पढ़…उफ, फिर काट दिया.

लानत…’’ ट्रिनट्रिन… अगले दिन फिर फोन की घंटी बजती है. दूसरी तरफ से फोन उठाए जाने पर आवाज आती है, ‘‘जनाब को मेरा सलाम, लेकिन सुनिए, आप को आप के घर वालों की कसम, आइंदा अगर मेरा फोन काटा तो.’’ ‘‘देखो…’’ ‘‘क्या देखूं? कल से कितनी बार यह नंबर डायल किया. कभी कोई उठाता है, कभी कोई. मेरी हालत पर जरा भी तरस नहीं आता आप को? अकेली हूं मैं. दोस्ती करना चाहती हूं आप से. फोन से निकल कर काट नहीं खाऊंगी आप को…’’ फोन से दूसरी तरफ जोरदार ठहाके की आवाज आती है.

‘‘अच्छा, तो आप हंस भी लेते हैं. क्या कविता का भी शौक रखते हैं? वह कविता पढ़ी है आप ने, ‘तुम नहीं तुम्हारी आवाज खींचती है मुझे तुम तक…’ उफ, दिल के अनकहे जज्बातों को लफ्जों की नाजुक डोर में इस कदर इतनी खूबसूरती से कैसे पिरो सकता है कोई?’’ ‘‘पगली हो तुम.’’ ‘‘हां, आप की पगली…’’ ‘‘तुम मेरे बारे में जानती ही क्या हो?’’ ‘‘कुछ जानने की जरूरत भी क्या है? क्या इतना ही काफी नहीं तुहिन कि मैं आप से बेइंतहा…’’ ‘‘पागल मत बनो लड़की. मैं तुम्हें समझा रहा हूं. तुम्हारी उम्र पढ़नेलिखने की है और मैं तुम से बहुत बड़ा हूं. शायद तुम से दोगुनी उम्र का. ’’ ‘‘झूठ…सरासर झूठ… एकदम झूठ.’’

‘‘झूठ नहीं, बिलकुल सच, एक बेटी भी है मेरी. तृषा, तीसरी कक्षा में पढ़ती है.’’ ‘‘फिर झूठ. देखिए, आप चाहे जितनी कोशिश कर लें, मैं आप के इस झूठ में कतई नहीं आने वाली. हां, ठीक है कि मैं ने बहुत लोगों से बात नहीं की, लेकिन आवाज से उम्र का अंदाजा तो लगा ही सकती हूं न.’’ ‘‘देखो, अगर तुम इस तरह की बातें करोगी तो मैं फोन काट दूंगा.’’ ट्रिनट्रिन… ‘‘हैलो, इट इज 343549.’’ ‘‘आह, लगता है आज तकदीर मेहरबान है इस नाचीज पर. आज पेपर भी अच्छा हुआ और फोन मिलाया तो पहली ही बार में आप ही ने उठा लिया. कहिए, कैसे हैं आप?’’ प्रत्युत्तर में एक खामोशी. ‘‘नहीं बोलेंगे? चलिए मैं ही बोलती हूं. आप अच्छे हैं. बहुत अच्छे. बेहद जहीन और नेकनीयत इनसान हैं आप.

यकीन मानिए, मैं ने कभी नहीं सोचा था कि फोन डायरेक्टरी से उलटेसीधे नंबर मिलातेमिलाते मेरी मुलाकात आप जैसे शख्स से हो जाएगी. चुप क्यों हैं आप? क्या कोई है वहां पर…’’ ‘‘नहीं…’’ ‘‘तो आप कुछ बोलते क्यों नहीं? कुछ कहिए न. अगर मेरी यह जादू की पुडि़या आप के पास भी होती तो आप भी पटपट बोलने लगते.’’ ‘‘जादू की पुडि़या? कौन सी जादू की पुडि़या?’’ ‘‘उफ, तुहिन छोडि़ए उसे. और कुछ कहिए न. प्लीज, कुछ भी.’’ ‘‘जो कहूंगा मानोगी तुम?’’ ‘‘हां, पक्का.’’ ‘‘तो मुझे फोन करना छोड़ दो. मैं अपनी और तुम्हारी भलाई के लिए कह रहा हूं.’’ ‘‘इसे आप भलाई कहते हैं, इस से अच्छा होता कि आप मुझ से छत से कूद जाने के लिए कहते.

