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‘‘मां घर खंडहर हुआ जा रहा है. आप को नहीं लगता कि हम 5 लोगों के लिए यह घर थोड़ा बड़ा है, एकदो कमरे किराए पर क्यों नहीं दे देतीं?’’

‘‘बेटा, तुम तो जानती हो कि तुम्हारे पापा का स्वभाव कैसा है. उन के चिड़चिड़ेपन को देख कर भला कोई एक दिन भी यहां रह सकता है?’’

‘‘तो घर बेच क्यों नहीं देते? 250 गज का घर, वह भी दिल्ली के जनकपुरी जैसे पौश इलाके में. कम से कम 6 करोड़ रुपए मिल जाएंगे.’’

‘‘फालतू की बकवास मत करो, रीमा. यह घर तुम्हारे पापा की दिनरात की मेहनत का फल है. जीतेजी तो हम इसे बेचने के बारे में सोच भी नहीं सकते.’’

रीमा मातापिता की बड़ी बेटी थी. 23 साल बीत चुके थे उस की शादी हुए और 6 वर्ष हुए पति का देहांत हुए. मांबाप ने कभी बड़ी बेटी को अकेला महसूस नहीं होने दिया. रीमा के दोनों बच्चों को उस के मांबाप ने दिल्ली के बड़े कालेज में भेजा था. दोनों का पूरा खर्चा भी वही उठा रहे थे.

45 वर्षीया रीमा के लिए जीवन अब उस के बच्चों के आगेपीछे ही घूमता था. अपने मम्मीपापा के लिए तो वह एक आदर्श बेटी थी, उन्हीं की मरजी से शादी की. हमेशा उन के लिए श्रद्धावान रही. घर में बेटे की कमी भी अब वही पूरी कर रही थी.

दूसरी बेटी 41 वर्षीया सृष्टि थी, रीमा से बिलकुल अलग. प्रकाश से शादी भी उस ने मम्मीपापा के खिलाफ जा कर की थी. यही वजह थी कि मम्मीपापा उसे अपने बुढ़ापे की लाठी नहीं सम झते थे और उस से किनारा कर के रखते थे.

सृष्टि के पति के एक प्राइवेट कंपनी में एनिमेटर की नौकरी करते थे. सृष्टि भी उसी कंपनी में स्केच आर्टिस्ट थी. दोनों की महीने की तनख्वाह मिला कर 56 हजार रुपए थी. बेटे निखिल का दाखिला भी मैडिकल कालेज में हो गया था. जीवन में कोई कमी नहीं थी. उस के पास उस का पति था, नौजवान बेटा था, बहुत बड़ा न सही पर खुद का घर था. उस ने कभी मातापिता के आगे हाथ नहीं फैलाए थे. बड़ी बहन रीमा से भी उस के रिश्ते कुछ खास नहीं थे. हां, उस के पति नितिन की मौत पर सृष्टि को दुख तो हुआ था, बहन को कंधा देना भी चाहा था पर उस के पास इतने लोगों का सहारा था कि सृष्टि अपनेआप को पराया महसूस कर दूर ही रही.

अमरकांत और उन की पत्नी सुषमा ने क्या कुछ नहीं देखा था जीवन में. रीमा और सृष्टि को साथ मिल कर बड़ा किया था उन्होंने, बिलकुल वैसे ही जैसे पौधे को सींच कर बड़ा किया जाता है. बेटियों से अटूट प्रेम था. पर जब सृष्टि ने प्रकाश का हाथ थामा तो अमरकांत बेटी के सिर पर आशीर्वाद देने के लिए हाथ नहीं बढ़ा पाए. आखिर बढ़ाते भी कैसे? प्रकाश नीची जाति का जो था. उन्होंने सृष्टि को शादी के लिए मना किया तो अगले दिन ही वह कोर्ट में जा कर शादी कर आई.

वह पढ़ीलिखी थी, सो, कानूनी दांवपेंच अच्छी तरह सम झती थी. सृष्टि और प्रकाश के रिश्ते पर उन्होंने कभी हामी तो नहीं भरी लेकिन पत्नी के कहने पर उसे घर आनेजाने से नहीं रोका.

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‘‘मां, मैं मार्केट जा रही हूं,’’ रीमा ने अपना पर्स टेबल से उठाते हुए कहा.

‘‘ठीक है बेटा, आराम से जाना,’’ मां ने जवाब दिया.

रीमा मौडर्न बाजार में खरीदारी कर के निकल ही रही थी कि उसे मन्नू आंटी दिखीं.

‘‘नमस्ते मन्नू आंटी, बड़े दिनों बाद दिखीं,’’ रीमा ने मन्नू आंटी की ओर देखते हुए कहा.

‘‘अरे रीमा, कैसी हो बेटा,’’ मन्नू आंटी ने पूछा.

‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं, आप बताइए, कीर्ति कैसी है?’’

‘‘वह तो मुंबई में है. पति से तलाक हो गया था. बच्चों के साथ वहीं बस गई. अब कमा रही है और खा रही है.’’

‘‘अच्छा, यह तो बहुत अच्छा है.’’

