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लेखक: सत्यव्रत सत्यार्थी

हर आंख सशंकित और हर चेहरा भयातुर. भयानक असुरक्षा की भावना ने लोगों को अपने घरों में कैद रहने को विवश कर दिया था.

यामिनी बेचैन थी. उसे समय से अस्पताल पहुंच जाने का कर्तव्यबोध बेचैन किए जा रहा था. उसे लग रहा था कि अस्पताल पहुंचाने वाली परमिट प्राप्त एंबुलेंस कहीं उन्मादियों के बीच फंस गई थी. वह अधिक समय तक रुकी नहीं रह सकती थी. उस पर आश्रित उस के मरीज आशा भरी नजरों से उस के आने की बाट जोह रहे होंगे. यामिनी को जब पक्का भरोसा हो गया कि अस्पताल की गाड़ी अब नहीं आएगी तो वह मुख्य सड़क को छोड़ कर तंग और सुनसान गलियों से हो कर, बचतीबचाती किसी प्रकार अस्पताल पहुंची.

ड्यूटी रूम में पहुंचते ही यामिनी निढाल हो कर पास पड़ी कुरसी पर बैठ गई, थकान और रोंगटे खडे़ कर देने वाले दृश्यों के बारे में सोच कर उसे खुद ही ‘आदमी’ होने पर संदेह हो रहा था. अस्पताल में घायलों के आने का क्रम लगातार जारी था और सभी वार्ड अंगभंग घायलों की दिल दहला देने वाली कराहों से थरथरा रहे थे.

अचानक यामिनी के कानों में सीनियर सिस्टर मिसेज डेविडसन के पुकारने की आवाज सुनाई दी तो उस की तंद्रा भंग हुई.

‘‘यामिनी, बेड नं. 11 के मरीज को जा कर देख तो लो. वह दर्द से कराह तो रहा है किंतु किसी भी नर्स से न तो डे्रसिंग करवा रहा है और न इंजेक्शन लगवा रहा है,’’ डेविडसन बोलीं.

यामिनी वार्ड में जाने के लिए खड़ी ही हुई थी कि मिसेज डेविडसन की चेतावनी के लहजे से भरी आवाज सुनाई दी, ‘‘मिस यामिनी, हर पेशेंट से रिश्ता कायम कर लेने की बेतुकी आदत तुम्हारे लिए बहुत भारी पडे़गी. बहुत पछ- ताओगी एक दिन.’’

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