आप नहीं जानते, मैं आप से बात किए बिना, आप की आवाज सुने बिना जी नहीं सकती. जब आप बोलते हैं तो मेरे कानों में जैसे जलतरंग बज उठती है और मैं डूबती चली जाती हूं आप की आवाज की कशिश में. आप का एकएक लफ्ज…उफ, क्या कहूं? कभी सूरज की तपिश सा, कभी शाम की कशिश सा. कभी दिन की हलचल सा, तो कभी रात की गहरी खामोशी सा. जाने कितनेकितने रंग भरे होते हैं आप के एकएक लफ्ज में, शायद आप समझते होंगे. यह सब क्या होता है? क्यों होता है… ‘‘तुहिन, आप जानते हैं, जब मैं अकेली होती हूं…एकदम तनहा. तभी दूर टिमटिमाती शमा सी आप की आवाज मेरे अंधेरे दिल के करीब आ बैठती है. मेरा हाथ थाम लेती है. आह, आप की आवाज…कभी खिड़की पर झूलती बोगनवेलिया के सफेद गुच्छों में सिमटती जाती है और कभी रात की गहरी स्याही से ढके आकाश की बांहों में झूलते उस उजले चांद सी धीमेधीमे पास बुलाती है. लेकिन खयाल, सिर्फ खयाल… और जब ये खयाल टूटता है तो मेरी तनहाई की हकीकत और भी खौफनाक हो जाती है. उस समय मेरी उंगलियां खुद ब खुद फोन पर दौड़ने लगती हैं.

‘‘आप सुन रहे हैं न…शायद आप सुनना नहीं चाहते. मेरी बातों का कोई मतलब भी नहीं आप के लिए. मैं आगे कुछ भी नहीं कहूंगी. लेकिन एक बात जरूर सोचिएगा. आप के पास सबकुछ हो, आलीशान मकान, नौकर- चाकर, हर तरह की लग्जरी…लेकिन ये बेजान चीजें क्या उस वक्त आप के कंधे पर हाथ रख कर आप के साथ होने का दिलासा दे सकती हैं, जब अकेलेपन से टूट कर आप का दिल आंखों के रास्ते पिघलपिघल कर बह जाना चाहता हो…’’ ‘‘तुम मुझे गलत समझ रही हो. पत्थर दिल नहीं हूं मैं. तुम्हारे जज्बात समझ सकता हूं. अच्छा, नाम बताओगी अपना?’’ ‘‘जी, गुलमोहर.’’ ‘‘गुलमोहर. ओह, कितना सुंदर नाम है. अपने नाम का मतलब बता सकती हो तुम…सूरज की गरमी से जब हरेक शाख झुलस रही होती है. उस वक्त अपने चटख रंग और मदमाते रूप का जादू बिखेरता आसमान की ओर शान से देखता मुसकरा रहा होता है गुलमोहर. दुष्यंत कुमार की गजल सुनी है, ‘जिए तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले, मरे तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए…’’’

‘‘मेरी रूह कांप रही है तुहिन, क्या कहूं आप से? मेरे नाम का मतलब वाकई इतना खूबसूरत होता है…या आप ने उसे इतना खूबसूरत बना दिया है? तुहिन, कुछ और कहिए न.’’ ‘‘कुछ कहूं…सुनोगी तुम? गुलमोहर, मैं चाहता हूं कि तुम सचमुच गुलमोहर बनो…इनसान वह है जो हालात से लड़ना जानता है, जो अंधेरों को रोशनी बनाना जानता है. भटको मत गुलमोहर. हौसला रखो, अपनी मंजिल को देखो.’’ ‘‘अपनी मंजिल को ही तो देख रही हूं तुहिन. मेरी मंजिल, आप के 3 लफ्ज…’’ ‘‘पागल हो तुम. जस्ट इंपौसिबिल…’’ ट्रिनट्रिन… ‘‘हैलो, इज देयर तुहिन? उफ, फिर वही किलिंग सायलेंस…बट नो प्राब्लम. आप भले ही खामोश रहें लेकिन मैं ने कहा न कि मैं आप की खामोशी भी सुन सकती हूं. आज इतनी सुबहसुबह आप को डिस्टर्ब कर रही हूं. क्या करूं, रातभर नींद ही नहीं आई.

