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छुगनू को देखते ही शास्त्री का उपद्रवी मस्तिष्क हरकत में आ गया, ‘‘क्या कहूं गोस्वामीजी, ये इंजीनियर वीरेन के सिरचढ़ाए लोग हैं. अब देखिए, इस ततैये का घमंड कैसे उतारता हूं. आप लोग इस का आनंद अवश्य लें,’’ यह कह कर वीरेन को सुनाई दे, इतने अंतर पर खड़ा हो कर शास्त्री ऊंची आवाज में बोला, ‘‘अरे गोपाल, उधर जा कर उन से कहो वे अलग पंक्ति बना कर बैठें. स्नानशुद्धि के बिना मंदिर में आना भी पाप है. जब उन का अपना मंदिर बन जाएगा तब वे जैसा चाहे व्यवहार करें, कोई कुछ नहीं कहेगा.’’

वीरेन ने देखा छुगनू और उस के साथियों को अलग से पंक्ति लगाने के लिए कहा जा रहा है. उस से यह सब सहा न गया तो उस ने शास्त्री से कठोर स्वर में पूछा, ‘‘शास्त्रीजी, यह क्या तरीका है? किसी को इस तरह अपमानित करते हैं?’’

शास्त्री, जो इसी अवसर की ताक में था, विषैली मुसकान बिखेरता हुआ बोला, ‘‘वीरेनजी, अपनी भावनाओं को इस तरह ढीला न छोडि़ए. यहां सरकारी नहीं धर्मनीति चलती है. शुचिता का खयाल हमें रखना ही पड़ता है.’’

इस बात की पुष्टि के लिए एक और पंडित तुरंत आगे आया, ‘‘और नहीं तो क्या. ब्राह्मणों से पहले कोई और कैसे मुंह जूठा कर सकता है.’’

‘‘क्या यह आप के भगवान का फरमान है?’’ वीरेन ने क्रुद्ध हो कर कहा, तो शास्त्री जनेऊ में अंगूठा फेरता और चेहरे को अति गर्व से खौफनाक बनाता बोला, ‘‘इस धरती पर तो ब्राह्मण ही देवता समझा जाता है. अब भले ही कुछ कूढ़मग्ज लोग न मानते हों परंतु इस से धर्म की कोई हानि नहीं होती.’’

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