‘‘हां, अब हर कोई तो अपने मांबाप के ऊपर बैठ कर खाएगा नहीं न,’’ मन्नू आंटी ने ताना कसते हुए जवाब दिया.

रीमा बात के कटाक्ष को सम झ गई थी, वह छोटा सा मुंह लिए रह गई.

कुछ देर बाद रीमा घर तो आ गई पर मनमस्तिष्क अभी भी मन्नू आंटी की बातों पर ही था. रातभर यहां से वहां करवटें बदलती रही. ‘अब हर कोई तो अपने मांबाप के ऊपर बैठ कर खाएगा नहीं.’ मन्नू आंटी की यह बात बारबार उस के दिमाग में दौड़ रही थी. उस की रक्तवाहिनियों में रक्त की जगह पीड़ा दौड़ रही थी. उस के सामने उस के 2 बच्चे थे. उसे उन के लिए कुछ करना था.

पापा अगले महीने रिटायर हो जाएंगे. उस के खुद के बैंक अकाउंट में भी 3-4 हजार रुपए से ज्यादा की रकम नहीं थी. लेकिन, पापा के अकाउंट में अभी 3 लाख रुपए थे. वो कुछ महीने ही चलेंगे. उस के बाद क्या? ससुराल में तो कोई ऐसा संबंधी भी नहीं जो उसे या उस के बच्चों को सहारा दे, मम्मी पापा की जिंदगी अब बची ही कितनी है. रीमा के सामने पूरा भविष्य था.

अगले दिन रीमा ने दोनों बच्चों को अपने पास बैठाया और अपने मन का हाल उन से कह डाला. तीनों घंटों तक इस विषय पर चर्चा करते रहे. उन्होंने कुछ योजना बनाई थी पर वह क्या थी और उस के क्या परिणाम होने वाले थे, इस की अमरकांत और उन की पत्नी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी.

‘‘पापा, जरा इन कागजों पर दस्तखत तो कर दीजिए.’’

‘‘किस चीज के कागजात हैं बेटा? मेरा चश्मा तो ले आओ.’’

‘‘पापा, रिन्नी के कालेज में एफिडेविट जमा करना है, उसी के पेपर हैं. वह कालेज के लिए लेट हो रही है, आप थोड़ा जल्दी कर दें तो अच्छा होगा.’’

‘‘अच्छा, ठीक है, बताओ कहां करने हैं?’’

‘‘यहां,’’ रीमा ने रिक्त स्थान की तरफ इशारा करते हुए कहा.

पापा के दस्तखत करा कर रीमा अपने कमरे की तरफ लौटी.

‘‘काम हो गया मां?’’ दिनेश ने पूछा.

हां, हो गया. मैं आज ही डीलर से घर बेचने की बात कर आऊंगी. महीने के आखिर तक तो घर बिक ही जाएगा. इस के बाद प्लान के दूसरे भाग की बारी आएगी,’’ रीमा ने मुसकराते हुए कहा.

रीमा बिना संकोच किए पापा से एफिडेविट के नाम पर पावर औफ अटौर्नी के पेपर पर दस्तखत करा लाई थी. अब, बस उसे डीलर से मिल कर घर बेचने की बात करनी थी.

एक हफ्ता ही हुआ था कि डीलर ने एक बहुत अच्छी डील के बारे में रीमा को फोन किया.

‘‘हैलो,’’ रीमा ने फोन उठाते हुए कहा.

‘‘हैलो, रीमा जी, मैं बोल रहा हूं, वह आप के घर के लिए एक बहुत अच्छी पार्टी मिल गई है, कब लाऊं घर दिखाने?’’

‘‘जी, वो…म..आ…आप उन्हें कल आने के लिए कह दीजिए,’’ रीमा ने  िझ झकते हुए कहा.

‘‘अच्छाअच्छा, जैसा आप को ठीक लगे.’’

रीमा नीचे मां के कमरे में गई, ‘‘मां, जरा सुनो.’’

‘‘हां, कहो क्या हुआ?’’ मां ने जवाब दिया.

‘‘मां, वो मैं सोच रही थी कि प्रिया आंटी ने पोते के जन्मदिन के लिए बुलाया है, तो आप और पापा वहां क्यों नहीं हो आते. थोड़ा अच्छा भी महसूस होगा.’’

‘‘हां, मैं भी यही सोच रही थी. कल तुम्हारे पापा की छुट्टी भी है. बड़े दिन हो गए प्रिया के घर भी नहीं गए. इसी बहाने एकदो लोगों से मिलनामिलाना भी हो जाएगा.’’

अगले दिन घड़ी के 4 बजे तो 2 ही मिनट बाद दरवाजे की घंटी बजी. रीमा ने दरवाजा खोला. डीलर के साथ एक महिला और एक पुरुष थे.

‘‘जी नमस्ते, मैं रीमा हूं और ये मेरे 2 बच्चे हैं दिनेश और रिन्नी.’’

‘‘रीमाजी, ये मिस्टर राकेश और इन की पत्नी ललिता हैं. बड़े ही इज्जतदार लोग हैं. आप बिलकुल सही हाथों में अपना घर देने जा रही हैं.’’