जाने क्याक्या सोचती रही. क्याक्या बुनती रही तुहिन, कल आप ने जो कुछ कहा उन बेशकीमती लफ्जों को मैं दिल में हमेशा महफूज रखूंगी. उस के बदले मैं क्या दूं आप को? कुछ कहना चाहती हूं, सुनेंगे आप? ‘‘कल रात तनहाई में उभरा एक खयाल. खयालों में …कोई एक ताबिंदा पेशानी, कुछ घनेरी अलकें दो पलकें दो होंठ और एक चेहरा कल…खयालों में. न कोई सिलवट न शिकन न कोई एहसास न चुभन, बस… थोड़ी हया, थोड़ा गुमान और एक चेहरा. कल…खयालों में. बहुत देर तक बहुत दूर तक खयाल, बुनते रहे यादों का दरीचा… खामोश सुनते रहे, आवाज, अपने ही गुमान की… फिर… बाकी न रहा कुछ, न वो. न मैं. रह गई तनहाई. …बस तनहाई. इस से ज्यादा कुछ नहीं कहूंगी तुहिन. अब सिर्फ इंतजार करूंगी, रखती हूं.’’ ट्रिन, ट्रिनऽऽऽ. ‘‘हैलो? तुहिन, मैं तृप्ति.’’ ‘‘तृप्ति, इस समय…’’ ‘‘मुझे कुछ बात करनी है आप से. कुछ कहना है.’’ ‘‘उफ, बातें घर पर भी हो सकती हैं तृप्ति. आराम से.’’ ‘‘नहीं तुहिन. मुझ में इतनी हिम्मत नहीं कि आप की नजरों में देखते हुए आप से यह प्रश्न कर सकूं. डरती हूं, अगर उन में मुझे वह दिख गया जो मैं देखना नहीं चाहती तो मैं मर जाऊंगी तुहिन. मुझे गलत मत समझना. मैं आप पर पूरा भरोसा करती हूं, अपने से भी ज्यादा. लेकिन वह फोन… काश, मैं ने फोन न सुना होता.

मैं कुछ नहीं पूछूंगी, वह कौन है? कैसी है? आप उसे कैसे और कब से जानते हैं? लेकिन तुहिन, मुझे सिर्फ इतना बता दीजिए. अगर कुछ है. थोड़ा सा भी, तो विश्वास कीजिए आप की खुशी के लिए मैं आप से…’’ ‘‘तुम रो रही हो तृप्ति? क्या तुम्हें वाकई लगता है कि मैं…मेरी बात सुनो तृप्ति. मैं ने कई बार तुम से कहना चाहा, तुम्हें बताना चाहा, लेकिन हर बार एक डर ने मुझे रोक दिया. पता नहीं तुम इस सब का क्या मतलब निकालतीं? कहीं मैं तुम्हें खो न दूं इसलिए मैं भीतर ही भीतर घुटता रहा. मैं उसे ठीक से जानता तक नहीं तृप्ति. न कभी उसे मिला, न देखा. हां, नाम जरूर जानता हूं उस का, गुलमोहर. अमीर मांबाप की इकलौती औलाद है.

पता नहीं उसे हमारा नंबर कहां से मिल गया? शायद डायरेक्टरी से. यही बताया था उस ने. वह पागल लड़की है तृप्ति. एकदम भावुक और भावुक भी नहीं, मूर्ख, ए सेंटीमेंटल फूल. ‘‘वह यही समझती है कि मैं कोई टीनएजर हूं. उसी की उम्र का. कालिज में पढ़ने वाला. मैं ने उसे साफसाफ बताया. बहुत समझाया. डांटा भी. लेकिन वह समझना ही नहीं चाहती. फोन पर जाने क्याक्या कहती है. फोन काटता हूं तो कसम दे कर रोक देती है. ‘‘तृप्ति, जब से यह फोन का सिलसिला शुरू हुआ है, मैं अपराधबोध से घुटता रहा हूं. कहीं न कहीं मैं गलत तो कर ही रहा हूं. तुम्हारे अतिविश्वास के साथ भी और उस के साथ भी. मैं तुम्हें कोई सफाई नहीं दे रहा हूं. तुम्हारे विश्वास के बल पर केवल अपना सच कहा है मैं ने, अब तुम खुद फैसला करो कि तुम्हें क्या करना है? क्या समझना है…’’ ‘‘तुहिन, समझ में नहीं आता. क्या कहूं. कैसे कहूं.

