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लेखिका: सुधा सिन्हा

वर्षों पहले बांके बिहारी को किडनी स्टोन की तकलीफ हुई थी. उसी के सिलसिले में डा. कैप्टन शर्मा का इस घर में प्रवेश हुआ था. पास में ही रहते थे. कभी सैनिक अस्पताल में थे. घर में बड़ों या बच्चों की कोई बीमारी हो, तो हमेशा उन्हें ही बुला लिया जाता. धीरेधीरे वे इस घर के सदस्य जैसे बन गए.

दोनों परिवारों में भी सामाजिक संबंध हो गए थे. वे सरकारी अस्पताल के डाक्टर थे. वहां से छूटते ही अकसर वे यहां आ बैठते थे और ‘भाभी एक गरमगरम चाय हो जाए,’ कह सोफे पर पसर जाते थे. इस मरीज ने यह तमाशा किया, उस वार्ड बौय ने किसे कैसे तंग किया, किस नर्स का किस डाक्टर से क्या संबंध है, सबकुछ नाटकीय ढंग से बताते जाते. और बच्चों से ले कर बड़ों तक का हंसाहंसा कर दम भर देते. चमकी तो बचपन से ही मानो उन की दुम थी. जब वे आते, बस, उन्हीं से चिपकी रहती. अब बड़ी हो गई है, हजार काम हैं उस को, पर अब भी सबकुछ छोड़छाड़ कर कुछ देर के लिए तो जरूर ही आ बैठती है उन के पास.

‘कोई नजला नहीं, कोई जुकाम नहीं,’ वह हमेशा यही उत्तर देती रही है, लेकिन आज बोली, ‘‘बूआ से आप उन के कमरे में मिल ही लीजिए.’’

‘‘भई, ऐसी क्या बात हुई कि हमें वहां जाना पड़ेगा? तबीयत तो ठीक है न?’’ उन्होंने पूछा.

वर्षों से इस परिवार में आनाजाना है. अब रिटायर हो चुके हैं, पर कभी भी उन्होंने चंद्रा के कमरे में कदम नहीं रखा है. हां, जब भी आते हैं एक नजर उसे देखने की ख्वाहिश उन की अवश्य होती है. पहले जब वह जवान थी तो कभीकभी परदे की आड़ से, छिप कर उन के नाटकीय वर्णनों को सुना करती थी. एक अदृश्य शक्ति से उन्हें एकदम पता लग जाता था कि कब वह उन्हें सुन रही है. वे कुछ सजग हो जाते, वे कुछ और हंसीमजाक कर के उस वर्णन में जान डालने की कोशिश करते. मानो चंद्रा को खुश कर के उन्हें तृप्ति मिलेगी. जब चंद्रा चली जाती तो उन्हें पता चल जाता और उन की बातें भी खत्म हो जातीं और फिर वे चले जाते.

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