मंदिर के मुख्य पुरोहित गोवर्धन शास्त्री का काम अपनी स्वरचित कथाओं से धर्मभीरु लोगों को सम्मोहित करना और उन्हें स्वार्थी धर्म के दलदल में धकेलना था. ऐसे में वार्षिक उत्सव के अवसर पर वीरेन ने ऐसा क्या आक्रामक वक्तव्य दिया जिस से गोवर्धन शास्त्री स्वयं को शर्मिंदा महसूस करने लगा?
भोर का शांत वातावरण गाय के रंभाने व पक्षियों के कूजन से सुहावना लग रहा था. पुरातन मंदिर के विस्तृत घेरे में बाईं तरफ गोवर्धन शास्त्री का कई कमरों वाला पुश्तैनी मकान है. मकान के पीछे वाले बगीचे में गोवर्धन शास्त्री ने पूर्व की ओर मुख कर, चांदी के पात्र से कुछ पीने के बाद सूर्य की उभरती लाली को नमन किया, तभी खामोशी को तोड़ती सपसप की आवाज से वह एकदम से चौकन्ना हो गया. इस आकस्मिक ध्वनि को वह सकपकाई नजर से इधरउधर तलाशने लगा. तब उसे झुरमुट के पीछे छुगनू की बलिष्ठ देह दिखाई दी. वह झाड़ू से सफाई कर रहा था. चोर कदमों से उस के निकट जा कर, शास्त्री ने आशंकित स्वर में भौंहें सिकोड़ कर पूछा, ‘‘अरे छुगनू, झाडि़यों के पीछे से क्या देख रहा था?’’
शास्त्री के दाएं कान पर टिके जनेऊ और तोंद पर छलक आई कुछ पीली बूंदों को छुगनू ने देखा, और दबी मुसकान में कहा, ‘‘कुछ नहीं महाराज, मैं तो सफाई कर रहा था.’’
‘‘बता तो सही, तू इतनी सुबह कैसे आ धमका. पिछले 2-3 दिनों से तो तू गायब ही था.’’
छुगनू की बढ़ी हुई दाढ़ी में उभरे गाल अधिक फूल गए. उस ने उत्साह से बताया, ‘‘महाराज, संगरिया की मेहतर बस्ती में सुदर्शन महाराज का बड़ा मंदिर बनाया गया है. मुझे भी न्योता था, सो मैं वहीं गया था.’’
छुगनू की बात सुन कर शास्त्री के मस्तिष्क में तुरंत एक विचार कौंधा और उस ने कहा, ‘‘अरे पगले, दूसरों की दहलीज पर माथा रगड़ने से बेहतर अपनी ही चौखट को पूजनीय क्यों नहीं बनाते.’’
छुगनू की समझ में बात नहीं आई तो शास्त्री ने खुल कर कहा, ‘‘मेरा मतलब है, तुम भी अपना वैसा ही मंदिर क्यों नहीं बनाते.’’
‘‘अपना मंदिर, बात तो चोखी है, महाराज. पर धन और दूसरी कई बातों का इंतजाम कहां से होगा?’’
‘‘तुम लोगों के पास धन की कमी तो है नहीं. और अपने भगवान पर अगर सच्ची श्रद्धा हो तो सब काम अपनेआप ही होते चले जाएंगे.’’
‘‘महाराज, आप का आशीर्वाद रहा तो यह हो सकता है.’’
अपना काम साधने के बाद लाड़ से डपटने का अभिनय करता हुआ शास्त्री बोला, ‘‘अब तू तो ठहरा सरकार का जमाई. जब चाहे काम पर आ सकता है, छुट्टी ले सकता है. चाहे 2 दिन से यहां शौचालय और गोशाला बद से भी बदतर क्यों न हो गए हों. उसे क्या हम लोग साफ करेंगे? और सुन, अपने इंजीनियर भाईसाहब से शौचालय में आई गंदगी की बाढ़ के बारे में जरा याद से कहना.’’
छुगनू को उस का काम बता कर मंत्रोच्चार करता हुआ शास्त्री अपने मकान के भीतर आ गया और अपने सेवक को पुकार लगाई, ‘‘अरे गोपाल, मेरे स्नान का पानी लगा दे.’’
इसी बीच मंदिर के आंगन से किसी ने चिंतित स्वर में शास्त्री को पुकारा, ‘‘शास्त्रीजी, जल्दी से आ कर मेरे बच्चे को बचा लीजिए.’’
