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किसी ने घंटी बजाई. मैं ने छोटी बहन को भेजा, ‘‘देखना, कौन है?’’ उस ने किवाड़ खोले और चौड़ी सी संधि बना कर वहीं खड़ी बाहर किसी से बात करती रही. मैं उत्सुक था कि आखिर कौन है जो भीतर नहीं बुलाया जा सकता? मैं ने बैठेबैठे ही पूछा, ‘‘कौन है?’’

उस ने जवाब कुछ नहीं दिया और भाग कर मेरे पास आ कर धीरे से, ताकि बाहर वाला सुन न ले, बताया, ‘‘कोई आई हैं. मैं ने भीतर आने को कहा, पर नहीं आ रहीं.’’

‘‘आई हैं?’’ आश्चर्य से दोहराता हुआ मैं उठा, ‘‘कौन आई हैं?’’ द्वार पर देखा, 28-30 वर्ष की, सफेद धोती और ब्लाउज में, गेहुंए वर्ण की कोई महिला खड़ी थीं. उलटे पल्ले की धोती देखते ही बताया जा सकता था कि वे पढ़ीलिखी हैं और ईसाई हैं. मैं ने शिष्टतापूर्वक नमस्कार किया. पूरा दरवाजा खोल कर एक ओर हटते हुए कहा, ‘‘आइए, भीतर आइए न. कहिए, कैसे तकलीफ की?’’

‘‘नहीं, नहीं ठीक है,’’ उन्होंने और भी नम्रता से मुसकरा कर कहा. फिर जैसे किसी अपराध की क्षमायाचना कर रही हों, बोलीं, ‘‘देखिए, एक अर्ज है.’’

‘‘कहिए, कहिए न,’’ मैं ने शीघ्रता से कहा. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर अर्ज क्या है, और इन्हें इतना संकोच क्यों हो रहा है?

‘‘देखिए, आप की यह कुतिया है न, यह कब बच्चे दे रही है?’’ फिर मांगने की झेंप से सकुचाते हुए बोलीं, ‘‘हमारा अलसेशियन मर गया है. अब हमें एक कुत्ते की सख्त जरूरत है. वह बेचारा तो बड़ा ही अच्छा था. 12 साल का हो कर मरा. उसे टौमी कहते थे बच्चे.’’ और शायद उस टौमी की याद में पिघल कर उन का गला रुंध गया.

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