लेखक- नागेंद्र बहादुर सिंह चौहान 

कोरोना काल में पृथ्वीपाल का परिवार कई तरह की मुश्किलों का सामना बड़ी हिम्मत से कर रहा था. उस का गांव बहादुरपुर राजधानी लखनऊ से महज 5 किलोमीटर दूर है. वहां सिर्फ 6-7 परिवार अमीर हैं. 20-25 गरीब परिवार मजदूरी से गुजरबसर करते हैं, वहीं 60-70 परिवार पृथ्वीपाल के परिवार जैसे हैं. ये परिवार न पूरी तरह से गरीब हैं, न अमीर ही. ये लोग ‘रोज कुआं खोदो रोज पानी पीयो’ वाली हालत में हैं. इन सब की आमदनी मजदूरों से थोड़ी सी ज्यादा है. पृथ्वीपाल के पास 2 बीघा जमीन थी, लेकिन पत्नी रामरती के इलाज की खातिर जमीन बेच डाली थी. रामरती को 6 साल पहले कैंसर हो गया था. सारे जेवर और जमीन बेचने के बाद भी रामरती की मौत हो गई थी.

अब पृथ्वीपाल के परिवार में उस की 3 बेटियां और एक छोटा बेटा बचा था. उस ने परिवार को चलाने के लिए बैंक से कर्ज ले कर एक आटोरिकशा खरीदा था. वह पिछले 3 साल से लखनऊ में आटोरिकशा चला रहा था. पृथ्वीपाल की बड़ी बेटी माया बीए करने के बाद एक निजी स्कूल में पढ़ाने लगी थी. बापबेटी की कमाई से परिवार ठीकठाक चलने लगा था. माया ने अपनी दोनों छोटी बहनों और भाई का नाम उसी स्कूल में लिखवा दिया था. पृथ्वीपाल को अब माया की शादी की चिंता रहती थी. पृथ्वीपाल आटोरिकशा की अदायगी अच्छे ढंग से कर रहा था. महीने की ही किसतें बाकी रह गई थीं. बैंक ने उसे मई में दूसरा आटोरिकशा लेने की सलाह दी थी. पृथ्वीपाल ने भी सोच लिया था कि इस रिकशे की अदायगी होते ही वह दूसरा रिकशा निकाल लेगा. नया वाला खुद चलाएगा,

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