ओस की बूंदों के नीचे दबे किसी पत्ते को देखा है आप ने? किसी फूल की नाजुक पंखड़ी को जब तुहिन बिंदु आच्छादित कर लेते हैं तो उन के नीचे उन का अपना आकार और रूप अस्पष्ट सा हो जाता है. लेकिन तुहिन, बिंदु चाहे फूल पर आ कर ठहरें या घास पर, उन का अपना रूप, अपना आकार हमेशा उतना ही स्पष्ट और पारदर्शी रहता है…’’ ‘‘मैं यह कैसे भूल गई तुहिन कि आप भी तुहिन हो. अपने अस्तित्व से औरों को प्रभावित करने वाले. आप कोई भूल कर ही नहीं सकते तुहिन. आप की पारदर्शिता को कोई छू ही नहीं सकता. मुझे माफ करोगे तुहिन? क्योंकि कहीं न कहीं मैं भी वही हूं. उसी के जैसी पागल और भावुक. ए सेंटीमेंटल फूल.’’ ‘‘तृप्ति…’’ ‘‘कुछ मत कहिए तुहिन. मैं समझ सकती हूं आप को भी, उस को भी. मैं ने मनोविज्ञान पढ़ा है तुहिन. इस उम्र के नाजुक मोड़ों पर आत्मीयता की खास जरूरत होती है. एक आवेग होता है इस उम्र में. एक भावनात्मक उतारचढ़ाव. मार्गदर्शन की, संतुलन की, स्नेह की और सहारे की सब से ज्यादा जरूरत होती है इस उम्र को. शायद इसी के अभाव में वह भटक रही है, वह गलत राह पर भी बढ़ सकती है तुहिन.

हमें उस की मदद करनी चाहिए. सोचिए तुहिन, कल हमारी तृषा भी उम्र के इसी मोड़ पर खड़ी होगी… आप उस से बात कीजिए तुहिन. उसे समझाइए. रहा सवाल फोन नंबर का, तो वह एक्सचेज से पता चल जाएगा.’’ ट्रिनट्रिन… ‘‘हैलो, क्या मैं गुलमोहर से बात कर सकता हूं.’’ ‘‘जी, गुलमोहर बेबी तो कालिज गई हैं.’’ ‘‘तो क्या उन की मां से बात हो सकती है?’’ ‘‘मैडम से…ठहरिए देखता हूं.’’ ‘‘हैलो, मिसिज खान स्पीकिंग. हू इज देयर?’’ ‘‘नमस्कार. मेरा नाम तुहिन है. मैं एक जर्नलिस्ट हूं.’’ ‘‘ओह, अच्छा तो आप मेरा इंटरव्यू लेना चाहते हैं…’’ ‘‘जी नहीं, दरअसल, मुझे आप से गुलमोहर के बारे में कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’ ‘‘गुलमोहर के बारे में, पर आप उसे कब से जानते हैं?’’ ‘‘लगभग 3 महीने से. या तब से… जब से उस ने मुझे फोन करना शुरू किया. मैडम, मैं बड़ी हिम्मत जुटा कर आप से बात कर रहा हूं. प्लीज, गलत मत समझिएगा मुझे. मैं ने काफी कोशिश की कि गुलमोहर ही समझ जाए लेकिन वह कुछ समझना ही नहीं चाहती या शायद मैं ही उसे समझा नहीं पाया. लेकिन आखिर में समझना तो उसे ही होगा न.

‘‘पता नहीं मुझे ये सब आप से कहना चाहिए या नहीं, लेकिन मिसेज खान, क्या आप को नहीं लगता कि आप गुलमोहर के साथ कुछ गलत कर रही हैं? पैसा, आजादी, तमाम सुखसुविधाएं. ये सब चीजें उसे वह नहीं दे सकतीं जो उसे चाहिए…आप का साथ, आप का प्यार, आप का मार्गदर्शन. ‘‘आप की और आप के पति की बिजी लाइफ ने उसे बिलकुल अकेला कर दिया है. वह छटपटा रही है. कैसे भी, किसी भी तरह, किसी का भी हाथ थाम कर वह अकेलेपन की गहरी खाई से बाहर आ जाना चाहती है. वह नादान शायद यह भी नहीं समझती कि उस की यह कोशिश उसे बुराई और बदनामी के कहीं अधिक गहरे अंधेरों में फेंक सकती है. ‘‘उस दिन रात के करीब साढ़े 10 बजे थे, जब उस का पहला फोन आया. मेरी आवाज सुन कर उस ने जाने क्या अंदाजा लगाया. जाने क्या समझा…उसे लगता है कि मैं उस का हमउम्र हूं, कालिज में पढ़ने वाला, स्मार्ट, इंटैलीजेंट, इमोशनल. बहुत कुछ उस के सपनों के राजकुमार जैसा…

