कभीकभी व्यक्ति समय के हाथों इतना मजबूर हो जाता है कि चाहते हुए भी वह कुछ नहीं कर पाता. वह हजारों लड़ाइयां लड़ सकता है परंतु अपनेआप से लड़ना सब से ज्यादा कठिन होता है. सच तो यह है कि हम अपने ही दिल के हाथों मजबूर हो जाते हैं. कदम स्वयं ही ऐसी राह पर चलने लगते हैं जिन्हें हम ने नहीं चुना. लेकिन राहें हमें वहां तक पहुंचा देती हैं जहां नियति पहुंचाना चाहती है.

मैं सोफे पर बैठी विचार कर रही थी कि मैं ने क्या खोया क्या पाया. खोने के नाम पर अपना सारा बचपन, सभी रिश्तेनाते, सखीसहेलियां अपना यौवन और पाने के नाम पर एक 9 साल का बेटा और दूसरे पति. पति तो सदा अपनेआप में ही खोए रहते. कहने को वे एक मल्टीनैशनल कंपनी में उच्चाधिकारी थे पर एक सूखी सी नीरस जिंदगी के आदी हो चुके थे. जिन की अपनी जिंदगी ही रंगहीन हो वे भला मुझे क्या सुख देते. लगता है प्रकृति मेरे हाथ में सुख की रेखा बनाना ही भूल गई थी. उस से जरूर कोई भूल हुई है और अब खुद को भुलाना ही मेरी नियति बन चुकी है.

शाम को खाने की टेबल साफ कर मैं ने उन को और बेटे को बुलाया. यंत्रचालित से हम सब खाना खाने लगे. आज तक न कभी किसी खाने की तारीफ, न शिकवा, न शिकायत, भले ही मीठा कम हो या नमक तेज. चुप्पी तोड़ते हुए बेटा बोला, ‘‘पापा, कल बुकफेयर का आखिरी दिन है और आप की छुट्टी भी है. मुझे बुकफेयर जाना है.’’ पति ने खामोशी से स्वीकृति दे दी.

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