शास्त्री ने कुपित हो कर आवाज की तरफ देखा और झिड़की देता हुआ बाहर आया, ‘‘कौन है ये ससुरा जो सुबहसवेरे ही आ पहुंचा.’’
लेकिन बाहर आ कर आगंतुक को देखते ही सहसा अपने स्वर में शहद घोलता शास्त्री बोला, ‘‘अरे मदन सेठ, आप. इतनी सुबह कष्ट क्यों किया? किसी की तबीयत ठीक नहीं है क्या? मेरे स्नानध्यान के बाद किसी छोकरे को ही भेज देते.’’
‘‘क्या बताऊं शास्त्रीजी, मेरे बच्चे को रात से दस्त हो रहे हैं. इसी परेशानी में पूरी रात कटी है. जल्दी से कोई उपाय बताइए. लल्ला कुम्हलाया जा रहा है.’’
तुरंत चेहरे पर ममत्व के भाव ला कर शास्त्री बोला, ‘‘सेठजी, लहसुन की एक पिसी हुई फांक एक कटोरी छाछ में घोल कर उस में थोड़ी हींग और सोंठ डाल कर बच्चे को दे दीजिए, आराम आ जाएगा.’’
‘‘जी, शास्त्रीजी, आप का बड़ा आभारी हूं,’’ कह कर मदन सेठ ने हड़बड़ी में झुक कर प्रणाम किया और जाने लगा. तब शास्त्री ने उसे टोका, ‘‘सेठजी, जाने से पहले गोपाल के पास दक्षिणा तो देते जाइए. आप से एक और जरूरी बात कहनी है मुझे. छुगनू कह रहा था कि संगरिया की मेहतर बस्ती में आप के भगवान का नया मंदिर बनाया गया है. जरा सोचिए, मदन सेठ, आप के समाज ने सूद के धंधे में आप को कितना कुछ दिया. अब आप को भी समाज का कर्ज चुकाना चाहिए और धार्मिककार्य में मदद करने से सारे कर्ज जल्द चुकाए जा सकते हैं.’’
अपने मतलब की बात मदन सेठ के गले उतारने के लिए शास्त्री कोशिश कर रहा था.
‘‘हमारे मंदिर का वार्षिक उत्सव निकट ही है. उस में हिस्सा लेने के लिए धर्माचार्य केशवानंदजी आ रहे हैं. उन्हीं के हाथों से आप की मेहतर बस्ती में सुदर्शन महाराज के मंदिर का शिलान्यास करा देंगे. मंदिर बन जाने के बाद उस के पुजारी की व्यवस्था हम पर रही. तो देखिए, आया मौका न गंवाइए. अपने लोगों को इस बारे में मना कर तैयारियां शुरू कर दीजिए और अपना परलोक सुधारिए,’’ कह कर रोबदार ढंग से शास्त्री भीतर चला गया. मदन सेठ कुछ देर तक इस बारे में सोचता खड़ा रहा.
गोवर्धन शास्त्री मंदिर का मुख्य पुरोहित था. धर्मकर्म से संबंधित कुछ पुस्तकें लिखने के अलावा, वह क्षेत्र के सामान्य मरीजों को झाड़पत्ते के नुस्खे भी देता था. ऐसा नहीं था कि वहां डाक्टरों की कमी थी पर शास्त्री ने कुछ धर्मभीरु लोगों को अपनी बढ़ाचढ़ा कर लिखी कथाओं से सम्मोहित कर के, अपने अधकचरे इलाज पर आस्था रखने के लिए बाध्य कर रखा था. इस आततायी करतूत पर किसी के द्वारा प्रतिवाद करने का प्रश्न ही नहीं था क्योंकि धर्मसभाओं में उस का रोब था.
अपना सरकारी काम करते हुए छुगनू बुरी तरह थक चुका था. पिछले 2 दिनों का उस का काम बाकी था. उसी को निबटाते हुए अब उस का बदन कसक रहा था. वह थकावट से राहत पाने के लिए एक जगह बैठा ही था कि उसे किसी ने आवाज दी, ‘‘छुगनू भैया, क्या हुआ, किस परेशानी में हो?’’
नगरपालिका के जूनियर इंजीनियर वीरेन को अपने पास आता देख छुगनू सहज दिखने की चेष्टा करने लगा.
‘‘कुछ नहीं, वीरेन भैया. 2 दिन मैं काम पर नहीं था न, इसलिए आज काम कुछ ज्यादा पड़ गया. सोचा कुछ देर सांस ले लूं.’’
‘‘क्यों, क्या हुआ था?’’
‘‘संगरिया गया था.’’
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