‘‘उस दिन मुझे अजीब जरूर लगा लेकिन यों ही समझ कर मैं उसे भूल गया. तीसरे या चौथे दिन उस ने मुझे फिर फोन किया. वह बोलती रही, मैं सुनता रहा. मेरी इसी खामोशी को शायद मेरी स्वीकृति समझ लिया उस ने. उस के बाद लगभग हर रोज बल्कि कभीकभी तो दिन में 15 बार तक उस के ब्लैंक काल्स आने लगे. मैं उठाता, तो उस की आवाज खनक उठती. मुझे ले कर वह दूसरी दुनिया में जीने लगी है. चमकीली, सुनहरी, सपनों की दुनिया में. मेरी जगह अगर कोई और होता तो शायद…लेकिन वह इतनी मासूम और भोली है मिसेज खान कि बुरे से बुरे इनसान को भी पाकसाफ बना दे. ‘‘मैं ने उसे बताया, समझाया, साफसाफ कहा, यहां तक कि कई बार झिड़का भी कि मैं शादीशुदा हूं. एक छोटा सा खुशहाल परिवार है मेरा और उस से उम्र में काफी बड़ा हूं, लेकिन वह यह सब मानने को तैयार ही नहीं. कभीकभी ऐसा भी लगता है…जैसे उस की आवाज लड़खड़ा रही हो.

वह बीचबीच में किसी ‘जादू की पुडि़या’ का जिक्र करती है. देखिए, बहुत पक्के तौर पर तो नहीं कहता पर अपने थोड़ेबहुत अनुभव के आधार पर मुझे लगता है कि वह कुछ नशीली दवा भी लेती है.’’ ‘‘शटअप मि. तुहिन. मैं इतनी देर से आप की बेहूदा बकवास खामोशी से सुने जा रही हूं. इस का मतलब आप यह कतई न निकालें कि मैं बोल नहीं सकती. आप जैसे लोगों को मैं बहुत अच्छी तरह से जानती हूं. शोहरत पाने के लिए आप कुछ भी कर सकते हैं, किसी भी हद तक गिर सकते हैं. क्या कसूर है मेरी बेटी का? यही कि वह एक रुतबे वाले खानदान से वास्ता रखती है? उस की जिंदगी से यह फुजूल कहानी जोड़ कर कितना कमा लेंगे आप? 10 हजार? 20 हजार? 25 हजार…अपना मुंह खोलिए मिस्टर जर्नलिस्ट, मैं भी तो देखूं कि आप की औकात क्या है?’’

‘‘मिसेज खान, पैसे का भूखा इनसान इस तरह आप को सच से अवगत कराने की बेवकूफी कभी नहीं करता. बेशक, यह मेरी बेवकूफी ही थी कि आप को आगाह करना मैं ने अपना फर्ज समझा. अब आप जानें और आप की गुलमोहर…’’ ट्रिनट्रिन… ‘‘हैलो, तुहिन, कहां हैं आप? साढ़े 8 हो रहे हैं. जल्दी आइए, और हां, आप की बात हुई उस से, अब तक उस ने 4-5 बार फोन किया पर मेरी आवाज सुन कर हर बार फोन काटती रही. अंत में मैं ने ही पूछ लिया, क्या आप गुलमोहर हैं? अगर हां, तो रात को 10 के बाद फोन कीजिए, साहब बाहर गए हैं. देर से लौटेंगे. उस ने बिना कुछ कहे फोन रख दिया. आप चुप क्यों हैं?’’ ‘‘क्या बोलूं? यह सब झमेला तुम ने ही बढ़ाया है. तुम ने ही सीख दी थी न मुझे.’’ ‘‘ऐसा क्या हुआ, तुहिन?’’ ‘‘हुआ मेरा सर. जानती हो, क्याक्या सुनना पड़ा मुझे उस की मां से, उसे मेरी बात पर जरा भी यकीन नहीं हुआ. उलटा मुझे ही सुनाने लगी. अच्छा बनने का यह नतीजा तो मिलना ही था.’’ ‘‘ऐसा मत कहिए, तुहिन.