‘‘अरे, पहले घर पसंद तो आने दीजिए,’’ दिनेश ने आगे बढ़ कर कहा.

‘‘भई, आएगा क्यों नहीं, इतनी बड़ी कोठी है. नजर रखो तो लगता है नजर न लग जाए,’’ रिन्नी  झट से बोल पड़ी.

‘‘हां,’’ लेकिन दीवारें पुरानी होती मालूम पड़ती हैं, रहने से पहले काफी काम की जरूरत है,’’ राजेश ने कहा.

‘‘हां, पर आप को कौन सा यहां अभी रहना है. अगले साल रहना शुरू करेंगे न आप अपना कीर्ति नगर का घर बेच कर. तो, तब तक करा लीजिएगा घर की रिपेयरिंग,’’ डीलर ने कहा.

राकेश और ललिता ने घर की अच्छी तरह जांचपड़ताल की. फिर सभी लोग हौल में आ कर बैठ गए और घर के विषय पर चर्चा करने लगे.

‘‘रीमा जी, घर तो आप के मातापिता का है. वे दोनों कहां हैं? वे यह घर बेचना क्यों चाहते हैं?’’ राकेश ने पूछा.

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‘‘जी, वे जरूरी काम से बाहर गए हैं. घर बेचना इसलिए चाहते हैं क्योंकि वे मेरे दोनों बच्चों को उन की आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर भेजना चाहते हैं. इन से बहुत प्यार है उन्हें. पापा वैसे भी अब रिटायर होने वाले हैं और मां की दिमागी हालत ठीक नहीं है. दोनों 4 महीने बाद मेरी दूर की मौसी के घर पटना रहने चले जाएंगे,’’ रीमा एक सांस में ऐसे बोल पड़ी जैसे रट्टू तोता बोलता है.

‘‘और आप?’’ ललिता ने पूछा.

‘‘मु झ विधवा का क्या है, मैं तो बस पड़ी रहूंगी एक कोने में,’’ रीमा ने उत्तर दिया.

बात 6 करोड़ रुपए में पक्की हो गई. घर खाली करने के लिए राकेश और ललिता की तरफ से कोई जल्दी नहीं थी. लेकिन घर की कीमत मिल जाने के बाद रीमा और उस के परिवार को उस घर में रहने के लिए किराया देना होगा, यह उन का प्रस्ताव था. किराए की रकम 24 हजार थी, जिस के लिए रीमा ने हामी भी भर दी. एक महीना बीत चुका था, पापा रिटायर भी हो चुके थे. सो, वे हर वक्त घर में ही रहने लगे थे.

एक दिन दिनेश कालेज से घर वापस लौटा तो उस के चेहरे पर जरूरत से ज्यादा खुशी थी. आखिर होती भी क्यों न, अभीअभी डीलर के यहां से 6 करोड़ का चैक जो ले कर आया है. अब रीमा के प्लान का दूसरा भाग शुरू होना था.

‘‘मम्मीपापा, मैं आप से कुछ बात करना चाहती हूं?’’

‘‘हां, कहो रीमा,’’ मां ने उत्तर दिया.

‘‘वो…वो दिनेश और रिन्नी का कालेज खत्म हो गया है तो उन की आगे की पढ़ाई के लिए मैं सोच रही थी कि इन दोनों को चंडीगढ़ भेज दूं और मैं भी कुछ दिन इन के साथ ही रह आऊं. आखिर आप को भी तो लगता होगा कैसी बो झ सी पड़ी रहती हूं घर में. हां, आप से इन की फीस के लिए थोड़े पैसे मिल जाते तो मुश्किल आसान हो जाती,’’ कहते हुए रीमा की आंखें भर आईं.

‘‘रीमा, हमारे लिए तुम बो झ नहीं हो, हमारी बेटी हो. तुम्हें जो चाहिए, जितने पैसे चाहिए, खुशी से लो. पर यों चंडीगढ़ चली जाओगी तो तुम्हारे इन बूढ़ेमांबाप का क्या होगा?’’ अमरकांत रीमा की ओर आश्चर्य से देखते हुए बोले.

‘‘पापा, कुछ महीने की ही बात है. बस, थोड़ा समय घर से दूर बिताना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है बेटा, अगर तुम्हारी यही मरजी है तो हमें एतराज नहीं,’’ अमरकांत ने रीमा के सिर पर हाथ रखते हुए कहा.

अगले हफ्ते रीमा बच्चों को ले कर चंडीगढ़ जाने के लिए रवाना हो गई. उस ने पापा से लिए 75 हजार रुपए घर के किराए के रूप में दे दिए. उस के इस षड्यंत्र के बारे में न उस के मातापिता को खबर थी और न ही सृष्टि को. रीमा ने फिर दोबारा घर की तरफ मुड़ कर नहीं देखा. हां, हफ्तेदस दिनों में फोन कर लिया करती थी, पर दोढाई महीना बीतने के बाद उस ने फोन करना भी बंद कर दिया.

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