उस की मां की जगह अगर मैं होती तो क्या एक अनजाने फोन काल पर विश्वास कर लेती? मिसेज खान ने बिलकुल ठीक कहा, तुहिन. दरअसल, मुझे लगता है फोन से बात नहीं बनेगी. आप को गुलमोहर से मिल कर उसे समझाना होगा. प्लीज तुहिन, यह आखिरी कोशिश. मेरी खातिर…’’ ‘‘उस की मां की भलीबुरी सुनने के बाद मैं काफी अपसेट हो गया था. इसलिए तुम्हें कुछ बताए बिना मैं यहां आ गया. तुम जानती हो न तृप्ति, जबजब मेरे भीतर कुछ घुमड़ता है तो समंदर की इन उफनतीउछलती लहरों का शोर मुझे एकदम शांत और शीतल कर देता है. यहां ठंडी रेत पर बैठ कर मैं बड़ी देर तक सोचता रहा. ‘‘तब मुझे भी लगा कि एक आखिरी कोशिश मुझे करनी ही चाहिए. मैं ने गुलमोहर के घर फोन किया कि मैं तुम से मिलना चाहता हूं. क्या इसी वक्त तुम जुहू बीच पर आ कर मुझ से मिलोगी?

मेरी आवाज सुन कर वह कुछ बोल नहीं पाई. मुझे लगा शायद आश्चर्य से या खुशी से उस की आवाज गले में ही अटक गई होगी.’’ ‘‘फिर क्या वह आई?’’ ‘‘हां. उस का ड्राइवर बीच पर लोगों से मेरा नाम पूछता मुझे ढूंढ़ रहा था. अपना नाम सुन कर मैं खुद ही उस की ओर बढ़ गया. उस ने कहा, ‘सर, गुलमोहर बेबी उधर आप का इंतजार कर रही हैं. मैं ने देखा, सामने…एक लंबी शानदार कार खड़ी थी. मैं ड्राइवर के साथ कार के पास पहुंचा. खिड़की का काला शीशा धीरेधीरे नीचे की ओर सरका. कार में एक बेहद खूबसूरत और मासूम सी, 18-19 साल की लड़की बैठी थी. मैं अनायास ही मुसकरा उठा. शायद यह गुलमोहर ही थी.

लेकिन मुझे देख कर उस के चेहरे पर अजीब सी तटस्थता छा गई. करीब 3-4 मिनट तक वह मुझे देखती रही. नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे. ‘‘फिर उस की शून्य सी दृष्टि 2 मिनट तक अपलक मेरे चेहरे पर ठहरी रही. मैं कुछ कहने को हुआ. पर न जाने क्यों उस ने नजरें फेर लीं. बालों पर टिका चश्मा आंखों पर चढ़ा लिया और अगले ही पल…मेरे मुंह पर धुआं फेंकती उस की शानदार कार तेजी से आगे दौड़ गई. मैं कुछ समझ ही नहीं पाया. अवाक् सा खड़ा देखता रह गया.’’ ‘‘ओह तुहिन, अब मैं यही कहती हूं. छोडि़ए ये सब.

आखिर दूसरों के लिए हम अपनी लाइफ को इतना डिस्टर्ब क्यों कर रहे हैं? आप जल्दी से घर आ जाइए, बस.’’ ट्रिनट्रिन… ‘‘हैलो 343549, तुहिन स्पीकिंग… हैलो तुहिन स्पीकिंग…हैलो…कौन गुलमोहर…मैं तुम से कुछ कहना…’’ ‘‘शटअप मिस्टर तुहिन. वह गुलमोहर मर चुकी, जो तुम से कुछ सुनना चाहती थी. अब आप चाहे कितना भी बोलिए, चीखिए, चिल्लाइए, कुछ भी कीजिए, इस गुलमोहर को अब कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, क्योंकि मैं जान गई हूं. यह सब धोखा है. जादू की वह सफेद पुडि़या भी और तुम भी. मेरी प्यारी अम्मी ने प्यार से मुझे सब समझाया. पढ़नेपढ़ाने की इस उम्र में मुझे बहकाने चले थे. यू चीप 38 साल के बुड्ढे…’’ यही उस की आखिरी

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